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रसज्ञ-रञ्जन
 

है। यह बहुत ठीक है कि ज्यों-ज्यों हम प्राचीन काल की ओर देखते हैं त्यों त्यों कविता विशेष रसाल दिखाई देती है। प्राचीन कवियों का सारा ध्यान अर्थ की ओर रहता था; भाषा की ओर बहुत ही कम रहता था। इसीलिए उनकी कविता में उनका हृद-गत-भाव बहुत ही अच्छी तरह से ग्रंथित हो जाता था। परन्तु उनके अनन्तर होने वाले कवियों में प्रबन्ध, शब्द-रचना और अलङ्कार आदिको की ओर ध्यान अधिक जाने से कविता में अर्थ-सम्बन्धी हीनता आ गई है। एक बात और भी है। कविता के लिये एक प्रकार की भावुकता, एक प्रकार की सात्विकता और एक प्रकार का भोलापन दरकार होता है। वह समय के परिवर्तन से प्रतिदिन कम हो जाता है, इसीलिए पहले की जैसी कविता अब नहीं होती। और प्राचीन कवियों की कविता के सरस होने का एक कारण यह भी है कि किसी प्रकार की आशा के वशीभूत होकर वे कविता न करते थे। सत्कृत्य द्वारा कालक्षेप करने, अथवा परमेश्वर को भक्ति द्वारा प्रसन्न करने ही के लिए वे प्रायः कविता करते थे। यह वात अब बहुत कम पाई जाती है। कविता में हीनता आने का यह भी एक कारण है।

कविता से विश्रान्ति मिलती है। वह एक प्रकार का विराम स्थान है। उससे मनोमालिन्य दूर होता है और थकावट कम हो जाती है। चक्की पीसने के समय स्त्रियाँ, काम करने में मजदूर आदि, परिश्रम कम होने के लिये, गीत गाते है। जैसे मनुष्या के लिए गाने की जरूरत है वैसे ही देश के लिए कविता की ज़रूरत है। प्रति दिन नये-नये गीत बनते है और सब कही गाये जाते है। इसी नियमानुसार देश में समय-समय पर नई-नई कविताएँ हुआ करती है। यह स्वाभाविक किवा नैसर्गिक योजना है।