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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/११०

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श्यामास्वप्न

लगी • इधर भी मेरी धूर ही धूर दिखाती थी . कहावत है कि “दिलों पर खाक उड़ती है मगर मुँह पर सफाई है" अंत को मैंने अपने जी से यह दोहा पढ़ा-

वह गए बालम वह गए नदी किनार किनार ।
आप गए लगि पार पै हमैं छोड़ि मझधार ।

स्नान करके घर आई . घर के कुछ काम न अच्छे लगे . माँ से कहा "मां आज मेरा माथा पिराता है" मां ने पूछा "क्यौं"- मैंने उत्तर दिया "क्या जानूं-शरीर तो है" माँ बोली "तौ जा सो रह"--यह तो मेरे ही मन की कही . मैं शीघू जा सेज पर सो रही और मूड को ढाँक खूब रोई-भूख प्यास सब भूल गई . तन से मन निकल कर मनमोहन के खाट पर केवल शरीर धरा रहा . माँ ने बहुत कहा "बेटा कुछ खा ले" पर मैंने कुछ उत्तर न दिया . अंत को माँ ने मुझे सोई जान फिर हूँत न कराया--वृदा ताड़ गई पर मुझसे कुछ भी न कहा . यद्यपि वह मुझे बहुत चाहती थी पर उसका श्यामसुंदर पर गुप्त प्रेम रहने के कारन मुझसे कुछ कुछ बुरा मानती थी . श्यामसुंदर उस्से भी हँस के बोलते पर उनका सब प्रेम मेरे ही लिए था . को भी इतना नहीं चाहते थे . नैनों की तारा मैं ही थी . प्रेम-पिंजर की उनकी मैं ही सारिका थी . ब्रह्म, ईश्वर, राम, जो कुछ थी मैं थी , वे मुझै अनन्य भाव से मानते थे. पर हायरी मेरी बुद्धि अब कहाँ विलाय गई . भद् ! मैं अब वह नहीं हूँ जो पहले थी अब वह बात ही चली गई . मैं श्यामसुंदर के मुख दिखाने के योग्य नहीं हूँ • श्यामसुंदर अभी तक मुझै उसी भाव से मानता जानता है और अनन्य भाव से भजता है पर मैं--हाय--अब क्या कहूँ, मेरी कपट रीति विश्वासघात--हाय रे दई--मैं सब कुछ ए कुवचन सहूँगी . जगत की कनौड़ी बनूंगी--हायरे दई--मुझै जो चाहै. दंड दे--मेरी गर्दन झुकी है ले जो चाहै सो कर-- वे अपने प्रान