२५९. पत्र : गोरधनभाई मो० पटेलको
आश्रम
३१ जुलाई, १९२६
आपका पत्र मिला। प्रसंग आनेपर में पाटीदारोंके बारेमें लिखता ही हूँ। मैं 'रामायण' और 'भागवत' को ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं मानता। मुझे आत्मदर्शन नहीं हुआ। यदि लोगोंपर मेरा प्रभाव कम हो गया है तो मैं उसका कारण नहीं जानता। यदि मुझमें अहंभाव न बच रहे तो मुझे आज ही आत्मदर्शन हो जाये। मैं समाधि नहीं लगा सकता। मुझे तो कल क्या होगा, यह भी मालूम नहीं; फिर १९३० की बात तो बता ही कैसे सकता हूँ?
वन्देमातरम्
जोगीदास विट्ठलकी पोल
गुजराती प्रति (एस० एन० १९९३८) की माइक्रोफिल्मसे।
२६०. प्रतिज्ञाका रहस्य
एक विद्यार्थी लिखता है :[१]
ऐसा प्रश्न एकाध बार सभीके मनमें उत्पन्न हो जाता है? परन्तु है यह प्रश्न अज्ञानजनित। प्रतिज्ञासे मनुष्यकी उन्नति होती है, इसका कारण ही यह है कि प्रतिज्ञामें उसके भंग होनेकी गुंजाइश पड़ी हुई होती है। यदि प्रतिज्ञामें उसके भंग होनेकी गुंजाइश न हो तो पुरुषार्थके लिए कोई स्थान ही न रहे। प्रतिज्ञा तो ऐसी ही है जैसे नाविकके लिए प्रकाशस्तम्भ। यदि मनुष्य उसे ध्यानमें रखे तो अनेक तूफानोंमें से गुजरते हुए भी वह पार लग सकता है। परन्तु जिस प्रकार प्रकाशस्तम्भ तूफानको शान्त नहीं कर सकता फिर भी नाविकको तूफानके बीचसे सुरक्षित निकल जानेकी सुविधा प्रदान
करता है, उसी प्रकार मनुष्यकी प्रतिज्ञा भी हृदयरूपी समुद्रमें उठती हुई तरंगोंसे उसे बचानेवाली प्रचण्ड शक्ति है। प्रतिज्ञाकर्त्ताका पतन कभी न हो— इसका उपाय
- ↑ पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र लेखकने गांधीजीको अपने भीतर संकल्पको दृढ़ताके अभावके विषय में लिखा था और कोई ऐसा उपाथ पूछा था जिससे वह प्रतिज्ञाओंका पालन करने योग्य बन सके