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भाषण : वरतेजमें

मुझे लगता है कि मैं [समाजके] इस पापका कुछ प्रायश्चित्त कर रहा हूँ। किसी भी व्यक्तिको ऐसा अभिमान नहीं रखना चाहिए कि वह उनकी सेवा करता है अतः उसके लिए इस पापका प्रायश्चित्त करनेका सवाल नहीं उठता। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि किसी एक भी हिन्दूके अत्याचारोंके लिए सारा समाज जिम्मेदार है। जगत इसी नियमपर चल रहा है कि जबतक कोई एक मनुष्य भी पाप करता है तबतक सारा जगत् उसके लिए उत्तरदायी है। हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनोंको अपने लिए यही नियम लागू करना चाहिए। जबतक दुनियामें मनुष्य जाति बाड़ों में बँटी हुई है तबतक ऐसे प्रत्येक बाड़ेका प्रत्येक सदस्य अपने प्रत्येक दूसरे सदस्यके पापके लिए जिम्मेदार है।

मन्दिरका अर्थं संगमरमर और ईंटोंसे बना हुआ घर नहीं है। इसी तरह उसमें मात्र मूर्तिकी स्थापना हो जानेसे भी वह इस नामका अधिकारी नहीं हो जाता। उसे मन्दिर तभी कहा जा सकता है जब मूर्तिकी प्राण-प्रतिष्ठा की गई हो। ब्राह्मणको बुलाकर हवन कराकर मन्दिर खोल देनेमें पाखंड भी हो सकता है। सच तो यह है कि जिसने मन्दिरका निर्माण करानेका संकल्प किया हो उसे अपने इस संकल्पके क्षणसे ही अपना जीवन प्रायश्चित्तमें ही लगा देना चाहिए और अपने पुण्योंका फल मन्दिरको ही अर्पित कर देना चाहिए। मन्दिरके संचालकों और उसके पुजारियोंका जीवन भी तपश्चर्यामय होना चाहिए, जिससे कि मन्दिरमें प्रवेश करते ही दर्शनार्थीके मनमें भक्तिकी लहरें उठने लगें। यदि यह मन्दिर इस श्रेणीका न हो, यदि इसके पीछे इतनी आत्मशुद्धि और विचारशुद्धि न हो तो फिर यह मन्दिर नहीं, एक मकान मात्र है और पृथ्वीपर बोझ रूप है। इस मकानको मन्दिर कहा जायेगा इसलिए जमीनका इतना हिस्सा बेकार हो जायेगा; इसका कोई उपयोग नहीं होगा। यह भी सम्भव है कि मन्दिरके नामकी ओटमें यह अनेक प्रकारके पापोंको आश्रय देनेवाली एक हानिकारक संस्था बन जाये। ये सारे दोष यहाँ नहीं हैं, ऐसा मानकर ही मैंने यह शिलान्यासकी विधि को है। मनमें यह विचार आते ही कि मन्दिर बनाना है उसका शिलान्यास कर देना और फिर यह आशा रखकर बैठ जाना कि मन्दिर किसी दिन बन हो जायेगा, ठीक नहीं है। हमारी कहावत है कि उतावली करने से आम नहीं पकते। उसी तरह धर्मका पौधा भी उतावली करनेसे नहीं उगता। उसके लिए सच्चा विश्वास, परिश्रम और धैर्य चाहिए।

यहाँ उपस्थित अन्त्यज भाइयोंसे मैं यही कहूँगा कि हिन्दू-धर्मका यह कथन कि स्वयं मरे बिना कोई स्वर्ग नहीं पहुँच सकता, बिलकुल सही है। अपनी उन्नति तुम्हें स्वयं ही करनी है। तुम यह मानकर मत बैठ जाना कि तुम्हारे भलेके लिए जो कुछ जरूरी है सो सब हिन्दू समाज करेगा। वे तो तुम्हारी सेवा करके अपना ही भला कर रहे हैं। तुम्हें अपनी ताकत दिखानी हो तो जागो और हिन्दुओंने जिन दोषोंको लगाकर तुम्हारा त्याग किया है उन्हें दूर करके दिखाओ। ऐसा नियम बनाओ कि तुममें जो व्यसनी हैं, या मांसाहारी हैं, वे मन्दिरमें नहीं आ सकेंगे। ऊँचे माने जानेवाले हिन्दुओंके दोषोंकी ओर अंगुली मत उठाना। 'समरथको नहि दोष गुसाईं',