हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल/प्रकरण ५ सगुण धारा/कृष्णभक्ति शाखा

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प्रकरण ५

कृष्णभक्ति-शाखा

श्रीवल्लभाचार्यजी––पहले कहा जा चुका है कि विक्रम की १५वीं और १६वीं शताब्दी में वैष्णव धर्म का जो आंदोलन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रहा उसके श्री बल्लभाचार्यजी प्रधान प्रवर्त्तकों में से थे। आचार्यजी का जन्म संवत् १५३५ वैशाख कृष्ण ११ को और गोलोकवास संवत् १५८७ आषाढ़ शुक्ल ३ को हुआ। ये वेदशास्त्र में पारंगत धुरंधर विद्वान् थे।

रामानुज से लेकर वल्लभाचार्य तक जितने भक्त दार्शनिक या आचार्य हुए है सबका लक्ष्य शंकराचार्य के मायावाद और विवर्त्तवाद से पीछा छुड़ाना था जिनके अनुसार भक्ति अविद्या या भ्रांति ही ठहरती थी। शंकर ने केवल निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म की ही पारमार्थिक सत्ता स्वीकार की थी। वल्लभ ने ब्रह्म में सब धर्म माने। सारी सृष्टि को उन्होने लीला के लिये ब्रह्म की आत्मकृति कहा। अपने को अंश रूप जीवों में बिखराना ब्रह्म की लीला मात्र है। अक्षर ब्रह्म अपनी आविर्भाव तिरोभाव की अचिंत्य शक्ति से जगत् के रूप में परिणत भी होता है और उसके परे भी रहता है। वह अपने सत्, चित् और आनंद, इन तीनों स्वरूपों का आविर्भाव और तिरोभाव करता रहता है। जीव में सत् और चित् का आविर्भाव रहता है, पर आनंद का तिरोभाव। जड़ में केवल सत् का आविर्भाव रहता है, चित् और आनंद दोनों का तिरोभाव। माया कोई वस्तु नहीं।

श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है जो सब दिव्य गुणों से संपन्न होकर 'पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आनंद का पूर्ण आविर्भाव इसी पुरुषोत्तम-रूप में रहता है, अतः यही श्रेष्ठ रूप है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सब लीलाएँ नित्य है। वे अपने भक्तों को लिए 'व्यापी बैकुंठ' मै (जो विष्णु के बैकुंठ से ऊपर है) अनेक [ १५६ ]प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहते है। गोलोक इसी 'व्यापी बैकुंठ' का एक खंड है। जिसमे नित्य रूप में यमुना, वृंदावन, निकुंज इत्यादि सब कुछ है। भगवान् की इस 'नित्यलीला-सृष्टि' में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।

शंकर ने निगुण को ही ब्रह्म का परमार्थिक या असली रूप कहा था और सगुण को व्यावहारिक या मायिक। वल्लभाचार्य ने बात उलटकर सगुण रूप को ही असली पारमार्थिक रूप बताया और निगुण को उसका अंशतः तिरोहित रूप कहा। भक्ति की साधना के लिये वल्लभ ने उसके 'श्रद्धा' के अवयव को छोड़कर जो महत्त्व की भावना में मग्न करता है, केवल 'प्रेम' लिया। प्रेम-लक्षणा भक्ति ही उन्होंने ग्रहण की। 'चौरासी वैष्णवो की वार्त्ता' में सूरदास की एक वार्त्ता के अंतर्गत प्रेम को ही मुख्य और श्रद्धा या पूज्य बुद्धि को आनुषांगिक या सहायक कहा है––

"श्री आचार्य जी, महाप्रभुन के मार्ग को कहा स्वरूप है? माहात्म्य-ज्ञान-पूर्वक सुदृढ़ स्नेह की तो परम काष्ठा है। स्नेह आगे भगवान् को रहत नाही ताते भगवान बेर बेर माहात्म्य जनावत हैॱॱॱॱॱॱ ॱॱॱ ॱॱॱॱॱॱॱॱॱइन ब्रजभक्तन को स्नेह परमकाष्ठापन्न है। ताहि समय तो माहात्म्य रहे, पीछे विस्मृत होय जाये।"

प्रेम साधना में वल्लभ ने लोक-मर्यादा और वेदमर्यादा दोनों का त्याग विधेय ठहराया। इस प्रेमलक्षणा भक्ति की ओर जीव की प्रवृत्ति तभी होती है। जब भगवान् का अनुग्रह होता है जिसे 'पोषण' या पुष्टि कहते है। इसी से बल्लभाचार्यजी ने अपने मार्ग का नाम 'पुष्टि मार्ग' रखा है।

उन्होंने जीव तीन प्रकार के माने है––(१) पुष्टि जीव, जो भगवान् के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और 'नित्यलीला' में प्रवेश पाते है; (२) मर्यादा जीव, जो वेद की विधियों का अनुसरण करते है और स्वर्ग आदि लोक प्राप्त करते हैं और (३) प्रवाह जीव, जो संसार के प्रवाह में पड़े सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते है।

'कृष्णाश्रय' नामक अपने एक 'प्रकरण ग्रंथ' में वल्लभाचार्य ने अपने समय की अत्यंत विपरीत दशा का वर्णन किया है, जिसमें उन्हें वेदमार्ग या मर्यादा-मार्ग का अनुसरण अत्यंत कठिन दिखाई पड़ा है। देश में मुसलमानी [ १५७ ]साम्राज्य अच्छी तरह दृढ़ हो चुका था। हिंदुओं का एकमात्र स्वतंत्र और प्रभावशाली राज्य दक्षिण का विजयनगर राज्य रह गया था, पर बहमनी सुलतानों के पड़ोस में रहने के कारण उसके दिन भी गिने हुए दिखाई पड़ते थे। इसलामी संस्कार धीरे धीरे जमते जा रहे थे। सूफी पीरों के द्वारा सूफी-पद्धति की प्रेमलक्षणाभक्ति का प्रचार-कार्य धूम से चल रहा था। एक ओर 'निर्गुन पंथ के संत लोग वेद-शास्त्र की विधियों पर से जनता की आस्था हटाने में जुटे हुए थे। अतः वल्लभाचार्य ने अपने 'पुष्टि मार्ग' का प्रवर्त्तन बहुत कुछ देश-काल देखकर किया।

वल्लभाचार्यजी के मुख्य ग्रंथ ये है––(१) पूर्व-मीमांसा भाष्य (२) उत्तरमीमांसा या ब्रह्मसूत्र भाष्य जो अणुभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इनके शुद्धाद्वैतवाद का प्रदिपादक यही प्रधान दार्शनिक ग्रंथ है (३) श्रीमद्भागवत की सूक्ष्म टीका तथा सुबोधिनी टीका (४) तत्त्वदीपनिबंध तथा (५) सोलह छोटे छोटे प्रकरण ग्रंथ। इनमें से पूर्व मीमांसा भाष्य का बहुत थोड़ा सा अंश मिलता है। 'अणुभाष्य' आचार्यजी पूरा न कर सके थे। अतः अंत के डेढ़ अध्याय उनके पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ ने लिखकर ग्रंथ पूरा किया। भागवत की सूक्ष्म टीका नहीं मिलती, सुबोधिनी का भी कुछ ही अंश मिलता है। प्रकरण ग्रंथों में 'पुष्टि-प्रवाह-मर्यादा' नाम की पुस्तक मूलचंद तुलसीदास तेलीबाला ने संपादित करके प्रकाशित कराई है।

