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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/६४

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लखनऊ को कत्र उसकी सूरत देखों। देखतेही मैंने पहचान लिया कि यह कौन नाज़नी है ! नाकारोंन, इस बात को भूले न होंगे कि जब मैं आसमानी के साथ शाहीमहलसरा के अन्दर दाखिल हुआ था और मुझे एक अन्धेरी कोठरी में छोड़ कर वह गायब हो गई थी, तब यही नाज़नी हाथमें रोशनी लिए मेरे सामने आई थी ! यही मुझे अपने आलीशान कमरे में लेगई थी और इसी के कमरे के अन्दर से मैं पहिले पहिल भासमानी की कैद में पड़ा था। उस कैदसे भी मुझे इसीने छुड़ाया था और मझे गोल इमारत के अन्दर रक्खा था। यह देख कर मैं निहायत खुश हुआ और मैंने चाहा कि उठकर उसके पास चलं कि उस कमरे का वही दरवाज़ा, जिधर से कि वह औरत आई थी, बहुतहीं धीरे से खुला और एक दीगर औरत ने कामरे के अन्दर आकर दरवालो को भीतर से बन्द कर लिया। वह औरत धीरे २ उस नाजानी की तरफ बढ़ने लगी, लेकिन उसकी निगाह मेरे जानिषथी। जब वह कुछ करीब आई उसके चेहरे पर बजाला पड़ा तो मैंने पहचान लिया कि यह वही बांदी है, जिसके साथ मैंने दोस्ती कर सी थी और जिसकी वजह से मझे निहायत आराम मिला था। यह देखकर मेने खुदा का शुक्रिया अदा किया और समझा कि अब मैं मालमानी या दिलाराम के कबजे से बाहर हूँ। अल, गरजा, वह लौंडी मेरे पलंग के पास आकर आगे बढ़ी और उस नाज़नी के पास जाकर खड़ी हो गई, जो बड़े गौर से कोई परचा पढ़रही थी। वह यहां तक उस फाराज के पढ़ने वा उल में की लिखी हुई धात पर गौर करने में गर्क हो रही थी कि उसे कमरे के दरवाजे के खुलने या लौड़ा के गाने की मुतलक आहट न मालूम हुई। यह देख उस्त लौंडी ने आगे बढ़ और झुक कर सलाम किया और कहा," इजर, ठीक है ।" गोडी की बात सुनकर वह नज़ नी कुछ चिहक उठी और उसकी