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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खुशीके साथ सारे दक्षिण भारतमें ईसाई मित्रोंके इस आश्वासनको मूर्तरूप ग्रहण करते देखता रहा हूँ। मेरे मनमें इस बारेमें कोई सन्देह नहीं है कि ऐसा ही होना भी चाहिए । ईसाईधर्म या अन्य कोई धर्म स्वीकार करनेका नतीज़ा राष्ट्रीयताकी भावनासे रहित हो जाना नहीं होना चाहिए। जरूरी नहीं कि राष्ट्रीयता संकीर्ण हो या अंतर्रा- ष्ट्रीयतासे उसका तालमेल न बैठे। ऐसा राष्ट्रवाद जो शुद्ध स्वार्थ और अन्य देशोंके शोषणपर आधारित है, अवश्य ही एक बुराई है। लेकिन मैं अन्तर्राष्ट्रीयतावादकी कल्पना एक स्वस्थ और वांछनीय राष्ट्रीय भावनाके बिना कर ही नहीं सकता ।

उस अभिनन्दनपत्रमें खादीके प्रति जो पूर्ण सहानुभूति व्यक्त की गई है, उससे मुझे खुशी हुई। मुझे खादी जैसी अत्यन्त सीधी-सादी चीजके प्रति तनिक भी विरोध बहुत विचित्र-सा लगता है; क्योंकि आखिरकार खादी तो करोड़ों भूखे लोगोंसे अपना सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा मात्र है । कोई स्त्री या पुरुष जो लाखों मेहनतकश लोगोंकी सेवा करना चाहता है, इस सेवाकार्यकी शुरूआत खादीसे ही कर सकता है। अभी हालमें ही सर एम० विश्वेश्वरैयाने इस तथ्यपर दुःख प्रकट किया है कि गाँवोंके करोड़ों आदमी, जिनके पास इतना समय और फुरसत है, अपना उत्पन्न किया हुआ कच्चा माल भारतसे बाहर भेज रहे हैं और स्वयं अपने ही प्रयत्नोंसे अपनी सहायता करने के अवसरसे अपनेको वंचित कर रहे हैं। अवश्य ही, देशके इस हिस्से में आपको अपनी उत्पन्न की हुई कपासका लाभदायक ढंगसे इस्तेमाल कर सकनेका अनोखा अवसर प्राप्त है। आप यहाँ मेजपर खादीके ये जो टुकड़े पड़े देख रहे हैं, इनका इतिहास मैं आपको बताऊँगा । आपके बीचमें एक सज्जन हैं जिनका नाम है श्री आरंवलरथनाथम् पिल्लई। उन्होंने और मेरे कृपालु मेजबान श्री विश्वनाथ पिल्लईने दो स्कूलोंमें लड़के और लड़कियोंको मामूली कताई सिखानेकी मन्त्रणा कर रखी है। और तकलियोंपर कताई करनेवाले इन लड़के-लड़कियोंकी मेहनत एक महीनेमें सत्रह गज खादी तैयार करने के लिए काफी है। और मुझे उम्मीद है कि इन लड़के और लड़कियों द्वारा तैयार की गई खादीकी छोटी मात्राको इस सभामें उपस्थित कोई व्यक्ति उपेक्षाकी दृष्टिसे नहीं देखेगा, क्योंकि इन बालक-बालिकाओंको तो अभीतक यह भी नहीं मालूम था कि एक गज खादी भी तैयार करनेके क्या मतलब हैं। हमारा यह देश उन देशोंमें से हैं, जहाँ संसारकी सबसे ज्यादा मानव-शक्ति मौजूद है। और सर एम० विश्वेश्वरैयाके अनुसार, इस मानव-शक्तिका कोई उपयोग नहीं किया जाता। यदि भारत-भरमें सभी स्कूल प्रति-दिन थोड़ा समय भी कताईपर लगायें तो आप कल्पना कर सकते हैं कि बिना किसी खास तकनीकी कुशलताके और बिना किसी पूंजीके देशकी उत्पादन क्षमता कितनी अधिक बढ़ जायेगी। मेरे पास यहाँ करीब ८५ गज खादी है जिसे आपकी ही रुईसे आपके ही यहाँके लड़के-लड़कियोंने यहीं काता-बुना है। आपके लिए यहाँ वह कपड़ा रखा हुआ है जिसका अपना एक इतिहास है और जिसमें एक कविता छिपी हुई है। उक्त सज्जनने मुझे एक टुकड़ा भेंट करते हुए मुझसे इसे नीलाम करनेके बजाय खुद ही इस्तेमाल करनेको कहा है। मुझसे यह वचन लेनेके लिए उन्हें वास्तवमें कुछ कहनेकी जरूरत नहीं थी। तथ्य तो यह