रामानुजाचार्य के समान वल्लभाचार्य ने भी भारत के बहुत से भागों में पर्यटन और विद्वानों से शास्त्रार्थ करके अपने मत का प्रचार किया था। अंत में अपने उपास्य श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में जाकर उन्होंने अपनी गद्दी स्थापित की और अपने शिष्य पूरनमल खत्री द्वारा गोवर्द्धन पर्वत पर श्रीनाथजी का बड़ा भारी मंदिर निर्माण कराया तथा सेवा का बड़ा भारी मडान बाँधा। वल्लभ संप्रदाय में जो उपासना पद्धति या सेवा-पद्धति ग्रहण की गई उसमें भोग राग तथा विलास की प्रभूत सामग्री के प्रदर्शन की प्रधानता रही। मंदिरों की प्रशंसा "केसर की चक्कियाँ चलै-हैं" कहकर होने लगी। भोग विलास के इस आकर्षण का प्रभाव सेवक-सेविकाओं पर कहाँ तक अच्छा पड़ सकता था। जनता पर [ १५८ ]चाहे जो प्रभार पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुंदर सुंदर पदो द्वारा जो मनोहर प्रेम-संगीत-धारा बहाई उसने मुरझाते हुए हिंदू-जीवन को सरस और प्रफुल्ल किया। इस संगीत-धारा में दूसरे संप्रदायों के कृष्ण भक्तों ने भी पूरा योग दिया।

सब संप्रदायों के कृष्णभक्त भागवत में वर्णित कृष्ण की ब्रजलीला को ही लेकर चले क्योंकि उन्होंने अभी प्रेमलक्षणा भक्ति के लिये कृष्ण का मधुर रूप ही पर्याप्त समझा। महत्त्व की भावना में उत्पन्न श्रद्धा या पूज्य बुद्धि का अवयव छोड़ देने के कारण कृष्ण के लोक-रक्षक और धर्मसंस्थापक स्वरूप को सामने रखने की आवश्यकता उन्होंने न समझी। भगवान् के धर्मस्वरूप को इस प्रकार किनारे रख देने से उसकी ओर आकर्षित होने और आकर्षित करने की प्रवृत्ति का विकास कृष्णभक्तों में न हो पाया। फल यह हुआ कि कृष्णभक्त कवि अधिकतर फुटकल शृंगारी पदों की रचना में ही लगे रहे। उनकी रचनाओं में न तो जीवन के अनेक गंभीर पक्षों के मार्मिक रूप स्फुरित हुए, न अनेकरूपता आई। श्रीकृष्ण का इतना चरित ही उन्होंने न लिया जो खंड-काव्य, महाकाव्य आदि के लिये पर्याप्त होता। राधाकृष्ण की प्रेमलीला ही सबने गाई।

भागवत धर्म का उदय यद्यपि महाभारत-काल में ही हो चुका था और अवतारों की भावना देश में बहुत प्राचीन काल से चली आती थी पर वैष्णव धर्म के सांप्रदायिक स्वरूप का संघटन दक्षिण में ही हुआ। वैदिक परंपरा के अनुकरण पर अनेक संहिताएँ उपनिषद्, सूत्रग्रंथ इत्यादि तैयार हुए। श्रीमद्भागवत में श्री कृष्ण के मधुर रूप का विशेष वर्णन होने से भक्तिक्षेत्र में गोपियों के ढंग के प्रेम का, माधुर्य भाव का रास्ता खुला। इसके प्रचार में दक्षिण के मंदिरों की देवदासी प्रथा विशेष रूप में सहायक हुई। माता-पिता लड़कियों को मंदिरो में चढ़ा आते थे जहाँ उनका विवाह भी ठाकुरजी के साथ हो जाता था। उनके लिये मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान् की उपासना पति-रूप में विधेय थी। इन्हीं देवदासियों में कुछ प्रसिद्ध भक्तिने भी हो गई हैं।

दक्षिण में अंदाल इसी प्रकार की एक प्रसिद्ध भक्तिन हो गई है जिनका जन्म संवत् ७७३ में हुआ था। अंदाल के पद द्रविड़ भाषा में 'तिरुप्पावइ' [ १५९ ]नामक पुस्तक में मिलते हैं। अंदाल एक स्थल पर कहती है––"अब मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हूँ और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती।" इस भाव की उपासना यदि कुछ दिन चले तो उसमें गुह्य और रहस्य की प्रवृत्ति हो ही जायगी। रहस्यवादी सूफियों का उल्लेख ऊपर हो चुका है जिनकी उपासना भी 'माधुर्य भाव' की थी। मुसलमानी जमाने में इन सूफियों का प्रभाव देश की भक्ति-भावना के स्वरूप पर बहुत कुछ पड़ा। 'माधुर्य भाव' को प्रोत्साहन मिला। माधुर्य भाव की जो उपासना चली आ रही थी उसमें सूफियों के प्रभाव से 'आभ्यंतर मिलन', 'मूर्छा', 'उन्माद' आदि की भी रहस्यमयी योजना हुई। मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु दोनों पर सूफियों का प्रभाव पाया जाता है।


सूरदासजी––सूरदासजी का वृत्त "चौरासी वैष्णवों की वार्ता" से केवल इतना ज्ञात होता है कि वे पहले गऊघाट (आगरे और मथुरा के बीच) पर एक साधु या स्वामी के स्वरूप में रहा करते थे और शिष्य किया करते थे। गोवर्द्धन पर श्रीनाथजी का मंदिर बन जाने के पीछे एक बार जब वल्लभाचार्य जी गऊघाट पर उतरे तब सूरदास उनके दर्शन को आए और उन्हें अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया। आचार्यजी ने उन्हें अपना शिष्य किया और भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया। उनकी सच्ची भक्ति और पद-रचना की निपुणता देख वल्लभाचार्यजी ने उन्हें अपने श्रीनाथजी के मंदिर की कीर्त्तन सेवा सौंपी। इस मंदिर को पूरनमल खत्री ने गोवर्द्धन पर्वत पर संवत् १५७६ में पूरा बनवाकर खड़ा किया था। मंदिर पूरा होने के ११ वर्ष पीछे अर्थात् संवत् १५८७ में वल्लभाचार्यजी की मृत्यु हुई।

श्रीनाथजी के मंदिर-निर्माण के थोड़ा ही पीछे सूरदासजी वल्लभ-संप्रदाय में आए, यह 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' के इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है––

"औरहु पद गाए तब श्रीमहाप्रभुजी अपने मन में विचार जो श्रीनाथजी के यहाँ और तो सब सेवा को मंडान भयो है, पर कीर्त्तन को मंडान नहीं कियो है; तातें अब सूरदास को दीजिए।"

अतः संवत् १५८० के आस-पास सूरदासजी वल्लभाचार्य के शिष्य हुए होंगे और शिष्य होने के कुछ ही पीछे उन्हे कीर्त्तन सेवा मिली होगी। तब से वे [ १६० ]बराबर गोवर्द्धन पर्वत पर ही मंदिर की सेवा में रहा करते थे, इसका स्पष्ट आभास 'सूरसारावली' के भीतर मौजूद है। तुलसीदास के प्रसंग में हम कह आए हैं कि भक्त लोग कभी कभी किसी ढंग से अपने को अपने इष्टदेव की कथा के भीतर डालकर उनके चरणो तक अपने पहुँचने की भावना करते है[१]। तुलसी ने तो अपने को कुछ प्रच्छन्न रूप में पहुँचाया है, पर सूर ने प्रकट रूप में। कृष्ण-जन्म के उपरांत नंद के घर बराबर आनंदोत्सव हो रहे हैं। उसी बीच एक ढाढी आकर कहता है––

नंद जू मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्द्धन ते आयो।
तुम्हरे पुत्र भयो, मैं सुनिकै अति आतुर उठि धायो॥
XXX
जब तुम मदन मोहन करि टेरी, यह सुनि कै घर जाउँ।
हौं तौ तेरे घर को ढाढी, सूरदास मेरो नाउँ॥

वल्लभाचार्यजी के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ के सामने गोवर्द्धन की तलहटी के पारसोंली ग्राम में सूरदास की मृत्यु हुई, इसका पता भी उक्त वार्ता से लगता है। गोसाई विट्ठलनाथ की मृत्यु सं० १६४२ में हुई। इसके कितने पहले सूरदास को परलोकवास हुआ, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

