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रसज्ञ-रुञ्जन
 

और प्रवल प्रतिभा की आवश्यकता है। इस समय प्रतिभा का पूरा पूरा विकास बहुत कम देखा जाता है। इसलिए समस्याओं की पूर्तियाँ भी प्रायः अच्छी नहीं होती। हमारी यह सम्मति है कि समस्या पूर्ति के विषय को छोड़ कर, अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार विषयों को चुन कर, कवि को यदि बड़ी न हो सके, तो छोटी ही छोटी स्वतन्त्र कविता करनी चाहिए, क्योंकि इस प्रकार की कविताओं का हिन्दी में प्रायः अभाव है।

संस्कृत और अंगरेजी काव्यों का अनुवाद हिन्दी में करने की ओर भी कवियों की रूचि बढ़ने लगी है। परन्तु स्वतन्त्र कविता करने की अपेक्षा दूसरे की कविता का अनुवाद अन्य भाषा में करना बड़ा कठिन काम है। एक शीशी में भरे हुए इत्र को जब दूसरी शीशी में डालने लगते है तब डालने ही में पहले कठिनता उपस्थित होती है; और यदि बिना दो चार बूँद इधर-उधर टपके वह दूसरी शीशी में चला भी गया, तो इस उलट-फेर में उसके सुवास का विशेषांश अवश्य उड़ जाता है। एक भाषा की कविता का दूसरी भाषा में अनुवाद करने वालों को यह बात स्मरण रखनी चाहिए। बुरा अनुवाद करना मूल कवि का अपमान करना है; क्योंकि अनुवाद के द्वारा उनके गुणों का ठीक-ठीक परिचय न होने के कारण पढ़ने वालों की दृष्टि में वह हीन हो जाता है। इसलिए किसी पुस्तक का अनुवाद आरम्भ करने के पहले अनुवादक को अपनी योग्यता का विचार कर लेना नितान्त आवश्यक है। सच तो यह है कि जो अच्छा कवि है वही अच्छा अनुवाद करने में समर्थ हो सकता है; दूसरा नहीं। परन्तु अच्छा कवि होना भी दुर्लभ है। महाकवि मसक ने ठीक कहा है—

तान्तर्थरत्नान न सन्ति येषा सुवर्णसघे्न चये न पूर्णाः।
ते रातिमात्रेण दरिद्र कल्पा यान्तीश्वरत्वं हि कथं कवीनाम्॥

अर्थात्—अर्थ-रत्न और स्वर्ण-समूह से जो परिपूर्ण नहीं है,