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१५०. भाषण: सूरतमें[१]

जनवरी २, १९१६

मुझे जो उद्घाटन-कार्य करना है, उसे मैंने इसी क्षण कर दिया है, ऐसा समझना चाहिए। यह मन्दिर जैसा सुन्दर है, आशा है वैसी ही सुन्दरता यहाँके मन्दिरवासियोंमें और यहाँ आनेवालोंके मनमें उत्पन्न होगी एवं यहाँके आर्यसमाजियों और उनके प्रेमियोंकी कीति तो ऐसी होगी कि कदाचित् मन्दिर गिर भी जाये, वह उसके बाद भी बनी रहेगी। मेरी कामना है कि यह मन्दिर उन्नति करे और इसकी उन्नतिसे इस मन्दिरमें जो लोग आयें उनकी उन्नति हो।

[गुजरातीसे]

गुजरात मित्र अने गुजरात दर्पण, ९-१-१९१६

 

१५१. भाषण: सूरत आर्यसमाजके वार्षिकोत्सवमें'

जनवरी २, १९१६

आपने आर्यसमाज मन्दिरके उद्घाटनकी रस्म अदा करनेके लिए मुझे यहाँ

बुलाया है, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। साथ ही मुझे इस उत्सवका अध्यक्ष बनानेके लिए मैं आर्यसमाज और सूरतके लोगोंका उपकार मानता हूँ। मैं आपको यह सूचित करना चाहता हूँ कि मैं आर्यसमाजी नहीं हूँ। इस बातको यह समाज और अन्य लोग भी जानते हैं। किन्तु में आर्यसमाजसे द्वेष भी नहीं रखता। मैं जिस तरह आर्यसमाजका सदस्य नहीं हूँ उसी प्रकार में किसी अन्य संस्थाका भी सदस्य नहीं हूँ। भारतमें इस तरहकी अन्य बहुत-सी संस्थाएँ हैं और वे यथाशक्ति सेवा करती हैं; किन्तु इस संस्थाके प्रति मेरे मनमें बहुत आदर-भाव है। मेरा हरद्वार गुरुकुलमें भाई श्री मुन्शीरामसे अच्छा सम्बन्ध हो गया है। वहाँ मेरे पुत्र और अन्य मित्र रहे थे।[२] और वहाँ उनको जो लाभ हुआ और उनको जो स्नेह मिला, वह भुलाया नहीं जा सकता। उसके कार्य के बारेमें मैं ही नहीं समस्त भारत जानता है। आर्यसमाजके संस्थापक स्वामी दयानन्द[३] एक असाधारण पुरुष हुए हैं और उनका मुझपर प्रभाव पड़ा है, यह मुझे स्वीकार करना चाहिए। मैं इस समाजके सम्बन्धमें अनेक स्थानों में

  1. १. आर्यसमाज मन्दिरका उद्घाटन करते हुए।
  2. २. गुरुकुलमें फीनिक्सका एक दल कुछ समय तक रहा था और उसने १९१५ के कुम्भ मेलेमें भारत सेवक समाज (सवॅटस ऑफ इन्डिया सोसाइटी) के स्वयंसेवक दलके साथ सहयोग भी किया था। बादमें गांधीजी भी इस दलमें शामिल हो गये थे देखिए महात्मा खण्ड १, पृष्ठ १९९।
  3. ३. (१८२४-१८८३); समाज-सुधारक और आर्यसमाजके प्रवर्तक।