'सूरसागर' समाप्त करने पर सूर ने जो 'सूरसागर-सारावली' लिखी है उसमें अपनी अवस्था ६७ वर्ष की कही है––

गुरु-परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रवीन।

तात्पर्य यह कि ६७ वर्ष के कुछ पहले वे 'सूरसागर' समाप्त कर चुके थे। सूरसागर समाप्त होने के थोड़ा ही पीछे उन्होंने 'सारावली' लिखी होगी। एक और ग्रंथ सूरदास का 'साहित्य लहरी' है, जिसमें अलंकारों और नायिका-भेदों के उदाहरण प्रस्तुत करनेवाले कूट पद है। इसका रचनाकाल सूर ने इस प्रकार व्यक्त किया है––

मुनि सुनि रसन के रस लेख।
दसन गौरीनंद को लिखि सुबल संबत पेख।

[ १६१ ]इसके अनुसार संवत् १६०७ में 'साहित्य-लहरी' समाप्त हुई। यह तो मानना ही पड़ेगा कि साहित्य-क्रीड़ा का यह ग्रंथ 'सूरसागर' से छुट्टी पाकर ही सूर ने संकलित किया होगा। उसके दो वर्ष पहले यदि 'सूरसारावली' की रचना हुई, तो कह सकते हैं संवत् १६०५ में सूरदासजी ६७ वर्ष के थे। अब यदि उनकी आयु ८० या ८२ वर्ष की माने तो उनका जन्मकाल सं० १५४० के आसपास तथा मृत्युकाल सं० १६२० के आसपास ही अनुमित होता है‌।

'साहित्य-लहरी' के अंत में एक पद है जिसमे सूर अपनी वंशपरंपरा देते हैं। उस पद के अनुसार सूर पृथ्वीराज के कवि चंदबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे। चदंकवि के कुल में हरीचंद हुए जिनके सात पुत्रों में सबसे छोटे सूरजदास या सूरदास थे[२]। शेष ६ भाई जब मुसलमानों से युद्ध करते हुए मारे गए तब अंधे सूरदास बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे। एक दिन वे कुएँ में गिर पड़े और ६ दिन उसी में पड़े रहे। सातवें दिन कृष्ण भगवान् उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें दृष्टि देकर अपना दर्शन दिया। भगवान् ने कहा कि दक्षिण के एक प्रबल ब्राह्मण-कुल द्वारा शत्रुओं का नाश होगा और तू सब विद्याओं में निपुण होगा। इसपर सूरदास ने वर माँगा कि जिन आँखो से मैंने आपका दर्शन किया उनसे अब और कुछ न देखूँ और सदा आपका भजन करूँ। कुएँ से जब भगवान् ने उन्हें बाहर निकाला तब वे ज्यों के त्यों अंधे हो गए और ब्रज में आकर भजन करने लगे। वहाँ गोसाईजी ने उन्हें 'अष्ट-छाप' में लिया।

हमारा अनुमान है कि 'साहित्य-लहरी' में यह पद पीछे किसी भाट के द्वारा जोड़ा गया है। यह पंक्ति ही––

'प्रबल दच्छिन विप्रकुल तें सत्रु ह्वैहै नास।'

इसे सूर के बहुत पीछे की रचना बता रही है। 'प्रबल दच्छिन विप्रकुल' से साफ पेशवाओं की ओर संकेत है। इसे खींचकर अध्यात्म-पक्ष की ओर मोड़ने का प्रयत्न व्यर्थ है। [ १६२ ]सारांश यह कि हमें सूरदास का जो थोड़ा-सा वृत्त 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में मिलता है उसी पर संतोष करना पड़ता है। यह 'वार्ता' भी यद्यपि वल्लभाचार्यजी के पौत्र गोकुलनाथजी की लिखी कही जाती है, पर उनकी लिखी नहीं जान पड़ती। इसमें कई जगह गोकुलनाथजी के श्रीमुख से कही हुई बातों का बड़े आदर और संमान के शब्दों में उल्लेख है और वल्लभाचार्यजी की शिष्या न होने के कारण मीराबाई को बहुत बुरा भला कहा गया है और गालियाँ तक दी गई हैं। रंगढंग से यह वार्ता गोकुलनाथजी के पीछे उनके किसी गुजराती शिष्य की रचना जान पड़ती है।

'भक्तमाल' में सूरदास के संबंध में केवल एक ही छप्पय मिलता है––

उक्ति चीज अनुप्रास बरन अस्थिति अति भारी।
बचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तुकधारी॥
प्रतिबिंबित दिवि दिष्टि, हृदय हरीलीला भासी।
जनम करम गुनरूप सबै रसना परकासी॥
विमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन अवननि धरै।
सूर-कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै॥

इस छप्पय में सूर के अंधे होने भर का संकेत है जो परंपरा से प्रसिद्ध चला आता है।

जीवन का कोई विशेष प्रामाणिक वृत्त न पाकर इधर कुछ लोगों ने सूर के समय के आसपास के किसी ऐतिहासिक लेख में जहाँ कहीं सूरदास नाम मिला है वहीं का वृत्त प्रसिद्ध सूरदास पर घटाने का प्रयत्न किया है। ऐसे दो उल्लेख लोगों को मिले है––

(१) 'आईन अकबरी' में अकबर के दरबार में नौकर, गवैयों, बीनकारों आदि कलावंतों की जो फिहरिस्त है उसमें बाबा रामदास और उनके बेटे सूरदास दोनों के नाम दर्ज है। उसी ग्रंथ में यह भी लिखा है कि सब कलावंतों की सात मंडलियाँ बना दी गई थीं। प्रत्येक मंडली सप्ताह में एक बार दरबार में हाजिर होकर बादशाह का मनोरंजन करती थी। अकबर संवत् १६१३ में गद्दी पर बैठा। हमारे सूरदास संवत् १५८० के आसपास ही वल्लभाचार्यजी के शिष्य [ १६३ ]हो गये थे और उसके पहले भी विरक्त साधु के रूप में गऊघाट पर रहा करते थे। इस दशा में संवत् १६१३ के बहुत बाद वे दरबारी नौकरी करने कैसे आ पहुँचे? अतः 'आईन अकबरी' के सूरदास और सूरसागर के सूरदास एक ही व्यक्ति नहीं ठहरते।

(२) 'मुंशियात अब्बुलफजल'––नामक अब्बुलफजल के पत्रों का एक संग्रह है जिसमें बनारस के किसी संत सूरदास के नाम अब्बुलफजल का एक पत्र है। बनारस का करोड़ी इन सूरदास के साथ अच्छा बरताव नहीं करता था इससे उसकी शिकायत लिखकर इन्होंने शाही दरबार में भेजी थी। उसी के उत्तर में अब्बुलफजल का पत्र है। बनारस के ये सूरदास बादशाह से इलाहाबाद में मिलने के लिये इस तरह बुलाए गए है––

"हजरत बादशाह इलाहाबाद में तशरीफ लाएँगे। उम्मीद है कि आप भी शर्फ मुलाजमात से मुशर्रफ होकर मुरीद हकीकी होंगे और खुदा का शुक्र है कि हजरत भी आपको हक-शिनास जानकर दोस्त रखते है।" (फारसी का अनुवाद)

इन शब्दों से ऐसी ध्वनि निकलती है कि ये कोई ऐसे संत थे जिनके अकबर के 'दीन इलाही' में दीक्षित होने की संभावना अब्बुलफजल समझता था। संभव है कि ये कबीर के अनुयायी कोई संत हों। अकबर का दो बार इलाहाबाद जाना पाया जाता है। एक तो संवत् १६४० में, फिर संवत् १६६१ में। पहली यात्रा के समय का लिखा हुआ भी यदि इस पत्र को माने तो भी उस समय हमारे सूर का गोलोकवास हो चुका था। यदि उन्हें तब तक जीवित मानें तो वें १०० वर्ष के ऊपर रहे होंगे। मृत्यु के इतने समीप आकर वे इन सब झमेलों में क्यों पड़ने जायँगे, या उनके 'दीन इलाही' में दीक्षित होने की आशा कैसे की जायगी?

