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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/६९

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रंगभूमि


गवाही देने की भी नौबत न आई थी। नायकराम के चले आने के बाद ताहिरअली भी घर गये; पर बजरंगी वहीं आस-पास टहलता रहा कि वह बाहर निकलें, तो अपना दुखड़ा सुनाऊँ।

ताहिरअली के पिता पुलिस विभाग में कांस्टेबिल से थानेदारी के पद तक पहुँचे थे। मरते समय कोई जायदाद तो न छोड़ी, यहाँ तक कि उनको अंतिम क्रिया कर्ज से की गई; लेकिन ताहिरअल्ली के सिर पर दो विधवाओं और उनकी संतानों का भार छोड़ गये। उन्होंने तीन शादियाँ की थीं। पहली स्त्री से ताहिरअली थे, दूसरी से माहिरअली और जाहिरअली, और तीसरी से जाविरअली। ताहिरअली धैर्यशील और विवेकी मनुष्य थे। पिता का देहांत होने पर साठ-भर तक ता रोजगार की तलाश में मारे मारे फिरे। कहीं मवेशीखाने को सुइर्रिरी मिल गई, कहीं किसी दवा बेचनेवाले के एजेंट हो गये, कहीं चुंगी-घर के मुंसी का पद मिल गया। इधर कुछ समय से मिटर जॉन सेवक के यहाँ स्थायी रूप से नौकर हो गये थे। उनके आचार-विचार अपने पिता से बिलकुल निराले थे। रोजा-नमाज के पावंद और नीयत के साफ थे। हराम की कमाई से कोसों भागते थे। उनकी माँ तो मर चुकी थी; पर दोनों विमाताएँ जीवित थी। विवाह भी हो चुका था; स्त्री के अतिरिक्त एक लड़का था-साविरअकी, और एक लड़की-नसीमा। इतना बड़ा कुटुंब था, और ३०) मासिक आय! इम महँगी के समय में, जब कि इससे पचगुनी आमदनी में सुचारु रूप से निर्वाह नहीं होता, उन्हें बहुत कष्ट झेलन पड़ते थे; पर नीयत खोटी न होता थी। ईश्वर-भीरुता उनके चरित्र का प्रधान गुण थी। घर में पहुँचे, तो माहिरअली बैठा पढ़ रहा था जाहिर ओर जागिर मिठाई के लिए रो रहे थे, आर साबिर अंगन में उछल-उछलकर बाजरे की रोटियाँ खा रहा था। ताहिरअली तख्त पर बैठ गये, और दोनों छोटे भाइयों को गोद में उठाकर चुप कराने लगे। उनकी बड़ी घिमाता ने, जिनका नाम जैनब था, द्वार पर खड़ा होकर नायकराम और बजरंगी की बातें सुनी थी। बजरंगी दस ही पाँच कदम चला था कि माहिरअली न पुकारा-"सुनोजी, आ आदमी! जरा यहाँ आना, तुम्हे अम्माँ बुला रही हैं।”

बजरंगी लौट पड़ा, कुछ आस बँधी। आकर फिर बरामदे में खड़ा हो गया। जैनत्र टाट के परदे की आड़ में खड़ी थीं, पूछा- क्या बात थी जी?"

बजरंगी-"वही जमीन की बात बीत थी। साहब इसे लेने को कहते हैं। हमार, गुजर-बसर इसी जमोन से होता है। मुंसीजी से कह रहा हूँ, किसी तरह इस झगड़े को मिटा दीजिए। नजर-नियाज दने को भी तैयार हूँ, मुदा मुंसीजी सुनते ही नहीं।"

जैनब-"सुनेंगे क्यों नहीं, सुनेंगे न तो गरीबों की हाय किस पर पड़ेगी? तुम भतो गँवार आदमी हो, उनसे क्या कहने गये? ऐसी बातें मरदों से कहने की थोड़ी ही होती हैं। हमसे कहते, हम तय करा देते।”

जाबिर की माँ का नाम था रकिया। वह भी आकर खड़ी हो गई। दोनों महिलाएँ साये की तरह साथ-साथ रहती था। दोनों के भाव एक, दिल एक, विचार एक, सौतिन