३०४. पत्र : परशुरामको
आश्रम
साबरमती
आषाढ़ अमावास, रविवार, ८ अगस्त, १९२६
द्वारा[१] कांग्रेस कमिटि
ब्रेडला हॉल
आपका दुःखद पत्र मिला है। सच्ची बात है कि काउंसिलमें जाना बहुत झगड़ोंकी जड़ बन गई है। परंतु जिसको काउन्सिलकी ओर देखना भी नहीं है वह क्या दुःख मानें? हमसे जो बन पड़े उसीको करते रहें तो आखिरमें सत्यकी ही जय होनेवाली है। इस समय बड़ी भीड़ है। परंतु चित्तशांतिके आना वश्यक तो उनका कुछ सोच न करें। मूल पत्र (एस० एन० १२२४४) की माइक्रोफिल्मसे।
३०५. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको
आश्रम साबरमती
मंगलवार, श्रावण शुक्ल २, १० अगस्त, १९२६
आपका पत्र मिला। बिमारी क्यों रहती है? बिमारीका इलाज शीघ्रतासे कर लेना चाहिए। जमनालालजीकी तबियतके लिये वे यहां आ रहे हैं। आनेसे देख लूँगा। आप ही यदि थोड़े ही दिनोंके लिये यहां रह जायें तो संभव है शरीरका कुछ लाभ देख लूं। आपने जो नया दान दिया है उस बारेमें मैं क्या कहूं? मुझको आश्चर्य होता है। ७० हजार[२] के लिये मैं समझा। वह वापिस देनेकी तैयारी चरखा-संघके मारफत करता ही रहुंगा। सतीशबाबुको जो ३० हजार आपने दिये हैं उसको चिन्ता तो मुझे नहीं करनी होगी ऐसा मैं समझा हूं। एसेम्ब्लीके लिये मैं समझा था। उस बारेमें मैंने जो उत्तर दिया था वह तो मिला ही होगा। शास्त्रीजीने मुझको लिखा था कि