श्रीवल्लभाचार्यजी के पीछे उनके पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथजी गद्दी पर बैठे। उस समय तक पुष्टिमार्गी कई कवि बहुत से सुंदर सुंदर पदों की रचना कर चुके थे। इससे गोसाईं विट्ठलनाथजी ने उनमें से आठ सर्वोत्तम कवियों को चुनकर 'अष्टछाप' की प्रतिष्ठा की। 'अष्टछाप' के आठ कवि ये हैं––सूरदास, कुंभन[ १६४ ]दास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास।

कृष्णभक्ति-परंपरा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी मूर्ति को ही लेकर प्रेमतत्व की बड़े विस्तार के साथ व्यंजना हुई है; उनके लोकपक्ष का समावेश उसमें नहीं है। इन कृष्णभक्तों के कृष्ण प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं से घिरे हुए गोकुल के श्रीकृष्ण हैं, बड़े बड़े भूपालों के बीच लोकव्यवस्था की रक्षा करते हुए द्वारका के श्रीकृष्ण नहीं हैं। कृष्ण के जिस मधुर रूप को लेकर ये भक्त कवि चले है वह हासविलास की तरंगों से परिपूर्ण अनंत सौंदर्य को समुद्र है। उस सार्वभौम प्रेमालंबन के सन्मुख मनुष्य का हृदय निराले प्रेमलोक में फूला फूला फिरता है। अतः इन कृष्णभक्त कवियों के संबध में यह कह देना आवश्यक है कि ये अपने रंग में मस्त रहने वाले जीव थे; तुलसीदासजी के समान लोकसंग्रह का भाव इनमें न था। समाज किधर जा रहा है, इस बात की परवा ये नहीं रखते थे, यहाँ तक कि अपने भगवत्प्रेम की पुष्टि के लिये जिस शृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से इन्होंने जनता को रसोन्मत्त किया, उसका लौकिक स्थूल दृष्टि रखनेवाले विषय-वासनापूर्ण जीवों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा इसकी ओर इन्होंने ध्यान न दिया। जिस राधा और कृष्ण के प्रेम को इन भक्तों ने अपनी गूढ़ातिगूढ़ चरम भक्ति का व्यंजक बनाया उसको लेकर आगे के कवियों ने शृंगार की उन्मादकारिणी उक्तियों से हिंदी काव्य को भर दिया।

कृष्णचरित के गान में गीत-काव्य की जो धारा पूरब में जयदेव और विद्यापति ने बहाई उसी का अवलंबन ब्रज के भक्त कवियों ने भी किया। आगे चलकर अलंकार काल के कवियों ने अपनी शृंगारमयी मुक्तक कविता के लिये राधा और कृष्ण का ही प्रेम लिया। इस प्रकार कृष्ण-संबधिनी कविता का स्फुरण मुक्तक के क्षेत्र से ही हुआ, प्रंबध-क्षेत्र में नही। बहुत पीछे संवत् १८०९ में ब्रजवासीदास ने रामचरितमानस के दंग पर दोहा चौपाइयों में प्रबंध-काव्य के रूप में कृष्णचरित वर्णन किया, पर ग्रंथ बहुत साधारण कोटि का हुआ और उसका वैसा प्रसार न हो सका। कारण स्पष्ट है। कृष्णभक्त कवियों ने [ १६५ ]श्रीकृष्ण भगवान् के चरित का जितना अंश लिया वह एक अच्छे प्रबंध-काव्य के लिये पर्याप्त न था। उसमें मानव-जीवन की वह अनेकरूपता न थी, जो एक अच्छे प्रबंध-काव्य के लिये आवश्यक है। कृष्णभक्त कवियों की परंपरा अपने इष्टदेव की केवल बाललीला और यौवनलीला लेकर ही अग्रसर हुई जो गीत और मुक्तक के लिये ही उपयुक्त थी। मुक्तक के क्षेत्र में कृष्णभक्त कवियों तथा आलंकारिक कवियों ने शृंगार और वात्सल्य रसों को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया इसमें कोई संदेह नहीं।

पहले कहा गया है कि श्रीवल्लभाचार्यजी की आज्ञा से सूरदासजी ने श्रीमद्भागवत की कथा को पदों में गाया। इनके सूरसागर में वास्तव में भागवत के दशम स्कंध की कथा ही ली गई है। उसी को इन्होंने विस्तार से गाया है। शेष स्कंधों की कथा संक्षेपतः इतिवृत्त के रूप में थोड़े से पदों में कह दी गई है। सूरसागर में कृष्णजन्म से लेकर श्रीकृष्ण के मथुरा जाने तक की कथा अत्यंत विस्तार से फुटकल पदों में गाई गई है। भिन्न भिन्न लीलाओं के प्रसंग लेकर इस सच्चे रसमग्न कवि ने अत्यंत मधुर और मनोहर पदों की झड़ी सी बाँध दी है। इन पदों के संबंध में सबसे पहली बात ध्यान देने की यह है कि चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्यिक रचना होने पर भी ये इतने सुडौल और परिमार्जित है। यह रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यांगपूर्ण है कि आगे होने वाले कवियों की शृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी सी जान पड़ती है! अतः सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य-परंपरा का––चाहे वह मौखिक ही रही हो––पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।

गीतों की परंपरा तो सभ्य असभ्य सब जातियों में अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। सभ्य जातियों ने लिखित साहित्य के भीतर भी उनका समावेश किया है। लिखित रूप में आकर इनका रूप पंडितों की काव्य-परंपरा की रूढ़ियों के अनुसार बहुत कुछ बदल जाता है। इससे जीवन के कैसे कैसे योग सामान्य जनता का मर्म स्पर्श करते आए है और भाषा की किन किन पद्धतियों पर वे अपने गहरे भावों की व्यंजना करते आए हैं, इसका ठीक पता हमे बहुत काल से चले आते हुए मौखिक गीतों से ही लग सकता है। किसी [ १६६ ]देश की काव्यधारा के मूल प्राकृतिक स्वरूप का परिचय हमें चिरकाल से चले आते हुए इन्हीं गीतों से मिल सकता हैं। घर घर प्रचलित स्त्रियों के घरेलू गीतों में शृंगार और करुण दोनों का बहुत स्वाभाविक विकास हम पाऐंगें। इसी प्रकार आल्हा, कड़खा आदि पुरुषों के गीतों में वीरता की व्यंजना की सरल स्वाभाविक पद्धति मिलेगी। देश की अंतर्वर्तिनी मूल भाव-धारा के स्वरूप के ठीक ठीक परिचय के लिये ऐसे गीतों का पूर्ण संग्रह बहुत आवश्यक है। पर इस संग्रह कार्य में उन्हीं का हाथ लगाना ठीक हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति के मार्मिक स्वरूप की परख हो और जिन में पूरी ऐतिहासिक दृष्टि हो।

स्त्रियों के बीच चले आते हुए बहुत पुराने गीतों का ध्यान से देने पर पता लगेगा कि उनमें स्वकीया के ही प्रेम की सरल गंभीर व्यंजना है। परकीया प्रेम के जो गीत है वे कृष्ण और गोपिकाओं की प्रेम-लीला को ही लेकर चले है, इससे उनपर भक्ति था धर्म का भी कुछ रंग चढ़ा रहता है। इस प्रकार के मौखिक गीत देश के प्रायः सब भागों में गाए जाते थे। मैथिल कवि विद्यापति (संवत् १४६०) की पदावली में हमें उनका साहित्यिक रूख मिलता है। जैसा कि इस पहले कह आए हैं, सूर के शृंगारी पदों की रचना बहुत कुछ विद्यापति की पद्धति पर हुई है। कुछ पदों के तो भाव भी बिल्कुल मिलते हैं; जैसे––

अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुंदरि भेलि मधाई।
ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने सुन लुबधाई॥
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भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल छल लोचन पानि।
अनुखन राधा राधा रटइत आधा आधा बानि॥
राधा सयँ जब पनितहि माधव, माधव सयँ जब राधा।
दारुन प्रेम तबहिं नहिं टूटत बाढ़त बिरह क बाधा॥
दुहु दिसि दारु दहन जइसे दगधइ, आकुल कीट-परान।
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कवि, विद्यापति भान॥

इस पद का भावार्थ यह है कि प्रतिक्षण कृष्ण का स्मरण करते-करते राधा कृष्णरूप हो जाती हैं और अपने को कृष्ण समझकर राधा के वियोग में [ १६७ ]'राधा राधा' रटने लगती हैं। फिर जब होश में आती है तब कृष्ण के विरह से संतप्त होकर फिर 'कृष्ण कृष्ण' करने लगती है। इस प्रकार अपनी सुध में रहती हैं तब भी, नहीं रहती हैं तब भी, दोनों अवस्थाओं में उन्हें विरह का ताप सहना पड़ता है। उनकी दशा उस लकड़ी के भीतर के कीड़े की सी रहती है। जिसके दोनों छोरो पर आग लगी हो। अब इसी भाव का सूर का यह पद देखिए––

सुनौं स्याम! यह बात और कोउ क्यों समझायं कहै।
दुहुँ दिसि की रति बिरह बिरहिनी कैसे कै जो सहै॥
जब राधे, तब ही मुख 'माधौ माधौ' रटति रहैं।
जब माधौं ह्वै जाति, सकल तनु राधा-विरह दहै॥
उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै।
सूरदास अति विकल बिरहिनी कैसेहु सुख न लहै॥

(सूरसागर, पृ० ५६४, वेंकटेश्वर)

'सूरसागर' में जगह-जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते है। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। 'सारंग' शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे है। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए––

सारँग नयन, बयन पुनि सारँग, सारँग तसु समधाने।
सारँग उपर उगल दस सारँग केलि करथि मधु पाने॥

पच्छिमी हिंदी बोलनेवाले सारे प्रदेशों में गीतों की भाषा ब्रज ही थी। दिल्ली के आस-पास भी गीत ब्रजभाषा में ही गाए जाते थे, यह हम खुसरो (संवत् १३४०) के गीतों में दिखा आए है। कबीर (संवत् १५६०) के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी 'साखी' की भाषा तो 'सधुक्कड़ी' हैं, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित ब्रजभाषा है। यह एक पद तो कबीर और सूर दोनो की रचनाओं के भीतर, ज्यों का त्यों मिलता है––

हे हरिभजन को परवाँन। नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते नीसान।
भजन को परताप ऐसो तिरे जन पाषान। अधम भील, अजाति गनिका चढ़े जात बिवाँन॥

[ १६८ ]

नवलख तारा चलै मंडल, चलै ससहर भान। दास धू कौं अटल पदवी राम को दीवान॥
निगम जाकी, साखि बोलैं कथैं सत्त सुजान। जन कबीर तेरी सरनि आयौ, राखि लेहु भगवान॥

(कबीर ग्रंथावली, पृ० १९०)


है हरि-भजन को परमान। नीच पावै-ऊँच पदवी, बाजते नीसान।
भजन को परताप ऐसो जल तरै पाषान। अजामिल अरु भील गनिका चढे जात विमान।
चलत तारे सकल, मंडल, चलत ससि अरु भान। भक्त ध्रुव को अटल पदवी राम को दीवान।
निगम जाको सुजस गावत, सुनत संत सुजान। सूर हरि की सरन आयौ, राखि ले भगवान॥

(सूरसागर, पृ० १९, वेंकटेश्वर)

कबीर की सबसे प्राचीन प्रति में भी यह पद मिलता है, इससे नहीं कहा जा सकता कि सूर की रचनाओं के भीतर यह कैसे पहुँच गया।

राधाकृष्ण की प्रेमलीला के गीत सूर के पहले से चले आते थे, यह तो कहा ही जा चुका है। बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया हो गया है जिसकी ख्याति तानसेन के पहले देश में फैली हुई थी। उसका एक पद देखिए––

मुरली बजाय रिझाय लई मुख मोहन तें।
गोपी रीझि रही रसतानन सों सुधबुध, सब बिसराई।
धुनि सुनि मन मोहे, मगन भई देखत हरि-आनन।
जीव जंतु पसु पंछी सुर नर मुनि मोहे, हरे सब के प्रानन।
बैजू बनवारी बंसी अधर धरि वृंदावन-चंद बस किए सुनते ही कानन॥

जिस प्रकार रामचरित गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदासजी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदासजी का। वास्तव में ये हिंदी काव्य-गगन के सूर्य और चंद्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्तशिरोमणि कवियों की वाणी में पाई जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिंदी-काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ; इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया। सूर की स्तुति में, एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है––

उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बलबीर। केशव अर्थ गँभीर को, सूर तीन गुन धीर॥

[ १६९ ]इसी प्रकार यह दोहा भी बहुत प्रसिद्ध है––

किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर। किधौं सूर को पद लग्यो, बेध्यो सकल सरीर॥

यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्य-क्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्य-भूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिये कुछ छोड़ा ही नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखादेखी बहुत अधिक विस्तार दिया सही पर उनमें बाल-सुलभ भावों और चेष्टायों की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रूपवर्णन की ही प्रचुरता रही। बालचेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भंडार और कहीं नहीं। दो चार चित्र देखिए––

(१) काहे को आरि करत मेरे मोहन! यों तुम आँगन लोटी?
जो माँगहु सो देहुँ मनोहर, यहै बात तेरी खोटी॥
सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो हाथ लकुट लिए छोटी॥
(२) सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुन चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किए॥
(३) सिखवत चलन जसोदा मैया।
अरबराय कर पानि गहावति, डगमगाय धेरै पैयाँ॥
(४) पाहुनि करि दै तनक मह्यो।
आरि करै मनमोहन मैरो, अंचल आनि गह्यो॥
व्याकुल मथत मथनियाँ रीती, दधि भ्वैं ढरकि रह्यो॥

बालकों के स्वाभाविक भावों की व्यंजना के न जाने कितने सुंदर पद भरे पड़े हैं। 'स्पर्धा' का कैसा सुंदर भाव इस प्रसिद्ध पद में आया है––

मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी?
कितिक बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति 'बल' की बेनी ज्यों ह्वैहै लाँबी मोटी॥

[ १७० ]इसी प्रकार बालकों के क्षोभ के ये वचन देखिए---

खेलत में को काको गोसैयां ?

