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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/२८

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  • रस्मनऊ को पत्र नाज़रीन रहे म हालात ऐकि जिन्हें सुनहर मेरे कलेजे पर बिजली इटर पड़ी और में तलवार जाली गिराया। का तक उत्सबदमासी

मर्का की मुझे कुछ भी लघर न रही लेकिन जब मेरे हेश हा दुरसान हुए तो मैंने क्या देखा कि वही इन परे सर को अपनीमाइलिये हुई मेरे मुह पर अपने पल हवा कर रही है। यह देख, ज्यों ही मेंने उसका हाथ पकडना चाहा, वह छत्तीपारशी ४क कर दूम का बड़ी हुई और बोली "जनाल!हाथ पकड़ते आrat नही आती और और इस बात को भूल रहे हैं कि मैं बी दिला की लाड़ी हूं।" मैंने कहा- न जाने कि तुम जा- विजारमहा या उसकी कई लोडी ! जब तलका हार, यह नहीं जान सकता कि तुम कौन हो! लेकिन बातें तुमने ऐसी पोशीदः और सही सही बयान की हैं कि जिन पर मैं लब नहीं हिला सकता। इसी लिये मैं चाहता हूं कि जरा देखू तो सही कि तुम कौन हो!" ___यह सुन कर वह पाल चली आई और बोली,-मैं समझती हूं कि तुम दिलाराम की पीठ परका वह मसा देखना चाहते है।गे, जिसके दोनों जानिय देश नम्हीं नहीं खदाई मछलियां बनी हुई थी !" यह सुनकर हैरत से मैं उसके मुहं की तरफ़ देखने लगा और खाला,-"हां, सिर्फ इतना ही मैं देखना चाहता हूं। वह, पास आकर )" ते, लेो देखलो 10 माह, नागीन ! मैंने बहुत गौर के साथ देखा, लेकिन उसस किस्म का कुछ भी निशान उसको पीड पर न पाया। लाचार, मैंने उसका हाथ छोड़ दिया और वह मेरे हाथ में एक अंगूठी देकर कुछ दुर हट कर बोली, लीजिए, यह वही अंगूठी है, जिसे आपने दिलाराम.को निकाह होने के.प्रेश्तर ही अपनी मुहब्बत की निशानी के तौर पर दी थी। इसे आखिरी वक्त में दिलाराम ने अपनी अंगुली से अळ किया और मुझे देकर कहा कि, - यूसुफ को देदेनी । " पस, मैं आपके पास आई ! अब मैं आपसे रुखसत होती हूं कि अब