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पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/२३

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१—कवि-कर्त्तव्य
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वे महादरिद्री लोग केवल रीति-मात्र का अवलम्बन कर के कवीश्वर की पदवी कदापि नहीं पा सकते।

काव्य के गुणों और दोषों की विवेचना संस्कृत की जिन पुस्तकों में है, उनमें कवियों के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य पर बहुत कुछ कहा गया है। परन्तु उन सब बातों का विचार हम यहाँ पर नहीं कर सकते। केवल स्थूल-स्थूल बातों ही के विचार की इच्छा से हमने यह लेख आरम्भ किया था। अतएव, अब हम इसे यहीं समाप्त करते हैं।


[२]

संसार में ईश्वर या देवताओं का अवतार कई प्रकार का और कई कामों के लिए होता है। अलौकिक कार्य करने वाले प्रतिभाशाली मनुष्य ही अवतार हैं। स्वाभाविक कवि भी एक प्रकार के अवतार है। इस पर कदाचित कोई प्रश्न करे कि अकेले कवि ही क्यों अवतार माने गये, और लेखक इस पद पर क्यों न बिठाये गये? तो यह कहा जा सकता है कि लेखक का समावेश कवि में है, पर कवियों में कुछ ऐसी विशेष शक्ति होती है, जिसके कारण उनका प्रभाव लोगों पर बहुत पड़ता है। अब मुख्य प्रश्न यह है कि कवि का अवतार होता ही क्यों है? पहुँचे हुये पण्डितों का कथन है कि कवि भी "धर्म्म-संस्थापनार्थाय" उत्पन्न होते हैं। उनका काम केवल तुक मिलाना या "पावस-पचासा" लिखना ही नहीं। तुलसीदास ने कवि होकर वैष्णव-धर्म की स्थापना की है, मत-मतान्तरो का भेद मिटाया है और "ज्ञान के पन्थ को कृपाण की धार" बताया है। प्रायः उसी प्रकार का काम, दूसरे रूप में, सूरदास, कबीर और लल्लूलाल ने किया है। हरिश्चन्द्र ने शूरता, स्वदेश-भक्ति और सत्य प्रेम का धर्म चलाया है। जिन कवियों ने केवल संस्कृत भाषा ही का भण्डार भरा है वे भी, किसी न किसी रूप में, लोगों के उपदेशक थे।