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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१५६

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कृतघ्नी' कुदाता कुकन्याहि चाहै ।
हितू नग्न मुडीन ही को सदा है ।।
अनाथै सुन्यौ मै अनाथांनुसारी।
बसै चित्त दडा जटी मुडधारी ॥२०॥
तुम्है देवि दूषै हितू ताहि मानै ।
उदासीन तोसों सदा ताहि जानै ॥
महानिगुणी नाम ताको न लीजै ।
सदा दास मापै कृपा क्या न कीजै ॥२१॥
अदेवी नृदेवीन की होहु रानी।
करै सेव वानी मघौनी मृडानी ॥
लिये किन्नरी किन्नरी गीत गावैं ।
सुकेसी नचै उर्वशी मान पावै ॥२२॥
[मालिनी छंद]
सीता-तृण बिच दै बोली सीय गभीर वानी।
दसमुख सठ को तू ? कौन की राजधानी १ ॥
दसरथसुतद्वेषी , रुद्र ब्रह्मा न .भासै । '
निसिचर बपुरा तू क्या न स्या मूल नासै ॥२३॥
अति तनु धनुरेखा नेक नाकी न जाकी।
खल खर सर धारा क्यों सहै तिच्छ ताकी ।


(१) कृतघ्नी- कृतघ्न, (कर्मनाशक, मुक्तिदाता)। (२) कुदाता=कृपण, (पृथ्वी का दान कर देनेवाला)। (३) कुकन्या = बुरी कन्य शवरी इत्यादि; पृथ्वी को कन्या, सीता )।