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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे बड़े ही गरीब घरोंकी महिलाएँ थीं। अगर उनकी कोई इच्छा थी तो यही कि उनके पास जितने भी पैसे हों लगभग सभी मुझे सौंप दें। अगर किसी महिलाने अपनी साड़ीके खूंटमें दो सिक्के बाँध रखे थे तो उसने एक अपने हाथसे और दूसरा अपने बच्चोंके हाथोंसे मेरी झोलीमें डलवा दिया। इस प्रकार अपनी झोलीमें सिक्के जमा होते देखकर मेरी छाती फूल उठी थी । यद्यपि वे थे तो कुछ पैसे ही, पर उन आँखों और उन हाथोंको देखकर मुझे स्पष्ट अनुभूति हुई कि यही उनका सर्वस्व था और इसके साथ उन्होंने अपना समूचा हृदय भेंट कर दिया था। और आप भी शायद मेरी इस बातसे सहमत होंगे कि चन्द पैसोंकी वह भेंट इस थैलीके लिए दिये गये बड़ेसे-बड़े दानकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान थी। मैंने इस घटनाका उल्लेख और यह तुलना इस उद्देश्यसे नहीं की कि आपकी भेंट की हुई थैलीका महत्त्व मैं घटाना चाहता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि मुझे ऐसी सैकड़ों घटनाओंका प्रत्यक्षदर्शी बनना पड़ता है। उनमें से एक इस घटनाका उल्लेख करनेका मेरा मंशा यही है कि आप इस तथ्यको भली-भाँति हृदयंगम कर लें कि हमारा यह आन्दोलन भारतके कंगालोंका आन्दोलन है। इसका उल्लेख मैंने यह बतलानेके लिए भी किया है कि हमारे देशकी महिलाएँ उपेक्षाके योग्य नहीं हैं, ऐसी नहीं हैं जिनकी पुरुषोंको कोई परवाह ही नहीं करनी चाहिए या जिनको दासियाँ या पुरुषोंकी वासना तृप्त करनेका साधन मात्र समझा जाये । इस घटनाका उल्लेख मैंने इसलिए किया है कि आप लोग भी अपने हृदयोंमें इन सीधी-सादी बहनों जैसी अडिग आस्था पैदा करें। और इस घटनाके उल्लेखका अन्तिम कारण यह है कि मैं इसके जरिये आपके मानपत्रके आरम्भिक अनुच्छेदका उत्तर देना चाहता हूँ ।

आप चाहते हैं कि मैं भारतके राजनीतिक संघर्षका नेतृत्व करूँ। मैंने कोयम्बटूरमें भी कहा था कि मुझे लगता है कि मैं चरखेको अपना सारा समय देकर राज- नीतिक संघर्षके लिए भी अपना तुच्छ योगदान कर रहा हूँ। पर यदि 'राजनीतिक ' शब्दका वह अर्थ भी लगाया जाये, जो आपने मानपत्रमें लगाया है, तो भी राजनीतिको धर्ममय बनाना तबतक सम्भव नहीं जबतक कि हमारे अन्दर उतनी ही अगाध और अडिग आस्था न हो जितनी कि हमारी इन भोली-भाली बहनोंके मनमें है। उनकी आस्था परिणाम या लाभका मुंह नहीं जोहती, वह भय या संकोचसे सर्वथा अपरिचित है। बच्चा जब अपनी माँकी गोदमें दुबककर अपनेको सर्वथा सुरक्षित महसूस करता है, तब वह आगा-पीछा नहीं सोचता, यह सोचने नहीं बैठता कि माँ उसकी रक्षा करने में सचमुच समर्थ भी है या नहीं। और यदि हमारे देशमें राजनीतिक ढंगसे सोचने- वाले लोग -- सार्वजनिक सभाओंका आयोजन करने, भाषण देने और सुननेके अभ्यस्त लोग मी भारतके उज्ज्वल भविष्यके बारेमें इतनी ही उत्कट आस्था रखते होते, यदि चरखेके सन्देशपर उनकी ऐसी ही अडिग आस्था होती, तो निःसन्देह स्वराज्य कबका मिल गया होता । चरखेको आप भारतकी आर्थिक समस्याओंका हल न भी मानिए । कमसे-कम उसे हमारी अपनी आस्था, हमारे विश्वासकी कसौटी तो मानिए । लाभ-हानिकी दृष्टिसे सोचनेके अभ्यस्त अपने देश भाइयोंके सामने मैंने चरखेका बेजोड़ और अकाट्य आर्थिक पहलू रख दिया है। परन्तु यदि हमारे हृदयमें आस्था हो तो