जाति पाँति हम तें कछु नाहिं, न बसत तुम्हारी छैयां ।

अति अधिकार जनावत यातें, अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ ।।

वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं । गोकुल में जब तक श्रीकृष्ण रहे तब तक का उनका सारा जीवन ही संयोग-पक्ष है। दानलीला, माखनलीला, चीरहरण-लोला, रासलीला आदि न जाने कितनी लीलाओं पर सहस्र पद भरे पड़े हैं। राधाकृष्ण के प्रेम के प्रादुर्भाव की कैसी स्वाभाविक परिस्थितियों का चित्रण हुआ है यही देखिए-

( क ) करि ल्यो न्यारी, हरि आपनि गैयाँ ।

नहिं न बसात लाल कछु तुमसों सबै ग्वाल इक ठैंया ।

( ख ) धेनु दुहत अति ही रति बाढी ।

एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहं प्यारी ठाढी ।।

मोहन कर तें धार चलति पय मोहनि-मुख अति ही छबि बाढ़ी ।

श्रृगार के अंतर्गत भावपक्ष और विभावपक्ष दोनों के अत्यंत विस्तृत और अनूठे वर्णन इस सागर के भीतर लहरे मार रहे हैं । राधाकृष्ण के रूप-वर्णन में ही सैकड़ो पद कहे गए है जिनमे उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा आदि की प्रचुरता है । आँख पर ही न जाने कितनी उक्तियाँ हैं; जैसे-

देखि री ! हरि के चंचल नैन ।

खंजन मीन मृगज चपलाई, नहिं पटतर एक सैन ॥

राजिवदल, इंदीवर, शतदल, कमल कुशेशय जाति ।

निसि मुद्रित-प्रातहि वै बिगसत, ये बिगने दिन राति ॥

अरुन असित सित झलक पलक प्रति, को बरनै उपमाय ।

मानो सरस्वति गंग जमुन मिलि आगम कीन्हों आय ॥

नेत्रों के पति उपालभ भी कही-कही बड़े मनोहर है--[ १७१ ]

मेरे नैना बिरह की बेल बई।
सींचत नैन-नीर के सजनी! मूल पतार गई।
बिगसति लता सुभाय आपने छाया सघन भई।
अब कैसे निरुवारौं, सजनी! सब तन पसरि छई।

आँख तो आँख, कृष्ण की मुरली तक में प्रेम के प्रभाव से गोपियों को ऐसी सजीवता दिखाई पड़ती है कि वे अपनी सारी प्रगल्भता उसे कोसने में खर्च कर देती हैं––

मुरली तऊ गोपालहिं भवति।
सुन री सखी! जदपि नँदनंदहिं नानी भाँति नचावति॥
राखति एक पायँ ठाढें करि, अति अधिकार जनावति।
आपुनि पीढ़ि अधर-सज्जा पर करपल्लव सौं पद पलुटावतिं।
भ्रकुटी कुटिल कोप नासापुट हम पर कोपि कँपावति॥

कालिंदी के कूल पर शरत् की चाँदनी में होने वाले रास की शोभा का क्या कहना है, जिसे देखने के लिये सारे देवता आकर इकट्ठे हो जाते थे। सूर ने एक न्यारे प्रेमलोक की आंनद-छटा अपने बंद नेत्रों से देखी है। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों का जो विरहसागर उमड़ा है उसमें मग्न होने पर तो पाठको को वार-पार नही मिलता। वियोग की जितने प्रकार की दशाएँ हो सकती हैं सबका समावेश उसके भीतर है। कभी तो गोपियों को संध्या होने पर यह स्मरण आता है––

एहि-बेरियाँ बन ते चलि आवते।
दूरहिं तें वह बेनु अधर धरि बार बार बजावते॥

कभी वे अपने उजड़े हुए नीरस जीवन के मेल में न होने के कारण वृंदावन के हरे-भरे पेड़ों को कोसती हैं––

मधुबन! तुम कत रहते हरे?
बिरह-बियोग श्यामसुंदर के ठाढे क्यों न जरे?
तुम हौ निलज, लाज नहिं तुमको, फिर सिर पुहुप धरे॥

[ १७२ ]

ससा स्यार औ वन के पखेरू धिक थिक सबन करे॥
कौन काज ठाढ़े रहे बन में, काहे न उकठि परे।।?

परंपरा से चले आते हुए चंद्रोपालंभ आदि सब विषयों का विधान सूर के वियोग-वर्णन के भीतर है, कोई बात छूटी नहीं है।

सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना। प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते। बाललीला और प्रेमलीला दोनों के अंतर्गत कुछ दूर तक चलनेवाले न जाने कितने छोटे छोटे मनोरंजक वृत्तो की कल्पना सूर ने की है। जीवन के एक क्षेत्र के भीतर कथा-वस्तु की यह रमणीय कल्पना ध्यान देने योग्य है।

राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर कृष्णभक्ति की जो काव्यधारा चली उसमें लीलापक्ष अर्थात् बाह्यार्थ-विधान की प्रधानता रही है। उसमें केलि, विलास, रास, छोड़छाड़, मिलन की युक्तियों आदि बाहरी बातों का ही विशेष वर्णन है। प्रेमलीन हृदय की नाना अनुभूतियों की व्यंजना कम है। वियोग-वर्णन में कुछ संचारियों का समावेश मिलता है, पर वे रूढ़ और परंपरागत हैं, उनमें नूतन उद्भावना बहुत थोड़ी पाई जाती है। भ्रमरगीत के अंतर्गत अलबत सूर ने आभ्यतर पक्ष का भी विस्तृत उद्धाटन किया है। प्रेमदशा के भीतर की न जाने कितनी मनोवृत्तियों की व्यंजना गोपियों के वचनों द्वारा होती है।।

सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश 'भ्रमरगीत' है। जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभकाव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्धव तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योग-कथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं। उद्धव के बहुत बकने पर वे कहती हैं––

ऊधो! तुम अपनो जतन करौ।
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररो?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहत हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी॥

[ १७३ ]इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बडे ही मार्मिक ढंग से––हृदय की अनुभूति के अधार पर, तर्क-पद्धति पर नहीं––किया है। सगुण-निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं जिससे संवाद में बहुत रोचकता आ गई है। भागवत में यह प्रसंग नहीं है। सूर के समय में निर्गुण संत संप्रदाय की बातें जोर शोर से चल रही थीं। इसी से उपयुक्त स्थल देखकर सूर ने इस प्रसंग का समावेश कर दिया। जब उद्धव बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं, तब गोपियाँ बीच में रोककर इस प्रकार पूछती हैं––

निर्गुन कौन देस को बासी?
मधुकर हँसि समुझाय; सौंह दै बूझति साँच, न हाँसी

और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुण सत्ता का निषेध करके तू क्यो व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है।

सुनिहै कथा कौन निर्गुन की, रचि पचि बात बनावत।
सगुन-सुमेरु प्रगट देखियत, तुम तृन की ओट दुरावत॥

उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई संबंध हो सकता है, यह तो बताओ––

रेख न रूप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत।
अपनी कहौं, दरस ऐसे को तुम कबहूँ हौ पावत?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत?
नैन बिसाल, भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत?
तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धरि, पीतांबर तेहि सोहत?
सूर श्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउँ मोहत?

अंत में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुणों में ही अधिक रस जान पड़ता है––

ऊनो कर्म कियो मातुल बधि, मदिरा मत्त प्रमाद।
सुर स्याम एते अवगुन में निर्गुन तें अति स्वाद॥

[ १७४ ](२) नंददास––ये सूरदासजी के प्रायः समकालीन थे और इनकी गणना अष्टछाप में है। इनका कविता-काल सूरदासजी की मृत्यु के पीछे संवत् १६२५ या उसके और आगे तक माना जा सकता है। इनका जीवन-वृत्त पूरा पूरा और ठीक ठीक नहीं मिलता। नाभाजी के भक्तमाल में इनपर जो छप्पय है उसमे जीवन के संबंध में इतना ही है।

