रसज्ञ-रञ्जन/२-कवि बनने के लिए सापेक्ष साधन

विकिस्रोत से

[ २८ ] 

२—कवि बनने के लिए सापेक्ष साधन

जकल हिन्दी कवियों ने बड़ा जोर पकड़ा है। या जिधर देखिए उधर कवि ही कवि। जहाँ देखिए वहाँ कविता ही कविता। कवि बनाने के कारखाने भी रात-दिन जारी है। कोई कहता है, हमारे पिङ्गल के प्रचार से गाँव-गाँव में कवि हो सकते है। कोई कहता है, हमारा काव्य-कल्पद्रुस पढ़ लेने से सैकड़ों कालिदास पैदा हो सकते है। कोई कहता है, हमारा काव्य-भास्कर ही कवि बनने के लिए एक मात्र साधन है, उसकी एक ही झाँकी मनुष्य को कवित्व की प्राप्ति करा सकती है। कोई कहता है, हमारी सभा की दी हुई समस्याओं की पूर्तियों करने से अनेक व्यास और वाल्मीकि फिर जन्म ले सकते है। शायद इन्हीं लोगों के उद्योग का फल है जो हिन्दी से आजकल इतने कवियों का एक ही साथ प्रादुर्भाव हो गया है। पर, इन कविता कुबेरों के प्रादुर्भाव से सरस हृदय सज्जन बहुत तङ्गे हो रहे है। जो काम बहुत कठिन समझा गया है, वह इन कवियों के लिए खेल हो रहा है। कविता करना अन्य लोग चाहे जैसा सहज समझे, हमे तो यह एक तरह दुसाध्य ही जान पड़ता है। अज्ञानता और अविवेक के कारण कुछ दिन हमने भी तुकबन्दी का अभ्यास किया था। पर कुछ, समझ आते ही हमने अपने को इस काम का अनधिकारी समझा। अतएव उस मार्ग से जाना ही प्रायः बन्द कर दिया। [ २९ ]

विक्रम के ग्यारहवे शतक में, काश्मीर में, अनन्तदेव नामक एक राजा था। उनके शासन समय में क्षेमेन्द्र नामक एक महाकवि हो गया है। वह बहुत, बहुश्रुज्ञ और बहुदर्शी विद्वान था। उसकी प्रतिभा बड़ी ही विलक्षण थी। उसकी बुद्धि इतनी व्यापक और सूक्ष्म थी कि प्रत्येक विषय उनके लिए हस्तामलकवत् था। उसने, न मालूम, कितने ग्रन्थ बना डाले। उनमें से दस-बीस तो छप कर प्रकाशित भी हो गये है। अपने शिष्या की शिक्षा के लिए छोटे-छोटे ग्रन्थ तो हँसते-हँसते बना डालता था। जरा उसकी बुद्धि की व्यापकता तो देखिए। कभी तो आप वेदान्त पर ग्रन्थ लिखते थे, कभी कुट्टिनियों की लीला का उद्घाटन करने के लिए "समय-मातृका" निर्माण करते थे, कभी "दशावतार-चरित" लिखकर विष्णु भगवान की लीला का वर्णन करते थे, कभी बौद्ध धर्म के तत्वों से भरा हुआ महाकाव्य लिखते थे, कभी काव्य और छन्द शास्त्र पर ग्रन्थ रचना करते थे और कभी "कलावितान" बनाने बैठ जाते थे। इसी से कहते हैं कि क्षेमेन्द्र की प्रतिभा बड़ी प्रखर था। क्षेमेन्द्र का 'बोधिसत्वाधान' कल्पलता, नामक ग्रन्थ एक अपूर्व काव्य है। उसकी भाषा पाज्जल और भाव तथा कवित्व बहुत मनोहारी है। इस ग्रन्थ का एक तिब्बतीय अनुवाद, अभी कुछ ही समय हुआ, प्राप्त हुआ है। इसे बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी प्रकाशित कर रही है। श्रीयुत शरच्चन्द्रदास इसके सम्पादक है।

क्षेमेन्द्र कवि ने 'कवि-कण्ठाभरण' नाम का एक छोटा-सा ग्रन्थ लिखा है। उसमें आपने बताया कि किन साधनों से मनुष्य कवि हो सकता है और किस तरह उसकी तुकबन्दा कविता कहलायी जाने योग्य हो सकती है। क्षेमेन्द्र खुद भी महाकवि था। अतएव उसके बताये हुए साधन अवश्य ही बड़े महत्व के होने चाहिए। यही समझकर हम अपने हिन्दी के कवियों के जानने [ ३० ]के लिए क्षेमेन्द्र के निर्दिष्ट साधनों को थोड़े में उल्लेख करते हैं।

