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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१४४

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श्यामास्वप्न

कहाँ आ गया मैं तो अब-' " ऊधो ने बात काटी और कहने लगा-"इसी लिए तो आया-देखिये श्यामा वह अटारी पर चढ़ी चढ़ी आपकी सब व्यवस्था देखती थी सो उसने मुझै सुलोचना के द्वारा कह कर शीघू पठाया-वह आपका तरवार उठाना देखती थी-"

श्यामसुंदर ने बड़ी प्रीति से पूछा-"कहो क्या श्यामा का संदेसा है ? वह काहे को कुछ कही होगी . मैंने उसे चीन्ह लिया-वह बड़ी पापिन और कपटिन हो गई है . न जाने उसके मन में क्या सूझा है जो मेरे से दीन की तनिक सुधि नहीं करती-

ऊधो ने कहा-"महाराज आप ऐसे शीघ्र ही अधीर हो जाते हैं तो फिर कैसे काम होगा . उस दिन क्षण भर श्यामा के पत्र के आने में विलंब हुआ तो आप ने निर्जन स्थान में जा मकरंद के गले से लग कितना विलाप किया-"

"हाँ किया तो सही था पर इसका कौन देखनेवाला है-'वन में मोर नाचा किसने देखा' इतने पर भी तो उस कोमल चित्तवाली को दया न आई" यह श्यामसुंदर ने उत्तर दिया .

ऊधो बोला-"महाराज सुनिये श्यामा ने यह कहा है कि तुम जाकर उन्हें समझा देव मैं अवश्य उन्हें मिलूँगी और धीरज धरै कल्ह कोई न कोई उपाय निकाल ही लूँगी”.

श्यामसुंदर ने कहा "कह दे कि यदि कल्ह तक उत्तर न आया तो मेरी तिलांजुलि ही देनी पड़ेगी . तू जा मैं अब जैसी नींद लूंगा रात और सेज दोनों साक्षी रहेंगी".

ऊधो चला आया .श्यामसुंदर मुख ढांक बड़ी देर तक सोचते रहे, राम राम कर रात काटी इस पाटी से उस पाटी कराह कराह समय बिताया. मैं उनकी दशा कहाँ तक लिखू (कहूँ). उन्हें मेरे बिना एक छिन दिन की भाँति और एक दिन कल्प के समान बीतता था . भोर हुआ