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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३७४

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रंगभूमि

भैरो—"उसके झोपड़े में मैंने आग लगाई?"

बजरंगी—“और किसने लगाई?"

भैरो—"झूठे हो!"

ठाकुरदीन—“भैरो, क्यों सीनेजोरी करते हो! तुमने लगाई या तुम्हारे किसी यार ने लगाई, एक ही बात है। भगवान ने उसका बदला चुका दिया, तो रोते क्यों हो?"

भैरो—"सब किसी से समझूँगा।”

ठाकुरदीन—“यहाँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है।"

भैरो ओठ चबाता हुआ चला गया। मानव-चरित्र कितना रहस्यमय है! हम दूसरों का अहित करते हुए जरा भी नहीं झिझकते, किंतु जब दूसरों के हाथों हमें कोई हानि पहुँचती है, तो हमारा खून खौलने लगता है।