१०६. पत्र : मणिलाल गांधीको
५ जुलाई, १९२६
तुम्हारा पत्र मिला । तुम्हारे यहाँ आनेपर तुम्हारे विवाहके प्रबन्धमें कोई असुविधा होगी, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन तुम्हारे यहाँ आनेसे पहिले अवश्य ही कुछ भी निश्चित नहीं किया जा सकता। तुम्हें यदि विवाह करना ही है तो तुम्हें अपनो खर्चीली प्रवृत्तिपर काबू पाना चाहिए। वहाँसे आनेवाले हर आदमीने इसकी शिकायत की है।
तुमने जो खुलासा भेजा है, उसे मैं अधूरा ही मानता हूँ। लेकिन यह तो तुम अपनी प्रकृतिके अनुसार ही करोगे। मैं तुमपर दबाव नहीं डालना चाहता। तुम मुझे जितना बताओगे, मुझे उतना ही जानकर सन्तोष करना होगा।
तुम्हारी मँगाई पुस्तकें भेज दी गई हैं। उनका मूल्य तुरन्त भेजना। आश्रम में उधार-खाता नहीं रखा जा सकता, क्योंकि उसके पास उसकी कोई खानगी मिल्कियत नहीं है। यह तो बिलकुल समझमें आने लायक बात है न?
शान्ति वहाँ तुम्हें सन्तोष नहीं देता, मुझे यह बात तो पहली बार ही मालूम हुई है। तुम्हें डाह्यासे सन्तोष है, यह जानकर खुशी हुई।
मेरे द्वारा तैयार की गई पुराने अखबारोंकी कतरनोंकी जो फाइल वहाँ पड़ी है उसे भेज देना और उन अन्य पुस्तकोंको भी भेज देना जिनका वहाँ कोई उपयोग नहीं; या तुम उन्हें अपने साथ ले आओगे तो ठीक होगा।
देवदासका स्वास्थ्य अच्छा है। वह मसूरीकी हवा खा रहा है। रामदास अमरेलीमें हैं।
मैं हरिलालके बारेमें तो क्या लिखूं? रामी[१] आश्रम है।
महादेवभाईने तुम्हें कई लेख भेजे थे।तुमने उनका उपयोग नहीं किया लगता। खैर, यह मामूली बात है। पत्रमें क्या दें और क्या न दें, यह निश्चय करनेका पूर्ण अधिकार सम्पादकको होना ही चाहिए। लेकिन क्या सम्पादकको धन्यवादकी अथवा प्राप्ति स्वीकारकी दो पंक्तियाँ भी नहीं लिखनी चाहिए?
यहाँ आओ तो जेबमें यह नोटिस लेकर न आना कि "पन्द्रह दिनके भीतर मेरा विवाह कर दें, मुझे अगले जहाजसे आफ्रिका जाना है।"
बापूके आशीर्वाद
गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० १११८) की फोटो-नकल तथा जी० एन० ४७०५ से भी।
- ↑ हरिलाल गांधीको पुत्री।