कवि होने के लिए पाँच बातें अपेक्षित है। वे पाँच बातें ये हैं—(१) कवित्व शक्ति (२) शिक्षा (३) चमत्कारोत्पादन (४) गुण-दोष-ज्ञान (५) परिचय-चारुता।

अब इन पाँचों का संक्षिप्त विवेचन सुनिए।

कवित्व-शक्ति

किसी-किसी में कवित्व-शक्ति बीज-रूप से रहती है। उसे अंकुरित करना पड़ता है। जिसमें वह नहीं होती वह अच्छा कवि नहीं हो सकता। कवित्व-शक्ति को जागृति करने के दो उपाय है—दिव्य और पौरुषेय।

सरस्वती देवी के क्रियामातृ-का—मन्त्र जप करना उसकी मूर्त्ति का ध्यान करना और उसके यन्त्र का पूजन करना इत्यादि दिव्य उपाय है।

पौरुषेय उपाय यह है कि किसी अच्छे कवि को गुरू बना कर उससे यथाविधि काव्य-शास्त्र का अध्ययन करना।

कवि बनने की इच्छा से काव्य-शास्त्र का अध्ययन करने वाले शिष्य तीन प्रकार के होते हैं—अल्प-प्रत्यय-साध्य, कृच्छु-साध्य और असाध्य।

थोड़े ही अध्ययन से जो सफल-मनोरथ होजायँ वे अल्प-प्रयत्न-साध्य, अध्ययन में विशेष परिश्रम करने से जिन्हें इष्ट लाभ हो वे कृछ-साध्य, जो वरसो सिर पीटने पर भी कुछ न कर सकें वे असाध्य समझे जाते हैं।

अल्प-प्रयत्न-साध्य शिष्यों के कर्त्तव्य सुनिए।

ऐसे पुरुषों को चाहिए कि वे किसी अच्छे साहित्य ज्ञाता कवि से अध्ययन करे। जो केवल तार्किक या वैयाकरण हो उससे सदा दूर रहे। जो सरस-हृदय हो, स्वयं कवि हो, व्याक[ ३१ ]रण भी जानता हो, छन्दोग्रन्थों का भी पारगामी हो उसे गुरू बनाना चाहिए। अच्छे-अच्छे काव्यों को उसके मुख से सुनना चाहिए। गाथा, प्राकृत तथा अन्यान्य प्रान्तीय भाषाओं के पद्यों का भी सावधान श्रवण करना चाहिए। चमत्कार-पूर्ण उक्तियों के विषय में चर्चा करनी चाहिए। प्रत्येक रस के आस्वादन में तन्मय हो जाना चाहिए। जहाँ जिस गुण का प्रकर्प हो वहाँ अभिनन्दन करके आनन्दित होना चाहिए। विवेक बुद्धि द्वारा भले बुरे काव्य को पहिचानने की चेष्टा करनी चाहिए। ऐसा करते-करते कुछ दिनों में कवित्व-शक्ति अंकुरित हो उठती है और उस शक्ति से सम्पन्न होने पर कविता करने की योग्यता आ जाती है।

कृच्छु-साध्य जनो को चाहिए कि कालिदास आदि सत्कवियों के सारे प्रबन्धों को आद्यन्त पढ़ें और खूब विचार-पूर्वक पढ़ें। इतिहासों का भी अध्ययन करें। तार्किकों की उम्र-सन्धि से दूर ही रहे। कविता के मधुर सौरभ को उससे नष्ट होने से बचाते रहे। अभ्यास के लिए कोई नया पद्य लिखे तो महाकवियों की शैली को र दा व्यान में रक्खें। पुराने कवियो के श्लोकों के पाद, पद और वाक्य आदि को निकाल कर उनकी जगह पर अपने बनाये पाद, पद और वाक्य रक्खे। अभ्यास बढ़ाने के लिए वाक्यार्थ-शून्य पद्य बनावे। कभी-कभी अन्य कवियों की रचना में फेर-फार करके, कुछ अपना कुछ उनका रखकर, नूतन अर्थ का समावेश करने की चेष्टा करें।

जो लोग किसी बड़े रोग से पीड़ित हैं, व्याकरण और तर्क शास्त्रके सतताभ्यास से जिनकी सहृदयता नष्ट होगयी है; अतएव सुकवियों की कविता सुनने से भी जिन्हें कुछ भी आनन्द नहीं प्राप्त होता, उन्हें असाध्य समझना चाहिए। उनका हृदय पत्थर के समान कड़ा होजाता है, उनकी कोमलता बिल्कुल ही जाती रहती है। [ ३२ ] 

