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पत्र: जी० डी० चटर्जीको

उपर्युक्त पत्रलेखकने गुणाका जो दोष बताया है वह सही है। २० मन सुतकी कितनी खादी हुई उस बारेमें भाई मोहनलाल पण्डया लिखते हैं :

वैशाखमें २० मन सूत तैयार हुआ और खादीके ६५ थान बुने गये। इसका अर्थ यह नहीं कि पूरे २० मन सूतके केवल ६५ थान ही बुने गये। ६५ थानोंके लिए अधिक से अधिक ११ मन सूत चाहिए। बाकी सूत जमा रहा है। हर महीने बुनकरोंकी संख्यानुसार जमा सूतमें घटती-बढ़ती होती रहती है।

'नवजीवन' के पाठक उसे ध्यानपूर्वक पढ़ते हैं, इसलिए रिपोर्ट भेजनेवाले सज्जनोंको मुझे यह सलाह देनेकी तो जरूरत ही नहीं है कि वे अपने आँकड़े तैयार करनेमें सावधानीसे काम लें और ठीक-ठीक तथ्य दें।

सच्चा गुरु

गुरुकी व्याख्या सम्बन्धी टिप्पणीकी पुष्टिम एक सज्जनने निम्न पत्र लिखा है।[१]

रामदास स्वामी तो स्पष्ट रूपसे यह कहते हैं कि मनुष्यको अपने बाहर गुरुकी खोज करने की जरूरत ही नहीं है। ईश्वर श्रद्धाजनित विवेक जो मार्ग बताये उसपर चलो, इस विवेकके ही अधीन रहो और यज्ञार्थ सारी प्रवृत्तियाँ करो। इतनेमें ही इस महाराष्ट्रके सन्तने कहने लायक सब सारी कह दी है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २७-६-१९२६

७४. पत्र : जी० डी० चटर्जीको[२]

आश्रम
साबरमती
२७ जून, १९२६

प्रिय मित्र,

आपने श्री स्पेंडरके लेखकी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करनेके लिए जो पत्र लिखा था, वह मुझे मिल गया है। मैं सोच रहा हूँ कि मैं आपके उद्धृत अशोंके सम्बन्धमे 'यंग इंडिया' में कुछ लिखूं।[३]

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

श्रीयुत जी० डी० चटर्जी
लाहौर

अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ७७४०) तथा जी० एन० ८७७८ से भी।

सौजन्य: परशुराम महरोत्रा
३१-५
  1. यहाँ नहीं दिया गया है। देखिए "टिप्पणियाँ", १७-६-१९२६ का उपशीर्षक "गुरुकी तलाश" तथा "टिप्पणियाँ", २४-६-१९२६ का उपशीर्षक "सच्चा गुरु"।
  2. यह पत्र श्री चटर्जीको नहीं मिल सका था, अतः यह बेपता-पत्र कार्यालयसे लौटकर भा गया था।
  3. देखिए "रंगभेद बनाम स्वदेशी", १-७-१९२६ ।