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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/८

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  • खनऊ को कत्र *

___ उस परी को यह बात सुनकर मैं बहुतही चकराया और दिलही दिलमें कहने लगा कि या इलाही ! इस अजीबोगरीब महलसरा में तो मुझे बहुत से दोस्त मिले ! अल्लाहआलम ! जिसके साथ कभी की जान पहिचान भी नहीं, वह भो मेरा दोस्त बन रहा है ! खैर मैं उस परी को उसी पलंग पर बैठाने लगा, लेकिन वह उस पर न बैठकर दूसरी कुर्सी पर बैठी और मुझे पलंग पर बैठने का इशारा कर उसने कहा ."दोस्त यसुफ़ ! तुम इस कम्बख्त ओलमानी से ज़रान डरना, क्योंकि यह कारून तुम्हारा कुछ नहीं कर सकती। इसपर मैंने शाहीनहलसरा के अन्दर आसमानी के जरिये से आने और सतार जाने के सारे किस्से को मुखतसर तौर पर बयान करके कहा,-" अब हगत ! खुद गौर करें कि जो आसमानी आपके दाम उस दरबार में पहुंची और यहां भी आई, उससे मैं कर लेटफ हो सकता हूं ? " - उसने कहा,-"तुम्हारी और आसमान की सारी दास्तान मुझ मालूम है इसी से तो मैं कहती हूं कि यहां पर ह तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकती। मैंने कहा, लेकिन साहब ! बादशाह सलामत तो मेरा सूरान जरूर हो लगाएगे!" at एलने कहा- अजी,बादशाह को इन बातोंके सूराग लगानेकी न ज़रूरत है, न फुर्सत है और न वक्त है ! उन्हें तो इन बातों की सतलक खबर ही नहीं है कि महल के अन्दर क्या हो रहा है। मैंने कहा,-," लेकिन उनसे अगर किसी शख्स ने यहां पर मेरी मोजू गो का हाल कहो तब तो कयामत बरपा होगी।" ने कहा,-"अब्बल तो ऐसा होहीगा नहीं,और काश अगर क भी तो मैं क्या गाफ़िल रहूंगी. हर्गिज़ नहीं, इसलिये तुम हूँ और में अपना दोस्त समझो।