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पत्र : अम्बालाल साराभाईको

धारणा जो पहले थी, आज भी वही है। आप जैसे थे वैसे ही अब भी हैं। यदि कोई बदला ही हो तो मैं ही बदला हूँ। परन्तु मैं भी बदला नहीं हूँ। मेरे भीतर जो कुछ था वह बिना किसी प्रसंगके एक साथ कैसे व्यक्त हो सकता था? मैं अवसर आनेपर असहयोगी बन गया। दूसरे इसे मुझमें परिवर्तन मान सकते हैं। किन्तु मेरे लिए तो यही सत्य है। मेरा असहयोग अवसरके अनुरूप मेरे स्वभावकी ही अभिव्यक्ति है। कोई मनुष्य, जिसने मुझे गरमीमें उघाड़े शरीर देखा है, सर्दीमें मुझे कपड़े पहने देखकर यह अनुमान भले लगाये कि मैं बदल गया हूँ; लेकिन वास्तविकता तो यही है कि मैं बदला नहीं हूँ। मैं परिवर्तित परिस्थितियों में अपनेको उनके अनुकूल बना लेता हूँ। परन्तु हममें परस्पर चाहे कितना भी मतभेद हो, फिर भी आपके प्रति मेरा आकर्षण जिन गुणोंके कारण है उन गुणोंके कारण वह बना रहेगा।

मेरे कुछ कार्योंसे आपने यह अनुमान लगा लिया है कि मैं साध्यकी सिद्धिके लिए चाहे जैसे साधनोंका उपयोग कर लेता हूँ। ऐसा करना मेरे स्वभावके नितान्त विरुद्ध है। मैं यह बात कई बार लिख चुका हूँ और अपने आचरणसे कई बार प्रमाणित भी कर चुका हूँ कि मैं साध्य तथा साधनके बीच गहरा सम्बन्ध मानता हूँ अर्थात् मेरी मान्यता है कि पवित्र साध्य अपवित्र साधनोंसे कदापि नहीं सध सकता। मैंने खिलाफतको अपनाने से पूर्व अपने कार्यके विषय में पूरी तरह विचार कर लिया था। यदि मेरा विश्वास खिलाफतकी नीतिमें न होता तो मैं मुसलमानोंका साथ देनेके लिए कभी तैयार न होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि अपने धर्मका पालन करनेके लिए खिलाफतकी सहायता करना मेरे लिए आवश्यक था अथवा आवश्यक है; लेकिन मेरी मान्यता यह अवश्य थी और अब भी है कि मुसलमानोंका वह आन्दोलन उनके अपने दृष्टिकोणसे उचित था और मुझे उसमें नैतिक दृष्टिसे देखनेपर कोई दोष दिखाई नहीं दिया। अतः मुझे उनके दुःखमें हिस्सा बँटाना हिन्दुओंका कर्त्तव्य लगा। मैं अपने इस विचारपर अब भी दृढ़ हूँ और मैंने खिलाफतमें मुसलमानोंकी जो सहायता की, उसके लिए मुझे तनिक भी पश्चात्ताप नहीं है। मैं यह भी नहीं मानता कि उनकी मदद करनेसे हिन्दुओंकी हानि हुई है। असहयोगके विषयमें भी मेरी मान्यता ऐसी ही है। असहयोग एक महान् सिद्धान्त है, इसको हम अभीतक पूरी तौरपर समझ नहीं सके हैं। परन्तु यदि कभी शान्तियुग आयेगा तो वह शान्तिमय असहयोगसे ही आयेगा। मैंने अपने असहयोगमें जरा भी ढील नहीं की है। मैं गवर्नरसे असहयोगके दिनों में भी वैसे ही मिलता था, जैसे अभी मिला हूँ।[१] मैं दस्तावेजोंकी रजिस्टरी जैसे अब कराता हूँ वैसे तब भी कराता था और कांग्रेसका रुपया खानेवाले लोगोंपर दावा करने की सलाह जैसे अब देता हूँ वैसे ही तब भी देता था, क्योंकि मेरा यह असहयोग मर्यादित था और है। जिस प्रकार देहधारी मनुष्यके लिए सम्पूर्ण अहिंसाका पालन असम्भव होनेपर भी अहिंसा-धर्मपर लांछन नहीं आता, उसीप्रकारकी बात शान्तिमय असहयोगके विषयमें भी है। अपनी भूल स्वीकार करने में

  1. गांधीजी बम्बईके गवर्नरसे १८ मई, १९२६ को शाही कृषि-आयोगके सम्बन्ध में मिले थे।