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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तुम्हारे लिए यह विश्वास करना काफी होना चाहिए कि मेरा स्वभाव जितनेकी अनुमति देता है मैं अपना उतना ध्यान रख रहा हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मैं आराम चाहता हूँ। लेकिन मुझे वह देगा कौन ? क्या हम जो चाहते हैं वह सब मिल जाता है ? यदि हमें मिल जाये तो हमारे विश्वासका क्या महत्त्व रह जायेगा ? इतना जानना काफी है कि उसकी मर्जीके बिना एक तिनका भी नहीं हिलता। यदि हम उसपर भरोसा रखेंगे, उन लोगोंकी तरहका भरोसा नहीं जो धन द्वारा सुलभ सभी प्रकारका इन्तजाम कर चुकनेके बाद ईश्वरपर भरोसा करते हैं, तो वह हमारी देख- रेख करेगा। यह सच है कि हमें कुछ सावधानी रखनी चाहिए, लेकिन विश्वास रखने- वाले लोग अपने स्वभावके प्रति हिंसा करके विशेष रूपसे सावधानी नहीं बरतेंगे और न ऐसे उपाय करेंगे जो साधारण आदमीके वशके बाहर हैं। इसलिए नुस्खा यही है कि जितनी कम सावधानी रखी जाये उतना ही अच्छा है और उचित प्रयत्न द्वारा हममें से छोटेसे-छोटा आदमी जो-कुछ प्राप्त कर सकता है उससे ज्यादाकी कोशिश न करें। इस मापदण्डसे जाँचनेपर तो मैं अपना जितना खयाल रखता हूँ और फिर दूसरे लोग मेरा जितना खयाल रखते हैं वह बहुत ज्यादा है और ईश्वरमें आस्थाके मेरे दावेके साथ असंगत है। इस प्रकार तुम देखोगी कि इस दिशामें मैं जो कुछ करता हूँ वह मुझे बहुत ज्यादा लगता है और मैं अकसर सोचता हूँ कि यदि कुछ समयतक मेरी उपेक्षा की जा सके तो वह बहुत लाभकर होगा। फिलहाल तो यह स्थिति है कि मुझे बच्चोंकी तरह बहुत सँभालकर रखा जा रहा है।

यह बहुत सम्भव है कि एक अन्य व्याघात होगा और मुझे एक या दो दिनके लिए दिल्ली जाना पड़ेगा। आज शामतक मुझे शायद पता चल जायेगा ।

सप्रेम,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२८९) से।
सौजन्य : मीराबह्न

११६. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

२४ अक्टूबर, १९२७

प्रिय सतीश बाबू,

आपका पत्र बहुत निराशाजनक है, लेकिन कोई बात नहीं । वातावरणको देखते जितना उचित है और हमारे पास जितने पैसे हों, उससे ज्यादा करने की हमें कोशिश नहीं करनी चाहिए। मुख्य चीज है कि आप अपना स्टाक कम कीजिए। आपका [चरखेका] बक्सा आनेपर देखूंगा कि मैं क्या कर सकता हूँ ।

नया चरखा अब मिल गया है। हालाँकि देखनेमें लगता है कि उसे पैक करनेमें असाधारण सावधानी बरती गई थी, लेकिन वह यहाँ टूटी हालतमें प्राप्त हुआ है। बिचले हिस्सेके दो टुकड़े हो गये हैं और 'स्टॉपर' भी क्षतिग्रस्त है। लेकिन मुझे