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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१११

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श्यामास्वप्न

मैं हूँ तक न निकालूँगी . मार मार जार डार जैसा मैंने उन्हें जराया है तू भी मुझै जलाकर क्वैला कर दे-हाय रे ईश्वर--हाय हाय रे करम- क्या मैंने सब धरम बहा दिया . किस भरम में पड़ी शरम भी नहीं आती-हा हा" ऐसा बिलाप करते करते गिर पड़ी . सत्यवती और वृदा ने सम्हार लिया . अपनी ओली में बैठाकर मुख पोंछा हवा करने लगी . चूमा लिया, पर मैं तो इस लीला को देख दंग हो गया . स्तब्ध होकर भीति की सी चिचौर बन गया; अनिर्वाच्य हो गया आश्चर्य करने लगा कि ऐसे मनोहर शरीरवाले भी जो केवल पुण्य के पुंज हैं, दैहिक, देविक और भौतिक तापों की ताप में तपते हैं आश्चर्य है कोटिवार आश्चर्य का आस्पद है, मैंने कुछ सुरीली तानें भरी, श्यामादेवी की आँखें खुलीं , वृदा विजना झलती थी . वह इन सब बातों की प्रत्यक्ष देखने वाली थी सब कुछ समुझ बूझकर सासैं भर भर के रह गई . देवी को संज्ञा हुई, मैं हाथ जोड़कर बोला .

"कमलनयनी ! तू क्यों इतनी अधीर हो गई . अभी तो कहानी पूरी भी नहीं हुई इतने ही में ऐसा हाल हुआ, पूरी होते होते न जाने तेरे प्रान बचेंगे कि नहीं-वृदा तनिक देवी को समझा दे शोच न करै, क्या ऐसे ऐसे जनों को भी दुःख का लेश चाहिए."

श्यामा देवी गद्गद स्वर और स्खलित अक्षर से बोली “सौम्य ! तुम बड़े सभ्य हो . यह स्थल ही ऐसा है कि यदि तुम इस सब बृत्तांत के साक्षी होते तो न जाने तुम्हारी कोन सी गति होती, पर तुम्हारा चित्त इस कहानी को पूरी कराने में लगा है तो लेव सुनो . मैं रोते गाते सब कुछ कह सुनाऊँगी" इतना कह सुखसे सिंहासन पर बैठ गई. चंद्रमा की प्रभा ने मुख कोकनद को विकास कर दिया था . दंत की छटा मंद मंद कौमुदी में मिली जाती थी . वृदा पंखा झलने लगी, सत्यवती ने पान का डब्बा खोलकर सामने धर दिया और सुशीला रात बहुत हो जाने के