चंद्रहास-अग्रज सुहृद परम-प्रेम-पथ में पगे।

इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चंद्रहास था। इनके गोलोकवास के बहुत दिनों पीछे गोस्वामी विठ्ठलनाथजी के पुत्र गोकुलनाथजी के नाम से जो "दो सौ बावन वैष्णवो की वार्ता" लिखी गई उसमें इनका थोड़ा-सा वृत्त दिया गया है। उक्त वार्ता में नंददासजी तुलसीदासजी के भाई कहे गए हैं। गोकुलनाथजी का अभिप्राय प्रसिद्ध गोस्वामी तुलसीदासजी से ही है, यह पूरी वार्ता पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है‌। उसमें स्पष्ट लिखा है कि नंददासजी का कृष्णोपासक होना राम के अनन्य भक्त उनके भाई तुलसीदासजी को अच्छा नही लगा और उन्होंने उलाहना लिखकर भेजा। यह वाक्य भी उसमें आया है–– "सो एक दिन नंददासजी के मन में ऐसा आई। जैसे तुलसीदासजी ने रामायण भाषा करी है सो हम हूँ श्रीमद्भागवत भाषा करें।" गोस्वामीजी का नंददास के साथ वृंदावन जाना और वहाँ "तुलसी मस्तक तब नवै धनुषवान लेव हाथ" वाली घटना भी उक्त वार्ता में ही लिखी है। पर गोस्वामीजी का नंददासजी से कोई संबंध न था, यह बात पूर्णतया सिद्ध हो चुकी है। अतः उक्त वार्ता की बातों को, जो वास्तव में भक्तों का गौरव प्रचलित करने और वल्लभाचार्यजी की गद्दी की महिमा प्रकट करने के लिये पीछे से लिखी गई है, प्रमाण-कोटि में नहीं ले सकते है।

उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददासजी सिंधुनंद ग्राम में एक-रूपवती खत्रानी पर असक्त हो गए। ये उस स्त्री के घर के चारों ओर चक्कर लगाया करते थे। घरवाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिये गोकुल चले गए। वहाँ भी ये जा पहुँचे। अंत में वही पर गोसाईं विठ्ठलनाथजी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गए। इस कथा में [ १७५ ]ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होने गोसाईं विट्ठलनाथजी से दीक्षा ली। ध्रुवदासजी ने भी अपनी 'भक्त-नामावली' में इनकी भक्ति की प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा है।

अष्टछाप में सूरदासजी के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है। इनके संबंध में यह कहावत प्रसिद्ध है, कि "और कवि गढ़िया, नंददास जडिया"। इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक 'रास-पंचाध्यायी' है जो रोला छंदों में लिखी गई है। इसमे, जैसा कि नाम से ही प्रकट है, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादि-युक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सूर ने स्वाभाविक चलती भाषा का ही अधिक आश्रय लिया है, अनुप्रास और चुने हुए संस्कृत पदविन्यास आदि की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई है, पर नंददासजी में ये बातें पूर्ण रूप में पाई जाती हैं। "रास-पंचाध्यायी" के अतिरिक्त इन्होंने ये पुस्तके लिखी है––

भागवत दशमस्कंध, रुक्मिणी मंगल, सिद्धांत-पंचाध्यायी, रूपमंजरी, रस-मंजरी, मानमंजरी, विरह-मंजरी, नामचिंतामणिमाला, अनेकार्थनाममाला (कोश) ज्ञानमंजरी, दानलीला, मानलीला, अनेकार्थमंजरी श्यामसगाई, भ्रमरगीत और सुदामाचरित। दो ग्रंथ इनके लिखे और कहे जाते हैं––हितोपदेश और नासिकेतपुराण (गद्य में)। दो सौ से ऊपर इनके फुटकल पद भी मिले हैं। जहाँ तक ज्ञात है, इनकी चार पुस्तके ही अब तक प्रकाशित हुई हैं––रासपंचाध्यायी, भ्रमरगीत, अनेकार्थमंजरी, और अनेकार्थनासमाला। इनमें रासपंचाध्यायी और भ्रमरगीत ही प्रसिद्ध है, अतः उनसे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते है––

(रास-पंचाध्यायी से)

ताहौ छिन उडुराज उदित रस-रास-सहायक। कुंकुम-मंडित-बदन प्रिया जनु नागरि-नायक॥
कोमल किरन अरुन मानों बन व्यापि रही यों। मनसिज खेल्यो फाग घुमडि घुरि रह्यो गुलाल ज्यों॥
फटिक-छटा सी किरन कुंज-रंध्रन जब आई। मानहुँ वितत बिनान सुदेस तनाव तनाई॥
तब लीनो कर कमल योगमाया सी मुरली। अघटित-घटना-चतुर बहुरि अधरन सुर जुरली॥

[ १७६ ]

वर उर उरज करज विच अंकित, बाहु जुगल वलयावलि फूटी।
कंचुकि चीर विविध रंग रंजित, गिरधर-अधर-माधुरी घूँटी॥
आलस-बलित नैन अनियारे, अरुन उनींदे रजनी खूटी।
परमानंद प्रभु सुरति समय रस मदन नृपति की सैना लूटी॥

(५) कुंभनदास––ये भी अष्टछाप के एक कवि थे और परमानंददासजी के ही समकालीन थे। ये पूरे विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतहपुर सिकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा संमान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इस पद से व्यंजित होता है––

संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पुनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि-नाम॥
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।
कुम्भनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम॥

इनका कोई ग्रंथ न तो प्रसिद्ध है और न अब तक मिला है। फुटकल पद अवश्य मिलते हैं। विषय वही कृष्ण की बाललीला और प्रेमलीला है––

तुम नीके दुहि जानत गैया।
चलिए कुँवर रसिक मनमोहन लगौं तिहारे पैयाँ॥
तुमहिं जानि करि कनक-दोहनी घर तें पठई मैया।
निकटहि है यह खरिक हमारो, नागर लेहुँ बलैया॥
देखियत परम सुदेस लरिकई चित चहुँट्यों सुँदरैया।
कुंभनदास प्रभु मानि लई रति गिरि-गोबरधन-रैया॥

(६) चतुर्भुजदास––ये कुंभनदासजी के पुत्र और गोसाईं विठ्ठलनाथजी के शिष्य थे। ये भी अष्टछाप के कवियों में है। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है। इनके बनाए तीन ग्रंथ मिले हैं––द्वादशयश, भक्ति-प्रताप तथा हितजू को मंगल।

इनके अतिरिक्त फुटकल पदों के संग्रह भी इधर-उधर पाए जाते है। एक पद नीचे दिया जाता है–– [ १७७ ]

जसोदा! कहा कहौं हौं बात?
तुम्हरे सुत के करतब मो पै कहत कहे नहिं जात॥
भाजन फोरि, ढारि सब गोरस, लै माखन दधि खात।
जौ बरजौं तौ आंखि दिखावै, रचहू नाहिं सकात॥
और अटपटी कहँ लौं बरनौ, छुवत पानि सों गात।
दास चतुर्भुज गिरिधर गुन हौं कहति कहति सकुचात॥

(७) छीतस्वामी––विट्ठलनाथजी के शिष्य और अष्टछाप के अंतर्गत थे। पहले ये मथुरा के एक सुसंपन्न पंडा थे और राजा बीरबल ऐसे लोग इनके यजमान थे। पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथजी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्रीकृष्ण का गुणानुवाद करने लगे। इनकी रचनाओं का समय संवत् १६१२ के इधर मान सकते हैं। इनके फुटकुल पद ही लोगों के मुँह से सुने जाते है या इधर उधर संगृहीत मिलते हैं। इनके पदों में शृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेम-व्यंजना भी अच्छी पाई जाती है। 'हे विधना तो सों अँचरा पसारि माँगौं जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो' पद इन्हीं का है। अष्टछाप के और कवियों की सी मधुरता और सरसता इनके पदों में भी पाई जाती है; देखिए––

भोर भए नवकुंज-सदन तें, आवत लाल गोबर्द्धनधारी।
लट पर पाग मरगजी माला, सिथिल अंग डगमग गति न्यारी॥
बिनु-गुन माल बिराजति उर पर, नखछत द्वैजचंद अनुहारी।
छीतस्वामि जब चितए सो तन, तब हौं निरखि गई बलिहारी॥

(८) गोविंदस्वामी––ये अंतरी के रहनेवाले सनाढ्य ब्राह्मण थे जो विरक्त की भाँति आकर महावन में रहने लगे थे। पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथजी के शिष्य हुए जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें अष्टछाप में लिया। ये गोवर्द्धन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक "गोविंदस्वामी की कदंब-खंडी" कहलाता है। इनका रचना-काल संवत् १६०० और १६२५ के भीतर ही माना जा सकता है। ये कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैए भी थे। तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिये आया करते थे। इनका बनाया एक पद दिया जाता है–– [ १७८ ]

