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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्वीकार कर लिया है। वह चाहे तो उस संस्थाको छोड़ भले ही दे, लेकिन जबतक वह उसमें है तबतक यह तय करना उसके अख्तियारके बाहर है कि उसे क्या पढ़ना चाहिए और कैसे पढ़ना चाहिए?

यह काम तो शिक्षकोंका है कि वे उस विषयको, जो विद्यार्थियोंको शुरूमें घृणा और अरुचि उत्पन्न करनेवाला मालूम हो, रुचिकर और सुगम बनायें।

यह कहना कि मैं ईश्वरको नहीं मानता, बड़ा आसान है; क्योंकि ईश्वरके बारेमें चाहे जो-कुछ कहा जाये—उसको ईश्वर बिना सजा दिये कहनेकी छूट देता है। वह तो हमारी कृतियोंको देखता है। ईश्वरके बनाए हुए किसी भी कानूनके खिलाफ काम करनेसे काम करनेवालेको सजा जरूर मिलती है, लेकिन वह सजा सजाके लिए नहीं बल्कि उसे शुद्ध करनेवाली और सन्मार्गपर चलनेके लिए बाध्य करनेवाली होती है। ईश्वरका अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता और न उसे सिद्ध करनेकी जरूरत ही है। ईश्वर तो है ही। अगर हम उसका अनुभव नहीं करते तो इसमें हमारा ही अकल्याण है। उसे अनुभव करनेकी शक्तिका अभाव एक रोग है और वह किसी-न-किसी दिन दूर हो जायेगा—फिर हम उसे दूर करना चाहें या न चाहें।

लेकिन विद्यार्थीको इस विवादमें नहीं पड़ना चाहिए। वह जिस संस्थामें पढ़ता है, अगर उस संस्थामें सामुदायिक प्रार्थना करनेका नियम है तो उसे नियमपालनके विचारसे प्रार्थनामें शरीक तो होना ही चाहिए। वह अपनी शंकाएँ अपने शिक्षकोंके सामने आदरपूर्वक रखे। जो बात उसे नहीं जँचती, उसको उसपर विश्वास करना जरूरी नहीं। अगर उसके चित्तमें गुरुजनोंके प्रति आदर है, तो वह उनके बताए कामको उसकी उपयोगितामें दृढ़ विश्वास रखे बिना भी, भयके मारे या अशिष्टताके साथ नहीं, बल्कि इस निश्चयसे करेगा कि उसे करना सही है और यह आशा करेगा कि जो बात आज उसकी समझमें नहीं आती, वह किसी-न-किसी दिन जरूर आ जायेगी।

प्रार्थना करना याचना करना नहीं है, वह तो आत्माकी पुकार है—वह अपनी त्रुटियोंको नित्य स्वीकार करना है। हममें से बड़ेसे-बड़ेको मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था, दुर्घटना इत्यादिके सामने अपनी तुच्छताका भान हरदम हुआ करता है। हम सदा मृत्युसे घिरे रहकर जीते हैं। यदि हमारे मंसूबे पल-भरमें मिट्टीमें मिल सकते हैं अथवा यदि एकाएक पलभरमें खुद हमारी हस्तीतक मिटा सकती है, तब हमारे अपने मंसूबोंपर अमल करनेका मूल्य ही क्या रहता है? लेकिन अगर हम यह कह सकें कि हम तो ईश्वरके निमित्त तथा उसकी इच्छाके अनुसार ही काम करते हैं, तब हम अपनेको मेरुकी भाँति अचल मान सकते हैं। तब तो सब-कुछ बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। उस हालतमें नष्ट कुछ भी नहीं होता। नाशकी सारी क्रिया तब एक आभास ही होती है। केवल इसी अवस्थामें मृत्यु और विनाश अवास्तविक हो जाते हैं, क्योंकि मृत्यु या विनाश उस हालतमें एक रूपान्तर भर हैं—उसी प्रकार जिस प्रकार एक शिल्पी अपने एक चित्रको उससे उत्तम चित्र बनाने हेतु नष्ट कर देता है और