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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२५०

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(२००)

[ स्वागता छंद ]
बाण एक तब लक्ष्मण छड्यो। चर्म बर्म बहुधा तिन खंड्यो।
ताहि हीन कुश चित्तहि मोहै। धूमभिन्न जनु पावक सोहै ॥२२७॥
रोष वेष कुश बाण चलायो। पानचक्र जिमि चित्त भ्रमायो॥
मोह मोहि रथ ऊपर सोये। ताहि देखि जड़ जंगम रोये ॥२२८॥
[ नाराच छंद ]
विराम राम जानि कै भरत्थ सों कथा कहैं।
विचारि चित्त मॉझ वीर, वीर वे कहाँ रहैं॥
सरोष देखि लक्ष्मणै त्रिलोक तौ विलुप्त ह्वै।
अदेव देवता त्रसै कहा ते बाल दीन द्वै ॥२२९॥
[ रूपमाला छंद ]
राम--जाहु सत्वर दूत लक्ष्मण हैं जहाँ यहि बार।
जाइ कै यह बात वर्णहु रक्षियो मुनिबार॥
हैं समर्थ सनाथ वै असमर्थ और अनाथ।
देखिबे कहँ ल्याइयो मुनिबाल उत्तमगाथ ॥२३०॥
[ सुंदरी छद ]
भग्गुल आइ गये तबहीं बहु।
बार पुकारत भारत रक्षहु॥
वे बहुभाँतिन सैन सँहारत।
लक्ष्मण तौ तिनकों नहिं मारत ॥२३१।।


(१) विराम = देर। (२) बार = बाल। (३) वार = द्वार।