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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुझे कभी लज्जा नहीं आई। यदि मैं ऐसा मानूं कि असहयोगकी प्रवृत्ति चलाना भूल थी और वह प्रवृत्ति निष्फल गई है तो मैं श्री रायकी सलाह मानकर अवश्य ही सार्वजनिक रूपसे अपनी वह भूल स्वीकार कर लूं। परन्तु मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि असहयोगकी प्रवृत्तिसे भारतको असीम लाभ हुआ है और यदि हम गहराईसे देखें तो यह प्रवृत्ति व्यर्थ नहीं गई है। यह सच है कि हमें राजनैतिक सत्ताके रूपमें स्वराज्य नहीं मिला है; परन्तु इसे तो मैं नगण्य मानता हूँ। लोगोंके हृदयोंमें परिवर्तन हुआ है, वे सतर्क हो गये हैं और उनमें हिम्मत आ गई है। यह परिणाम कोई छोटा-मोटा परिणाम नहीं है। इस प्रवृत्तिका मूल्य तो हम बादमें आंक सकेंगे। आज हम इसके इतने समीप हैं कि इसके मूल्यका अनुमान नहीं कर सकते। जब मेरी मान्यता ऐसी है, तब मैं सार्वजनिक रूपसे क्या विचार करूँ? यह तो हो सकता है कि मेरा यह विश्वास भ्रमपूर्ण हो। लेकिन जबतक मैं स्वयं इसे भूल नहीं समझता, तबतक सत्यका पुजारी होनेसे इसे कैसे स्वीकार कर सकता हूँ? मुझे तो अपनी राजनैतिक प्रवत्तियोंके द्वारा भी आत्मशुद्धि ही करनी है— धर्मका पालन ही करना है। और किसी भी मनुष्यका धर्म वही तो हो सकता है जो स्वयं उसे सूझे। ऐसा कोई स्वतन्त्र धर्म जिसे सब लोग अपना-अपना धर्म समझ सकें, आजतक किसीने नहीं जाना। वह तो अवर्णनीय है। हम सब उसकी झलक-मात्र पा सकते हैं और इसी कारण हम उसे भिन्न-भिन्न रूपोंमें व्यक्त करते हैं। मेरा अभिप्राय यह है कि साधन-मात्रके ऊपर हमारा अधिकार है; अतः साधनोंकी पवित्रता बनाये रखनेमें ही हमारी सफलता निहित है।

मुझे लगता है कि कांग्रेसके विषयमें भी आपको कुछ भ्रम है। कांग्रेस कौन रहे और कौन न रहे, यह तय करना किसी एक मनुष्यके अधिकारमें नहीं है। यदि मैं कांग्रेसको अपनी इच्छाके अनुकूल बना सकूँ तो कांग्रेसका रूप कुछ और ही हो। और अगर कांग्रेसमें किसी एक मनुष्यकी सत्ता चल सके तथा लोकमतको अवहेलना की जा सके तो वह एक लोकतन्त्रात्मक संस्था न मानी जाये, बल्कि एक व्यक्ति द्वारा संचालित संस्था मानी जाये। अभी तो और बहुत कुछ कहना शेष है। आपने जो अन्य प्रश्न उठाये हैं और अन्य तर्क प्रस्तुत किये हैं में उनका उत्तर भी दे सकता हूँ। परन्तु मैंने तो कुछ प्रमुख प्रश्नोंका ही उत्तर देनेका प्रयत्न किया है। इन उत्तरोंको लिखाते हुए मेरा आग्रह ऐसा भी नहीं है कि मेरी बात ही ठीक है और आपकी बात ठीक नहीं। अपनी-अपनी दृष्टिसे हम दोनोंकी बात ठीक हो सकती है। यदि हमें सत्यके पथपर चलना है तो स्वतन्त्र रूपसे, सच्चा कीन है यह हम आज कैसे कह सकते हैं? यह तो भविष्यमे ही जाना जा सकेगा। परन्तु विविध अनुभव करनेके बाद मैंने इतना जरूर जान लिया है कि हम सब एक मतके तो नहीं हो सकते, परन्तु एक दूसरेके विचारोंको सहन अवश्य कर सकते हैं। और यदि हम पारस्परिक विचारोंको सहन करके एक-दूसरेके साथ विचार-विनिमय करें तो जो कुछ भी भ्रम हो उसे दूर कर सकते हैं। मैं इसी कारण आपके पत्रका महत्त्व समझ सका हूँ और इसी विचारसे मुझे इस पत्रका उत्तर देनेकी प्रेरणा मिली है।