न तस्य वक्तृत्वसमुद्भव स्याच्छिक्षाविशेषैरपि सुप्रयुक्तैः।
न गर्दभों गायति शिक्षितोऽपि सन्दर्शित पश्यति नार्कमन्धः॥

उसे चाहे कैसा ही अच्छा गुरू क्यों न मिले और चाहे कितनी ही अच्छी शिक्षा क्यों न दी जाय वह कवि नहीं हो सकता। सिखलाने से भी क्या गधा कभी गीत गा सकता है और हज़ार दफे दिखलाने से भी क्या अन्धा कभी सूर्य को देख सकता है।

शिक्षा

कवित्व-शक्ति स्फुरित हो जाने पर क्या करना चाहिए—किस तरह शिक्षा से उसको प्रखरता को बढ़ाना चाहिए—सो भी सुनिए—

प्राप्त-कवित्व-शक्ति कवि को चाहिए कि वह वृत्त पूरण करने का उद्योग करे, समस्यापूर्ति करे, दूसरे की कविताओं का पाठ किया करे, काव्य के अङ्गों का ज्ञान प्राप्त करे, सत्कवियों की संगति करे महाकवियों के काव्यार्थ का विचार किया करे, प्रसन्न चित्त रहे, अच्छे वेश में रहा करे, नाटकों का अभिनय देखे गाना सुनने का शौक रक्खे, लोकाचार का ज्ञान प्राप्त करे, इतिहास देखे, चित्रकारों के अच्छे-अच्छे चित्रों और शिल्पियों के अच्छे-अच्छे शिल्पकार्यों का अवलोकन करे वीरों का युद्ध देखे, श्मशान और अरण्य से घूम और आर्त्त तथा दुःखी मनुष्यों के शोक प्रलाप पूर्ण वचन सुने। इन सब बातों से शिक्षा प्राप्त करना उनके लिए बहुत ज़रूरी है।

परन्तु इतनी ही शिक्षा बस नहीं और भी उसे बहुत कुछ करना चाहिए, उसे मीठा ओर स्निग्ध भोजन करना चाहिए; धातुओं को सम रखना चाहिए; कभी शोक न करना चाहिए, दिन में कुछ सो लेना चाहिए और थोड़ी रात रहे जाग कर अपनी [ ३३ ]प्रतिभा को प्रखर करना चाहिए। उस समय कुछ कविता करनी चाहिए; प्राणियों के स्वभाव की परीक्षा करनी चाहिए; समुद्र-तट और पर्वतों की सैर करनी चाहिए; सूर्य, चन्द्रमा और तारागणों के स्थान और उनकी गति आदि का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए; सब ऋतुओं की विशेषता और उनका भेद समझना चाहिए सभाओं में जाना चाहिए; एक बार लिखी हुई कविता का संशोधन दो-तीन दफे करके उसे खूब परिमार्जित करना चाहिए।

सुकवि होने की इच्छा रखने वाले के लिए अभी और भी बहुत से काम है। उसे पराधीनता में न रहना चाहिए, अपने उत्कर्ष पर गर्व न करना चाहिए, पराये उत्कर्ष को सहने की आदत डालनी चाहिए, दूसरे की श्लाघा सुनकर उसका अभिनन्दन करना चाहिए, अपनी श्लाघा सुनने में संकोच करना चाहिए, व्युत्पत्ति के लिए—शिक्षा या विद्या-बृद्धि के लिए—सब की शिष्यता स्वीकार करने को तैयार रहना चाहिए; सन्तुष्ट रहना चाहिए, सत्त्वशील बनना चाहिए; किसी से याञ्चा न करनी चाहिए, ग्राम्य और अश्लील बात मुँह से न निकालनी चाहिए, निर्विकार रहना चाहिए; गाम्भीर्य्य धारण करना चाहिए, दूसरे के द्वारा किये गये आक्षेप सुन कर बिगड़ना न चाहिए और किसी के सामने दीनता न दिखानी चाहिए।

कवि के लिए क्षेमेन्द्र ने इस तरह की शत शिक्षायें दी हैं पर उनमें से हमने यहाँ कुछ ही का उल्लेख किया है, सब का नहीं। इन शिक्षाओं या उपदेशों पर विचार करने से पाठकों को मालूम होगा कि कवि-कर्म कितना कठिन है। विधाता की सारी सृष्टि का ज्ञान कवि को होना चाहिए—लोक में जो कुछ है सब से उसे अभिज्ञता प्राप्त करनी चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों को खुद देखना और प्राणियों के स्वभाव से भी उसे परिचित होना चाहिए। ये सब बातें इस समय कौन करता है? फिर कहिए, कोई कवि [ ३४ ]कैसे हो सकता है? पिङ्गल पढ़ लेने और काव्य-भास्कर या काव्य कल्पलता देख जाने से यदि कोई कवि हो सकता तो आजकल कवि गली-गली मारे-मारे फिरते। तुकबन्दी करना और चीज़ है, कविता करना और चीज़।

