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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१५५

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सीता-दर्शन
वरे एक वेनी मिली मैल सारी।
मृणाली मनो पक सौ काढ़ि डारी ॥
सदा रामनामै ररै दीन वानी ।
चहूँ ओर हैं राकसी दुःखदानी ॥१५।।
ग्रसी बुद्धि सी चित्त चिंतानि मानौ ।
किधौं जीव दतावली मैं बखानौं ।।
किधौ घेरिकै राहु नारीन लीनी।
कला चद्र की चारु पीयूष भीनी ।।१६।।
किधै। जीव की जोति मायान लीनी ।
अविद्यान के मध्य विद्या प्रवीनी ॥
मनो सिंबरखीन मैं काम वामा ।
हनूमान ऐसी लखी राम-रामा ।।१५।।
तहाँ देव-द्वेपी दसग्रीव आयो ।
सुन्यो देवि सीता महा दुःख पायो ।
सवै अग लै अग ही मै दुरायो ।
अधोष्टि के अश्रुधारा बहारो ॥१८||
रावण-सीता-संवाद
रावण-सुनो देवि मौपै कछू दृष्टि दीजै।
इतो सोच तौ राम काजे न कीजै ॥
वसैं टडकारण्य देखै न कोऊ।
जो देखै महा वावरो होय सोऊ ॥१९॥