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पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/१०२

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सप्तसरोज
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जुल्फिकार अलीखा गरम होकर बोले, आये तो मुहकमेपर कोई एहसान नहीं किया। किसी दूसरे सीगेमे होते तो अभीतक ठोकरें खाते होते, नही तो घोडेपर सवार नौशा बने घुमते हैं। मैं तो बात सच्ची कहता हूँ। चाहे किसीको अच्छी लगे या बुरी। इनसे पूछिये, हरामकी कमाई अकेले आज तक किसीको हजम हुई है? यह नये लोग जो आते हैं उनकी यह आदत होती है कि जो कुछ मिले अकेले ही हजम कर ले। चुपके-चुपके लेते हैं और थानेके अहलकार मुह ताक्ते रह जाते हैं। दुनियाकी निगाहमे ईमानदार बनना चाहते हैं पर खुदासे नहीं डरते। अरे, जब हम खुदा हीसे नहीं डरते तो आदमियों का क्या खौफ? ईमानदार बनना हो दिलसे बनो। सचाईका स्वांग क्यो भरते हो? यह हज़रत छोटी-छोटी रकमोंपर गिरते हैं। मारे गरूरके किसी आदमीसे राय तो लेते नहीं। जहा आसानीसे सौ रुपये मिल सकते हैं वहा पांच रुपयेमें बुलबुल हो जाते हैं। कहीं दूधवालेके दाम मार लिये, कहीं हज्जामके पैसे दवा लिये, कहीं वनियेसे निर्सके लिये झगड बैठे। यह अफसरी नहीं टुच्चापन है, गुनाह बेलज्जत, फायदा तो कुछ नहीं, बदनामी मुफ्त। मैं बड़े-बड़े शिकारोंपर निगाह रसता हू, यह पिद्दी और बटेर मातहतोंके लिये छोड देता हू। हलफसे कहता हूँ, गरज बुरी शै है। रिश्वत देनेवालोंसे ज्यादा अहमक अन्धे आदमी दुनियामें न होगे। ऐसे कितने ही उल्लू आते हैं जो महज यह चाहते है कि मैं उनके किसी पट्टीदार या दुश्मनको दो-चार खोटी खरी सुना दूं। कई ऐसे बेईमान जमीदार आते हैं जो यह चाहते हैं कि