चमत्कारोत्पादन

शिक्षित कवि की उक्तियों में चमत्कार का होना परमावश्यक है। यदि कविता में चमत्कार नहीं—कोई विलक्षणता नहीं—तो उससे आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्षेमेन्द्र की राय है—

"नहि चमत्कारविरहितस्य कवेः कवित्वं
काव्यस्य वा काव्यत्वम्"।

यदि कवि में चमत्कार पैदा करने की शक्ति नहीं तो वह कवि नहीं और यदि चमत्कारपूर्ण नहीं तो काव्य का काव्यत्व भी नहीं। अर्थात जिस गद्य या पद्य में चमत्कार नहीं वह काव्य या कविता की सीमा के भीतर नहीं आ सकता—

एकेन केनचिदनर्घमणिप्रभेण
काव्यं चमत्कृतिपदेन बिना सुवर्णम्।
निर्दोंषलेशमपि रोहति कस्य चित्ते
लावण्यहीनमिव यौवन मङ्गनानाम्॥

काव्य चाहे कैसा ही निर्दोष क्यों न हों; उसके सुवर्ण चाहे कैसे ही मनोहर क्यों न हो—यदि उसमें अनमोल रत्न के समान कोई चमत्कार-पूर्ण पद न हुआ तो वह, स्त्रियों के लावण्य-हीन यौवन के समान, चित्त पर नहीं चढ़ता।

कविता में चमत्कार लाना लाख पिंगल पढ़ने और रस, ध्वनि तथा अलङ्कारादि के निरूपक ग्रन्थों के पारायण से सम्भव नहीं। उसके लिए प्रतिभा, साधन, अभ्यास, अवलोकन और मनन की ज़रूरत होती है। पिङ्गल आदि का पढ़ना एक बहुत ही गौ‍ण काम है। [ ३५ ]

एक विरहणी अशोक को देख कर कहती है—तुम खूब फूल रहे हो, लताएँ तुम पर बेतरह छाई हुई है, कलियों के गुच्छे सब कहीं लटक रहे हैं, भ्रमर के समूह जहाँ-तहाँ गुञ्जार कर रहे हैं। परन्तु मुझे तुम्हारा यह आडम्बर पसन्द नहीं। इसे हटाओं! मेरा प्रियतम मेरे पास नहीं! अतएव मेरे प्राण कण्ठगत हो रहे है।

इस उक्ति में कोई विशेषता नहीं—इसमें कोई चमत्कार नहीं अतएव इसे काव्य की पदवी नहीं मिल सकती। अब एक चमत्कार-पूर्ण उक्ति सुनिए। कोई वियोगी रक्ताशोक को देख कर कहता है—नवीन पत्तों से तुम रक्त (लाल) हो रहे हो, प्रियतमा के प्रशसनीय गुणों से मैं भी रक्त (अनुरक्त) हूँ। तुम पर शिलीमुख (भ्रमर) आ रहे है, मेरे ऊपर भी मनसिज के धनुष से छूटे हुए शिलीमुख (वाण) आ रहे है। कान्ता के चरणों का स्पर्श तुम्हारे आनन्द को बढ़ाता है; उसके स्पर्श से मुझे भी परमानन्द होता है। अतएव हमारी तुम्हारी दोनों की अवस्था में पूरी-पूरी समता है। भेद यदि कुछ है तो इतना ही कि तुम अशोक हो और मैं सशोक इस उक्ति में सशोक शब्द रखने से विशेष चमत्कार आ गया। उसने 'अनमोल रत्न' का काम किया। यह चमत्कार किसी पिङ्गल पाठ का प्रसाद नहीं और न किसी काव्याङ्ग-विवेचन ग्रन्थ के नियम परिपालन ही का फल है।

उस दिन हम एक महायात्रा में कुछ लोगों के साथ गङ्गा तट तक गये थे। यात्री की मृत्यु पञ्चक में हुई थी। शव चिता पर रखा गया। अग्नि संस्कार के समय एक लकड़ी खिसकी इससे शव का सिर हिल गया। इस पर एक आदमी बोला—लकड़ी खिसकने से सिर हिल गया। यह सुनकर दूसरा बोल उठा—नहीं, नहीं, अमुक चाचा सिर हिलाकर मना कर रहे है कि अग्नि-संस्कार न करो, हम धनिष्ठा-पञ्चक में मरे हैं। यह उक्ति [ ३६ ]यद्यपि एक ग्रामीण का है तथापि इसमें चमत्कार है। कवि को ऐसे ही चमत्कार लाने का उद्योग करना चाहिए।

