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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/२९

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शाहीमहतसरा ताफ़यारत आपले मेरी मुलाकात न होगी। मैंने कहा,- श तुम कह सकती हैा कि दिलाराम घरले क्यों गायक हुई। लोकहा.-" यह औरत कही । ई हूं कि वह नजीर के इश्क दीवाना होकर उसी के साथ घर से निकली थी और जब उसने यह सुना कि नजीर को तुमने मार डाला दी मारे रज के अपनो अमुली में ले यह अती उतार कर उसने तुम्हें दे देने के लिये मुझे दी और आप अपने यार के राम में स्व शी को। " नागरोन ! इतना कहकर वह स्याहरूमा इतर गई और मैं कठपुतली की तरह जहां का तहां खड़ा खजा उस अंगूठी को देखता,आहे गर्म खेचता, आंसू बहाता और जिले में अब तक वफ़ादार समझे हुए था, उस बेवफा दिलाराम का ख़याल कर कर के अपने जिगर' का खन पी रहा था ! कव तक मैं उस हालतमें मुन्नतिला रहा, इसकी मुझे कुछ खबर न रही, लेकिन दूसरे दिन जब मेरी नींद खुली तो मैं अपनी चारपाई पर पड़ा हुआ था । किसने मुझे चारपाई पर सुला दिया था, यह मैं नहीं कह सकता। क्यों कि यह मुझे बखूबी याद है कि मैं ज़मीन में खड़ा बड़ा अंगूठी पर गौर कर रहा था । खैर मैंने उठकर इधर उधर टहलना शुरू किया तो देखा कि कोठरी साफ़ है और जब उस अंगूठी को फिर देखना चाहा तो उसका कहीं पता न लगा । मैंने हरचन्द अँगूठी को खोजा, लेकिन वह गायब थी ! अब, नाज़रीन ! आप ही बतलायें कि क्या मैं इस तमाशे को भी सरासर स्वावानयाल ही समझू !!!