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स्वयंको बदलनेकी आवश्यकता

[ नीलकी ] प्रतिमाके एक ऐसे प्रमुख सार्वजनिक स्थलपर मौजूद रहने में कोई बुराई नहीं नजर आती जहाँ केवल उन राष्ट्रीय नायकोंकी प्रतिमाएँ होनी चाहिए जिनका जीवन राष्ट्रको अनुप्रेरित करेगा और उदात्त बनायेगा ।

यह बात बहुत स्पष्ट करनेकी जरूरत नहीं है कि यह सत्याग्रह व्यक्तिगत रूपसे जनरल नीलके विरुद्ध नहीं है। 'आतंक' के साम्राज्यको स्थायित्व प्रदान करने के उद्देश्य से यदि जनरल नीलकी जगह जनरल वीरसिंहकी प्रतिमा खड़ी की गई होती तो भी यह सत्याग्रह उतना ही उचित और आवश्यक होता ।

बहसके दौरान यूरोपीयोकी ओरसे प्रतिमाका एक बचाव पेश किया गया था । उसे काफी सावधानीके साथ, संयत और युक्तियुक्त शब्दोंमें रखा गया था । तथापि उससे यूरोपीय मनोवृत्ति झलकती थी। जनरल नील जिस चीजके प्रतीक थे, वह साम्राज्यको बचानेके लिए आवश्यक थी। और जनरल नीलके दुष्कृत्योंको ढँकनेके लिए उनका बचाव करनेवाले के लिए यह जरूरी हो गया कि वह 'द अदर साइड ऑफ द मेडल' ('तसवीरका दूसरा पहलू') के लेखक श्री टॉमसनको पागल करार दे दें और एक घिनौना अभिनन्दनपत्र कहींसे खोज निकालें जिसे गदरके दो वर्ष बाद मद्रासके ११० हिन्दुओंने जनरल नीलकी रेजीमेंटको प्रदान किया था। जिन परिस्थितियों में यह अभिनन्दनपत्र दिया गया था, उनका पता चलानेका मेरे पास कोई तरीका नहीं है, लेकिन मुझे इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं लगती कि ऐसा एक अभिनन्दनपत्र भेंट किया गया। क्योंकि हालकी घटनाओं में से भी ऐसे दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। क्या जनरल डायरको स्वयं अमृतसरमें ही इसी प्रकारका एक अभिनन्दनपत्र नहीं भेंट किया गया था ? और यह आश्चर्य की बात होगी कि यदि आज भी सर माइकेल ओ'डायर भारत लौटें और अच्छे शासनके हित में जरूरी समझा जाये तो उन्हें एक अभिनन्दनपत्र भेंट करनेके लिए ११० भारतीय न मिलें । क्या हमारे ही समय में अत्यन्त अलोकप्रिय वाइसरायोंको भी अभिनन्दनपत्र और ट्राफियाँ नहीं प्राप्त हुई हैं ?

यह बड़े ही दुःखकी बात है कि अंग्रेज लोग भारतीयोंकी उन भावनाओंकी सराहना करने लगते हैं जिन्हें यदि कोई अंग्रेज व्यक्त करे तो वे स्वयं शर्मिन्दा होंगे। मुझे याद है कि एक सम्मेलनमें राजभक्तिसे सम्बन्धित एक प्रस्तावपर बोलते हुए एक विद्वान भारतीयने यह कहा कि वे प्रत्येक अंग्रेजको अपना शिक्षक मानते हैं और वे जो कुछ है, सब ब्रिटेनकी दयासे ही बने हैं, तो एक गवर्नरकी पत्नीने सबसे पहले जोरसे तालियाँ बजाई थीं। मद्रासमें जो कुछ हुआ, वह कुछ इसी ढंगकी चीज थी और इससे मुझे दुःख हुआ ।

लेकिन मद्रास विधान परिषदमें जो विपरीत फैसला हुआ, उससे आतंकवादके प्रतीकोंके विरुद्ध संघर्ष करनेवाले नवयुवकोंको निरुत्साह नहीं होना चाहिए। उन्हें आन्दोलनका इस समय विरोध करनेवाले अंग्रेजों या भारतीयोंके विरुद्ध क्रोध नहीं करना चाहिए। उन्हें अपने-आपमें और अपने उद्देश्यमें विश्वास होना चाहिए। यदि उनका यह विश्वास बना रहा तो वे एक दिन उन्हीं लोगोंको अपनी ओर कर लेंगे