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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बरहामपुरमें मुझे किसी भाईने एक लम्बा पत्र भेजा था । ऊपर उसीका कुछ अंश दिया गया है। चूंकि मेरे पास यह माननेका कारण है कि इस पत्र लेखकने वे बातें खुलासा कहनेका साहस किया है जो दूसरे लोग मनमें छिपाये हुए हैं, अतः मुझे जान पड़ता है कि इन आरोपोंका जवाब देना जरूरी है।

इन सवालोंका ब्यौरेवार जवाब देना जरूरी नहीं है। हममें से बहुत लोग एक भारी भूल यह करते हैं कि शास्त्रोंका अक्षरशः अर्थ लगाने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि मात्र शब्दोंका पालन शास्त्रोंकी आत्माको नष्ट कर देता है और उनके भावार्थका अनुसरण उसे विकसित करता है । 'महाभारत' और 'पुराण' न तो बिलकुल इतिहास ही हैं, और न धर्मशास्त्र हो । मुझे लगता है कि वे मनुष्यके धार्मिक इतिहासको भिन्न-भिन्न रूपोंमें समझानेकी एक आश्चर्यजनक रूपसे उपयुक्त योजनाके अन्तर्गत लिखे गये हैं। उनमें वर्णित सभी नायक हम लोगों-जैसे अपूर्ण, दोषयुक्त, नश्वर प्राणी हैं, अगर अन्तर है तो अपूर्णताकी मात्रामें हो। उनके वर्णित कामोंका हम आँख मूंदकर अनुकरण नहीं कर सकते। 'महाभारत' की सारी शिक्षाका सार इतनेमें दिया हुआ है कि संसारमें सत्य सभी वस्तुओंसे सर्वोपरि है।

मगर मैं शास्त्रोंमें लिखी हरएक बातका औचित्य सिद्ध करनेकी कोशिश नहीं कर रहा हूँ । इन ग्रन्थोंको श्रद्धाके साथ पढ़नेपर मुझपर सब मिलाकर जो असर पड़ता है, मैं उसीको मानता हूँ । हरएक आदमीको, जो सच्चा होना चाहता है, यही करना पड़ेगा। इस तरह मेरा दावा है कि अहिंसा और सत्यमें मेरा विश्वास उन्हीं ग्रन्थोंके पढ़नेसे पैदा हुआ है, जमा है, जिसमें से निकालकर ये भाई मेरे सामने ये प्रश्न उपस्थित कर रहे हैं। यही नहीं, बल्कि मेरा विश्वास आज मेरे अस्तित्वका परमावश्यक अंग बन पाया है, और इसलिए वह इन किताबोंके या किन्हीं और किताबोंके सहारे- के बिना भी स्थिर रह सकता है। निश्चय ही, हरएक धार्मिक प्रवृत्तिवाले आदमीके जीवनमें एक ऐसा समय आता ही है जब उसकी श्रद्धा आत्म-पोषित होती है । इसलिए भले ही सिद्ध किया जाये कि अवतारोंने फलाँ काम किया था, फलाँ काम नहीं किया था, मगर इसका मुझपर कोई असर नहीं पड़ सकता । दिनोंदिन बढ़ता और सबल होता हुआ मेरा अनुभव मुझसे कहता है कि जहाँतक आदमीके लिए सम्भव हो, उस हद तक सत्य और अहिंसाका पालन किये बिना न तो व्यक्तियोंको और न जातियोंको ही शान्ति मिल सकती है। बदला लेनेकी नीतिको कभी सफलता नहीं मिली। बदला लेनेसे, जिसमें अकसर धोखेबाजी और जोर-जबरदस्ती भी शामिल होती है, कभी-कभी अस्थायी और दिखावटी सफलता मिलनेके इक्के-दुक्के उदाहरणोंसे हमें घबराना नहीं चाहिए । संसार- का अस्तित्व आज इसीलिए बना हुआ है कि यहाँपर घृणासे प्रेमकी मात्रा अधिक है, असत्यसे सत्य अधिक है। इसकी जाँच जो कोई सोचनेकी तकलीफ उठाये वह कर सकता है। धोखेबाजी और जोर-जबरदस्ती तो बीमारियाँ हैं। सत्य और अहिंसा स्वास्थ्य हैं। यह तथ्य कि संसार अभीतक नष्ट नहीं हो गया है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि संसारमें रोगसे अधिक स्वास्थ्य है। इसलिए जो इसे समझ लें, उनको अत्यन्त प्रतिकूल स्थितियोंमें भी स्वास्थ्यके नियमोंका पालन करना चाहिए ।