४०६. पत्र: मगनलाल गांधीको
रांची
[आश्विन सुदी ७, सितम्बर २३, १९१७][१]
आज तुम लोगोंसे विदा हुए १२ वाँ दिन है। इन ग्यारह दिनोंमें से नौ दिन और रातें मैंने रेलगाड़ीमें बिताई और सिर्फ दो रातें किसी घरमें। फिर भी मेरी तबीयतको कोई हानि नहीं हुई। आज बारहवें दिन अनाज खाया है। बम्बईमें अमृतलाल भाईके[२] साथ मकानके बारेमें बातचीत हुई। छगनलालने तुम्हें लिखा ही होगा। उन्होंने कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण बातें बताईं। [कई जगह] हमें मुख्यतः लकड़ीका उपयोग करना ही पड़ेगा। नींवके काम में मुश्किल पड़ेगी। वहीं नींव डाली ही नहीं जा सकती। इस स्थितिमें लकड़ीका ढाँचा बनाकर उसे ईंटोंसे भरना ही एक उपाय है। [इसी प्रकार] उन्होंने कहा है कि पुस्तकालयकी इमारत और लम्बी करनी पड़ेगी, नहीं तो उसमें पर्याप्त उजाला नहीं आयेगा। यह सब वे स्वयं विस्तारपूर्वक लिखनेवाले हैं। यह तो तुम्हें याद होगा कि जीवणलाल भाईवाले बॅगलेसे बत्ती और खंभा ले आना है। हमें उसकी जरूरत पड़ेगी। अमृतलाल भाईका सुझाव है कि लकड़ीपर आगे-पीछे डामर पोता जाये। पाखाने और पेशाबघर अच्छी तरह बनाये जायें, इसकी व्यवस्था पहलेसे ही करना। उसपर खर्च किया हुआ पैसा व्यर्थ नहीं जायेगा। [गंदा] पानी तुरन्त वह जाये, इसका प्रबन्ध करना पड़ेगा। आश्रममें जहाँ-जहाँसे, जितना मिल सके उतना पत्थर और रोड़ा आदि इकट्ठा कर लेना चाहिए। रास्ते काफी चौड़े रखना और उन्हें जल्दी ही बनवा डालना । ऐसा लगता है कि मुझे रांचीमें जितना में सोचता था उससे कहीं ज्यादा वक्त लगेगा। पहली बैठक सोमवारको होगी।
बापूके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५७१६) से।
सौजन्य: राधाबेन चौधरी।