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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

'चित्रकला एक ऐसी प्रेमिका है जो किसीका अपनी सौत बनना सहन नहीं कर सकती।"

ब्रह्मचर्यका व्रत लेनेवालोंके उक्त जो प्रकार श्री ब्यूरोने गिनाये हैं, मैं उस तरहके आत्मसंयमी अपने यूरोपीय मित्रोंमेंसे लगभग सभीके अनुभवोंसे इस साक्ष्यकी पुष्टि कर सकता हूँ। एक हमारा भारत ही ऐसा देश है जहाँ बचपनसे ही विवाह-की बातें कानोंमें पड़ती रहती हैं। हमारे यहाँ माता-पिताकी बस एक ही महत्वाकांक्षा रहती है और वह यह कि उनके बच्चोंका ठीक घरमें विवाह हो जाये और वे अपने पीछे काफी पैसा और सम्पत्ति छोड़ जायें । पहली कोशिश बच्चोंको असमय तन और मनसे बूढ़ा बना देती है, और दूसरे प्रयत्नमें वे काहिल और बहुधा दूसरोंके बलपर पलनेवाले शोषक व्यक्ति बन जाते हैं। हम ब्रह्मचर्य और स्वैच्छिक निष्कांचनताकी कठिनाइयोंके वर्णनमें अतिरंजना करते हैं और इनको अपनाना साधारण-जनकी शक्तिसे परे बतलाते हैं। हम कहते हैं कि ये व्रत तो महात्मा और योगी ही साध सकते है, हम संसारियोंमें इतनी क्षमता कहाँ! हम भूल जाते हैं कि जिस समाजका सामान्य नैतिक स्तर हदसे ज्यादा गिरा हुआ हो, उसमें सच्चे महात्मा और योगी पैदा ही नहीं हो सकते। सिद्धान्त है कि बुराई खरगोशके बेगसे और भलाई कछुएकी चालसे सुस्थिर, मन्द गतिसे चलती है। इस कारण पाश्चात्य देशोंकी इन्द्रियपरायणता विद्युतके समान हमारे पास पहुँचती है और अपनी लुभावनी चकाचौंधसे हमारी आँखें इस हद तक चौंधिया देती है कि हम जीवनके यथार्थको नहीं देख पाते। हमें अपने ब्रह्मचर्य-पर एक तरहसे शर्म आने लगती है; यहाँतक कि हम पाश्चात्य देशोंके आडम्बरके आगे अपने स्वैच्छिक दारिद्रय-व्रतको एक अपराध-जैसा मानने लग सकते हैं। इस पाश्चात्य वैभवकी झलक हमें नित्य-प्रति वहाँसे आनेवाले समाचारों और वहाँका माल लानेवाले जहाजोंके जरिये मिलती रहती है। लेकिन यहाँ भारतमें हमें जो कुछ देखने-को मिलता है, पाश्चात्य देशोंकी वही वास्तविकता नहीं है। दक्षिण आफ्रिकाके गोरे वहाँ बसनेवाले भारतीयोंको देखकर समूचे भारतके प्रति जिस प्रकार गलत धारणा बना लेते हैं, उसी प्रकार यदि हम इन चीजोंको देखकर ही पाश्चात्य देशोंके बारेमें कोई धारणा बनायेंगे, तो हमारी धारणा नितान्त भ्रामक होगी। पाश्चात्य देशोंकी जनताके जीवनके तलमें भी पवित्रता और नैतिक बलका एक, छोटा-सा ही सही, झरना बह रहा है और जिनकी आँखें ऊपरी तड़क-भड़कसे धोखा नहीं खातीं, वे उसे देख सकते हैं। यूरोपीय देशोंके रेगिस्तानमें जहाँ-तहाँ ऐसे नखलिस्तान मौजूद हैं जहाँ जाकर इच्छुक लोग स्वच्छ जलसे अपनी प्यास बुझा सकते हैं। वहाँ भी सैकड़ों स्त्री-पुरुष बिना कोई ढोल पीटे, बिना कोई शेखी बघारे, बड़े ही सहज और विनम्र भावसे आजीवन ब्रह्मचर्य और स्वैच्छिक निष्कांचनताका व्रत लेते हैं; और बहुधा ऐसे व्रत किसी प्रियजनकी या अपने देशकी सेवाकी खातिर लिये जाते हैं। हम आध्यात्मिकताके बारेमें बहुधा इस लहजेमें बातें करते हैं जैसे हमारे सहज, व्यावहारिक जीवनसे उसका कोई सम्बन्ध ही न हो, जैसे आध्यात्मिकता हिमालयकी एकान्त, दुर्गम कन्दराओंमें धूनी रमानेवाले योगियोंकी ही चीज हो। हमारे नित्यप्रतिके जीवनसे