सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साहित्यालाप.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७२
साहित्यालाप



दे डालते हैं। पर एक-लिपि के लिए इतने आत्मत्याग की ज़रूरत नहीं । जरूरत सिर्फ बँगला अक्षरों की जगह नागरी अक्षरों से काम लेने की है। इसमें कठिनता ज़रूर है और थोड़ी हानि होने की भी सम्भावना है । पर भावी लाभ के सामने यह कठिनता और यह त्याग स्वदेश-प्रेमियों के लिए तुच्छ है। यदि वे बँगला पुस्तकों और पत्रों को क्रम क्रम से नागरी लिपि में छापने लगेंगे तो बँगला-साहित्य में भरा हुआ ज्ञानभाण्डार और प्रान्तवालों के लिए भी सुलभ हो जायगा । अन्य प्रान्तों में नागरी लिपि का प्रचार होने से भी यही बात होगी। प्रत्येक प्रान्त की अच्छी अच्छी पुस्तकों से देश भर को लाभ पहुंचेगा और धीरे धीरे सहानुभूति जागृत हो उठेगी। सहाभूति से ऐक्य ज़रूर पैदा होगा। और ऐक्य के गुण कौन नहीं जानता ? लिपि बदल देने से किसी पुस्तक या पत्र में लिखी गई बात का प्रभाव कम नहीं हो सकता। मराठी भाषा की पुस्तकें देवनागरी ही में प्रकाशित होती हैं । संस्कृत की अनेक पुस्तकें मदरास में तामील, तैलंगी आदि में, और बङ्गाल में बङ्गला में छपकर प्रकाशित हो रही हैं । पर इस लिपित्र्यावर्तन से उनको अणुमात्र भी हानि नहीं पहुंची।

देवनागरी लिपि के प्रचार में अनार्यों भाषा बोलने और अनार्य लिपि लिखनेवालों को अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। ऐसी भाषा और ऐसी लिपि का प्रचार मदरास प्रान्त में है। पर इस प्रान्तवालों का भी थोड़ा बहुत परिचय संस्कृत से है। और संस्कृत के ग्रन्थ देवनागरी लिपि में वहां भी प्रचलित हैं।