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७५. पत्र : सी० विजयराघवाचारियरको

आश्रम
साबरमती
२७ जून, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। श्री मगरिज[१] जब भी चाहें खुशीसे आ सकते हैं।

मैं तो चाहता हूँ कि मन्दिरके मामले में आपकी रायसे सहमत हो सकूँ। परन्तु दुर्भाग्यसे मेरे हृदयमें उसके प्रति कोई उत्साह पैदा नहीं हो पाता।[२] मेरा मन्दिर तो आजकल चरखा ही है। मुझे तो यदि भारतके नष्ट होते हुए घरोंके उद्धारकी कोई आशा दिखाई देती है तो चरखोंके जरिए ही दिखाई देती है।

आपने देवदासके स्वास्थ्यके बारेमें जो पूछ-ताछ की है उसके लिए धन्यवाद। वह मसूरीमें एक मित्रके यहाँ रहकर स्वास्थ्य लाभ कर रहा है।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत सी० विजयराघवाचारियर
कोडाईकनाल

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १२०६१) की फोटो-नकलसे।

७६. पत्र : एस० शंकरको

आश्रम
साबरमती
२७ जून, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मैं तो अब भी यही मानता हूँ कि आपको अपनी नौकरी छोड़कर मेरे पास नहीं आना चाहिए। अच्छा हो आप बम्बईमें रहते हुए आश्रमके नियमोंका पालन करें। बम्बईमें हिन्दी तथा संस्कृत सीखनेमें कोई कठिनाई नहीं होनी

  1. अलवाईके यूनियन क्रिश्चियन कालेजके मालकम मगरिज, देखिए, "राष्ट्रीयता और ईसाई धर्म", २२-७-१९२६ ।
  2. विजयराघवाचारियरने ८ जुलाईको इसका उत्तर देते हुए शिकायत की थी कि गाँववालोंके लिए एक मन्दिर बनवानेके उनके प्रयत्नका गांधीजी द्वारा समर्थन न करने और उनकी सार्वजनिक आलोचना करनेके कारण उन्हें अनुसूयाबाई-जैसे कुशल और तत्पर समर्थकोंकी सहायतासे वंचित होना पड़ा था।... देखिए "पत्र : सो० विजयराघवाचारियरको", ९-७-१९२६ ।