सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४—कविता
६३
 

गद्गद् हो उठता है और किसी-किसी के आँसू तक निकलने लगते है। इसका नाम कविता-शक्ति है। ऐसी ही उक्तियों को कविता कहते है।

एक तत्वज्ञानी ने तो यहाँ तक कहा है कि रस-परिपक्कता ही कविता है। उसे मुख से कहने की आवश्यकता नहीं और कागज पर लिखने की आवश्यकता नहीं। यदि नट रङ्गभूमि में उपस्थित होकर, अपना मुँह ऊपर की ओर उठाकर और गर्दन हिला कर, सभासदों को हँसादे, तो उसके उस व्यापार को भी कविता कहना होगा। आजकल के विद्वानों का मत है कि अन्तःकरण में रस को उत्पन्न करके, और थोड़ी देर के लिए और बातों को भुला कर, उदार विचारों में मन को लीन कर देना ही कविता का सच्चा पर्यवसान है। कविता द्वारा यह भाषित होना चाहिए कि जो बात हो गई है वह अभी हो रही है; और जो दूर है वह बहुत निकट दिखलाई देती है।

एक पण्डित का मत है कि कविता एक भ्रम है; परन्तु वह सुखदायक है। उनका अच्छी तरह उपभोग लेने के लिए थोड़ी देर तक अपनी सज्ञानता भूल जानी चाहिए। जो कुछ सीखा है उसका भी विस्मरण कर डालना चाहिए, और कुछ काल के लिए बालक बन जाना चाहिए। कसल के समान आँख नहीं होती;‌ कोकिला का-सा कण्ठ किसी का नहीं होता, जो कुछ इसमें लिखा है, झूँठ है—इस प्रकार की बाते मन में आते ही कविता का सारा रस जाता रहता है। कविता मे जो कुछ कहा गया है उसे ईश्वर वाक्य मान कर उसका रस लेना चाहिए।

आज कल के इतिहास-वेत्ताओं का कथन है कि देश में जैसे-जैसे अधिक सुधार होता है और जैसे-जैसे विद्या-बुद्धि बढ़ती जाती है, वैसे-ही-वैसे कविता-शक्ति भी कम होती जाती है। अब पहिले के ऐसे अच्छे कवि नहीं होते। यह इस बात का प्रमाण