क्षेमेन्द्र ने दस प्रकार के चमत्कार बतलाये हैं और सब के उदाहरण भी दिये है। पर प्रबन्ध बढ़ जाने के भय से हम उनका निदर्शन नहीं करते।

गुण-दोष-ज्ञान

काव्य के पाँच प्रकार है—सगुण, निर्गुण, सदोष, निर्दोष और गुण-दोष-मिश्रित। गुण तीन प्रकार के है—शब्द वैमल्य, अर्थ वैमल्य और रस वैमल्य। दोष भी तीन प्रकार के—शब्द-कालुष्य, अर्थ-कालुष्य, रस-कालुष्य। इन सबके लक्षण इनके नाम ही से व्यक्त है। इसलिए उदाहरण नहीं दिये जाते।

"कालिदास की निरकुशता" नाम के लेख में शब्द, अर्थ और रस-कालुष्य के कई उदाहरण दिये गये है। काव्य के गुण-दोष के सम्बन्ध में और भी कितनी ही बातों का विचार उस लेख में किया गया है। उसे देखने से पाठकों को क्षेमेन्द्र का अभिप्राय समझने में बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। कवि के निर्दिष्ट दोषों से बचने का यत्न करना चाहिए। परन्तु बचेगा उनसे वहीं, जो उन्हें जानता होगा। अतएव कविता विषयक गुण-दोषों का ज्ञान प्राप्त करना भी कवि के लिए आवश्यक है।

परिचय-चरुता

कवि को मब शास्त्रा, सब विद्याओं और सब कलाओं आदि से परिचत होना चाहिए। क्षेमेन्द्र की आज्ञा है कि तक, व्याकरण नाट्य-शास्त्र, काम शास्त्र, राजनीति, महाभारत, रामायण, वेद-पुराण, आत्म-ज्ञान, धातुवाद, रत्न परीक्षा, वैदिक, ज्योतिष, धनुर्वेद, गज-तुरङ्ग, पुरुष-परीक्षा, इन्द्रजाल आदि सब विषयों का ज्ञान कवि को सम्पादन करना चाहिए। कवियों को पग-पग पर [ ३७ ]इनसे काम पड़ता है। जो इनसे परिचय नहीं रखता वह बहुश्रुत नहीं हो सकता और विद्वानों की सभा में उसे आदर नहीं मिल सकता। प्राचीन कवियों के काव्यों को देखने से यह साफ़ मालूम होता है कि वे लोग अनेक शास्त्रोके तत्व से अभिज्ञ थे‌। इसका परिचय उन्होंने जगह जगह पर दिया है।

क्षेमेन्द्र जब यह सब बातें लिख चुके तब उन्हें शायद सन्देह हुआ कि उनके कथन को कोई असत्य या अतिशयोक्ति-पूर्ण न समझें। अतएव उन्होंने पुस्तकान्त में लिखा है—

कृत्वा निश्चलदैवपौरुषमयोपायं प्रसूत्यै गिरां
क्षैमेन्द्रेण यदर्जितं शुभफलं तेनास्तु काव्यार्थिनात्।
निर्विघ्नप्रतिभा प्रभावशुभगा वाणी प्रमाणीकृता।
सद्भिर्वाग्भवमन्त्रपूतवितत श्रोत्रामृतस्यन्दिनी॥

अर्थात् वाणी की उत्पत्ति के लिए मैंने देव और पौरुषमय दोनों उपायों को किया है और उनसे शुभ-फल की प्राप्ति भी मुझे हुई है। मेरी अब यह कामना है कि उस फल की प्रेरणा या प्रसाद से कवि होने की इच्छा रखने वालों को भी पवित्र कविता करना आ जाय। भगवान करे, क्षेमेन्द्र की शुभकामना हमारे वर्त्तमान कवियों के विषय में भी फलवती हो। उनसे हमारी एक विनीत प्रार्थना है। वह यह कि यदि वे इस महाकवि के लिखे हुए कण्ठाभरण को कण्ठ में न धारण करें तो उसे फेंक भी न दें और यदि यह कुछ उनसे न कह सकें तो यह निबन्ध लिखकर हमने जो अपराध किया है उसे उदारतापूर्वक क्षमा ही करदें।