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२७८. पत्र : द० बा० कालेलकरको

आश्रम
साबरमती
बुधवार, आषाढ़ बदी ११, ४ अगस्त, १९२६

भाईश्री ५ काका,

आपका पत्र मिला। मैं आपका महादेवके नाम भेजा लेख[१] प्रकाशित कर दूंगा। मैं अन्तिम वाक्यमें 'लगभग'[२] शब्द जोडूंगा। विदेशी वस्त्रोंका प्रयोग सर्वथा त्याज्य है; परन्तु मोटरका प्रयोग शहरोंमें अनिष्टकर न होकर लाभप्रद है। उदाहरणार्थ यदि नगरके एक छोरपर आग लग जाये तो उसे बुझानेके लिए वहाँ जानेमें मोटर अधिक उपयोगी हो सकती है; अथवा जब कलकत्ता या बम्बईमें भरी दोपहरीमें जानवर भारी-भारी बोझ ढोनेके काममें लगाये जाते हैं, तब मोटरोंकी उपयोगिता स्पष्ट देखी जा सकती है। और आजके युगमें जब रेलें तो हैं ही और शहर भी हैं, तो मोटरोंके विरोधके बजाय हम शहरोंका विरोध करें तो बात बने।

अब सामुदायिक कृषिके विषयको लें। मनुष्यका विकास अन्नकी खेतीसे हुआ, यह एक सापेक्ष सत्य है, अर्थात् मानव आखेटकी स्थितिसे निकलकर कृषिकी स्थितिमें पहुँचकर स्थिर हो गया। अब जो दूसरा कदम उठाना है वह सामुदायिक कृषि करनेका नहीं वरन् फलोंके बगीचे लगानेका है। इससे स्थिरता बढ़ जायेगी, समस्त संसारसे हमारे सम्बन्ध अधिक शुद्ध हो जायेंगे तथा खेतीमें मनुष्यको जितना परिश्रम करना पड़ता है, फलोंके बगीचोंमें उससे कम परिश्रम करना पड़ेगा और उसे कुछ शान्ति भी मिल सकेगी। जिस प्रकार मांसाहारकी अपेक्षा अन्नाहारका आध्यात्मिक प्रभाव अधिक है, उसी प्रकार अन्नाहारकी अपेक्षा फलाहारका प्रभाव अधिक है। फिर ऐसे वृक्षोंसे वर्षा भी नियमित होने लगती है। दूसरे, अनाजकी खेतीके मुकाबले फलोंके बगीचे वर्षापर कम निर्भर होते हैं। इस प्रकार फलाहारके आर्थिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक लाभ अधिक हैं। परन्तु मेरी समझमें यह सुधार हमारे वशकी बात नहीं है। फिर भी मैंने अभी इसकी आशा बिल्कुल छोड़ी नहीं है। यदि मुझे आध्यात्मिक विचार रखनेवाला कोई रसायनशास्त्री मिल जाये तो मैं अपना अधूरा प्रयोग फिर प्रारम्भ कर सकता हूँ। यदि आप इसके प्रति लोनावलाके डाक्टरमें दिलचस्पी पैदा करा सकें तो शायद वे इस प्रयोगको हाथमें ले सकेंगे।

  1. देखिए "बैल बनाम मोटर", ८-८-१९२६ ।
  2. "लगभग" जोड़नेके बाद वाक्थ इस तरह बना था: "यदि हम यह मानने लगे कि मोटरका प्रयोग लगभग उतना ही अवांछनीय है जितना अवांछनीय विदेशी कपड़ेका व्यवहार, तो यह सचमुच हो बहुत अच्छा होगा।"