पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/३०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७३
पत्र: ‘प्रजाबंधु’ को

अवश्य ही खोजें कि चाय पीनेवाले देशोंमें लोग क्या करते हैं, वे किस प्रकार चाय तैयार करते हैं। किन्तु हमने ऐसा कुछ नहीं किया। मैं समझता हूँ कि जिस प्रकार हम चायका समूचा विष पी जाते हैं उस प्रकार किसी अन्य देशके लोग नहीं पीते। चीनी लोग चायकी पत्तियोंको आधा मिनटसे अधिक देर तक उबलते पानीमें नहीं रहने देते। वे पानीमें पत्तियाँ डालते ही उन्हें छानकर तुरन्त बाहर निकाल लेते हैं। चायके इस पानीके रंगसे ही यह प्रमाण मिलता है कि उसमें टेनीन बहुत कम आ पाया है। इस पानीमें घासके पत्तोंसे ज्यादा पीलापन नहीं आना चाहिए। उसका लाल रंग बिलकुल न हो पाना चाहिए। करोड़ों चीनी ऐसी ही चाय पीते हैं। वे उसमें दूध कभी नहीं ढालते। चीनी लोग तो यह तक नहीं जानते कि गाय दुहना किसे कहते हैं। वे अपनी चायमें शायद ही कभी दूध डालते हों। यदि निर्दोष चाय बन सकती है तो ऐसे ही जैसे कि ऊपर बताया है। बहुत ही अनुभवी और प्रसिद्ध डॉक्टर कैंटलीका यही कहना है। वे यह मानते हैं कि चीनी लोग चाय इसलिए पीते हैं कि वह पानी पीनेका सरलतम उपाय है। जबतक पानी उबल न जाये तबतक उसमें चायका रंग नहीं आ सकत। इसलिए चीनी जहाँ भी जाते हैं वहाँ सादा पानी पीनेके बजाय चायका ही उपयोग करते हैं, अर्थात् वह परीक्षित पानी ही पीते हैं।

हम जिस प्रकार आहारके सम्बन्धमें लापरवाह हैं उसी प्रकार व्यायामके सम्बन्धमें भी। हम रेंगते-रेंगते मनमौजी चालसे एक-दो मीलका चक्कर लगा आयें, यह व्यायाम नहीं है। बिलियर्डकी गेंदको सौ बार डंडेसे मारनेमें भी व्यायाम नहीं होता। जिस कमरेकी हवा गंदी है उसमें व्यायाम करनेका परिणाम भी हानिकर ही होगा। ऐसी विषम स्थितिमें जब व्यायाम नहीं किया जा सकता, हमारे लिए भ्रमण सर्वोत्तम व्यायाम है; किन्तु वह व्यायाम तभी कहा जा सकता है जब हम एक साथ छ: मील सुबह घूमें और उतना ही शामको घूमें। भ्रमणकी क्रिया तेजीसे――चार मील प्रति घंटेकी चालसे की जानी चाहिए। थोरोने जब अपनी सर्वोत्तम पुस्तक लिखी तब वह प्रतिदिन आठ मील भ्रमण करता था। टॉल्स्टॉयने प्रमाणित किया है कि जिन दिनों उन्होंने सर्वोत्तम पुस्तकें लिखीं उन दिनों भी वे पर्याप्त व्यायाम करनेसे पूर्व लिखनेके लिए नहीं बैठते थे।। वे नित्य खेतमें काम किया करते थे। जो व्यक्ति यह कहता है कि उसे मुवक्किलोंके कामसे या जनताके कामसे एक घड़ी भी फुरसत नहीं मिलती और वह इसलिए व्यायाम नहीं कर पाता, उसके इस कथनमें सूक्ष्म गर्व है। वह यह सोचता है कि यदि वह काम न करे तो जनता अभीकी-अभी असहाय हो जाये। इसी खयालकी झलक इसमें मिलती है। भारतके पितामह दादाभाईने[१] स्वास्थ्यके सामान्य नियमोंका पालन किया है, उनके व्यायाम आदि कार्योंमें कभी विघ्न नहीं पड़ा। इसीका फल है कि हम उन्हें आज जीवित देख रहे हैं। यदि प्राचीन ऋषियोंकी भाँति हमारे ये आधुनिक ऋषि भी शतायु हों तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात न होगी। हम ‘गीता’ के एक सिद्धान्तको भंग कर रहे हैं, इसलिए उसके भयंकर परिणाम भोग रहे हैं। ‘गीता’ में कहा गया है

 
  1. १. दादाभाई नौरोजी।
१३-१८