हैं। इस तुच्छ प्रकृति के पीछे वही है, जिसे हम आत्मा कहते हैं। एक ही पुरुष है जो एकमात्र सत्ता है, सदानंद स्वरूप, सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान, जन्मरहित, मृत्युहीन। उसी की आज्ञा से आकाश विस्तृत हुआ है, उसी की आज्ञा से वायु बहती है, सूर्य चमकता है, सब जीवित रहते हैं। प्रकृति का वास्तविक रूप वही है; प्रकृति उसी सत्य स्वरूप के ऊपर प्रतिष्ठित है, इसीलिए सत्य प्रतीत होती है। वही आप की आत्मा की आत्मा है, नहीं, और भी अधिक, आप ही वह हैं, आप और वह एक ही हैं, जहाँ कहीं भी दो हैं वही भय है, वहीं ख़तरा है, वहीं द्वन्द्व है, वहीं संघर्ष है। जब सब एक ही है तो किससे घृणा, किससे संघर्ष; जब सब कुछ वही है, तो आप किससे लड़ेंगे? जीवनसमस्या की वास्तविक मीमांसा यही है। इसीसे वस्तु के स्वरूप की व्याख्या हो जाती है, यही सिद्धि या पूर्णत्व है, यही ईश्वर है। जब तक आप अनेक देखते हैं तभी तक आप अज्ञान में हैं। "इस बहुत्वपूर्ण जगत् में जो एक को देखता है, इस परिवर्तनशील जगत् में जो उस अपरिवर्तनशील को देखता है और जो उसे, अपने आत्मा के आत्मा के रूप में देखता है, अपना स्वरूप जानता है, वही मुक्त है, वही आनन्दमय है, वही लक्ष्य पर पहुँच गया है।" इसलिये समझ लो कि तुम ही वही हो, तुम ही जगत् के ईश्वर हो, 'तत्त्वमसि'। ये धारणायें कि मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं रोगी हूँ, मैं स्वस्थ हूँ, मैं बलवान् हूँ, मैं निर्बल हूँ, अथवा यह कि मैं घृणा करता हूँ, मैं प्रेम करता हूँ अथवा मेरे पास इतनी शक्ति है, यह सब भ्रम मात्र है। इसको छोड़ो। तुम्हें दुर्बल कौन बना सकता है? तुम्हें कौन भयभीत कर सकता है? जगत् में तुम्हीं तो एक मात्र सत्ता हो। तुम्हें किसका भय है? खड़े हो जाओ, मुक्त हो जाओ। समझ लो कि जो कोई विचार या शब्द तुम्हें दुर्बल