( भ्रमरगीत से )
कहन स्याम-संदेस एक मैं तुम पै आयो । कहन समय संकेत कहूँ अवसर नहिं पायो ॥
सोचत ही मन में रह्यो, कब पाऊँ इक ठाउँ । कहि सँदेस नँदलाल को, बहुरी मधुपुरी जाउँ ॥

सुनौ ब्रजनागरी ।


जौ उनके गुन होय, वेद क्यों नैति बखानै । गिरगुन सगुने आतमा-रुचि ऊपर सुख सानै ॥
वेद पुराननि खोजि कै पायो कतहुँ न एक । गुन ही के गुन होहि तुम, कहौ अकासहि टेक ॥

सुनौ ब्रजनागरी ।


जौ उनके गुन नाहिं और गुन भए कहाँ ते । बीज बिना तरु जमै मोहिं तुम कहौ कहाँ ते ॥
वा गुन की परछाँह री माया दरपन बीच । गुन तें गुन न्यारे भए, अमल वारि जल कीच ॥

सखा सुनु स्याम के ।

( ३ ) कृष्णदास---ये भी वल्लभाचार्यजी के शिष्य और अष्टछाप में थे । यद्यपि ये शूद्र थे पर आचार्यजी के बड़े कृपापात्र थे और मंदिर के प्रधान मुखिया हो गए थे। "चौरासी वैष्णवो की वार्ता" में इनका कुछ वृत्त दिया हुआ है। एक बार गोसाईं विट्ठलनाथ जी से किसी बात पर अप्रसन्न होकर इन्होंने उनकी ड्योढी बंद कर दी। इस पर गोसाई विठ्ठलनाथजी के कृपापात्र महाराज बीरबल ने इन्हें कैद कर लिया। पीछे गोसाईं जी इस बात से बड़े दुखी हुए और इनको कारागार से मुक्त कराके प्रधान के पद पर फिर ज्यों का त्यों प्रतिष्ठित कर दिया। इन्होंने भी और सब कृष्णभक्तों के समान राधा-कृष्ण के प्रेम को लेकर श्रृंगार-रस के ही पद गाए है । जुगलमान-चरित्र नामक इनका एक छोटा सा ग्रंथ मिलता है । इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं--भ्रमरगीत और प्रेमतत्त्व-निरूपण । फुटकल पदों के संग्रह इधर उधर मिलते हैं। सूरदास और नंददास के सामने इनकी कविता साधारण कोटि की हैं । इनके कुछ पद नीचे दिए जाते हैं---

तरनि-तनया-तट आवत है प्रात समय,

कंदुक खेलत देख्यो आनंद को कँदवा ॥

नूपुर पद कुनित, पीतांबर कुटि बाँधे,

लाल उपरना, सिर मोरन के चँदवा ॥

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[ १७९ ]

कंचन मनि मरकत रस ओपी ।
नंदसुवन के संगम सुखकर अधिक विराजति गोपी ॥
मनहुँ विधाता गिरिधर पिय हित सुरत-धुजा सुख रोपी ।
बदन कांति कै सुनु री भामिनी ! सबन चंद-श्री लोपी ॥
प्राननाथ के चित चोरन को भौंह भुजंगम कोपी ।
कृष्णदास स्वामी बस कीन्हे, प्रेमपुंज की चोपी ॥

————

मो मन गिरिधर-छवि पै अटक्यो ।
ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारु गडि ठटक्यो ॥
सजल स्याम-घन-बरन लीन ह्वै, फिरि चित अनत न भटक्यो ।
कृष्णदास किए प्रान निछावर, यह तन जग-सिर पटक्यो ॥

कहते हैं कि इसी अंतिम पद को गाकर कृष्णदासजी ने शरीर छोड़ा था । इनका कविता-काल संवत् १६०० के आगे पीछे माना जा सकता है ।

( ४ ) परमानंददास---ये भी वल्लभाचार्य्यजी के शिष्य और अष्टछाप में थे । ये संवत् १६०६ के आसपास वर्त्तमान थे । इनका निवासस्थान कन्नौज था । इसी से ये कान्यकुब्ज अनुमान किए जाते है । ये अत्यंत तन्मयता के साथ बड़ी ही सरस कविता करते थे । कहते हैं, कि इनके किसी एक पद को सुनकर आचार्य्यजी कई दिनों तक तन बदन की सुध भूले रहे हैं इनके फुटकल पद कृष्णभक्तों के मुंह से प्रायः सुनने में आते हैं। इनके ८३५ पद ‘परमानंद-सागर' में हैं । दो पद देखिए---

कहा करौं बैकुंठहि जाय ?

जहँ नहि नंद, जहां न जसोदा, नहिं जहँ गोपी ग्वाल न गाय ।
जई नहिं जल जमुना को निर्मल और नहीं कदमन की छायँ ।
परमानंद प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तजि मेरी जाय बलाय ॥

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राधे जू हारावलि टूटी ।

उरज कमलदल माल मरगजी, बाम कपोल अलक लट छूटी ॥

[ १८० ]

प्रात समय उठि जसुमति जननी गिरिधर सुत को उबटि न्हवावत
करि सिंगार बसन भूषन सजि फूलन रचि रचि पाग बनावति ।।
छुटे बंद बागे अति सोभित, बिच बिच चोव अरगजा लावति ।
सूथन लाल फूंदना सोभित, आजु कि छबि कहु कहति न आवति ।।
विविध कुसुम की माला उर धरि श्री कर मुरली बेंत गहावति ।
लै दरपन देखे श्रीमुख को, गोविंद प्रभु चरननि सिर नावति ।।

( ९ ) हितहरिवंश---राधावल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक गोसाई हितहरिवंश का जन्म संवत् १५५६ मे मथुरा से ४ मील दक्षिण बादगाँव में हुआ था । राधावल्लभी संप्रदाय के पंडित गोपालप्रसाद शर्मा ने जन्म संवत् १५३० माना है, जो सब घटनाओं पर विचार करने से ठीक नहीं जान पड़ता । ओरछा-नरेश महाराज मधुकरशाह के राजगुरु श्रीहरिराम व्यासजी संवत् १६२२ के लगभग आपके शिष्य हुए थे । हितहरिवंशजी गौड़ ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम केशवदास मिश्र और माता का नाम तारावती था।

कहते हैं हितहरिवंशजी पहले माध्वानुयायी गोपालभट्ट के शिष्य थे । पीछे इन्हें स्वप्न में राधिकाजी ने मंत्र दिया और इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया । अतः हित संप्रदाय को माध्व संप्रदाय के अंतर्गत मान सकते है । हितहरिवंशजी के चार पुत्र और एक कन्या हुई । पुत्रों के नाम वनचंद्र, कृष्ण-चद्र, गोपीनाथ और मोहनलाल थे । गोसाईजी ने संवत् १५८२ में श्री राधाबल्लभजी की मूर्ति वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे । ये संस्कृत के अच्छे विद्वान् और भाषा-काव्य के अच्छे मर्मज्ञ थे । १७० श्लोकों का "राधासुधानिधि" आप ही का रचा कहा जाता है । ब्रजभाषा की रचना आपकी यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है, पर है बड़ी सरस और हृदयग्राहिणी । आपके पदों का संग्रह "हित चौरासी" के नाम से प्रसिद्ध है क्योकि उसमे ८४ पद हैं । प्रेमदास की लिखी इस ग्रंथ की एक बहुत बड़ी टीका (५०० पृष्ठों की) ब्रजभाषा गद्य में है ।

इनके द्वारा ब्रजभाषा की काव्यश्री के प्रसार में बड़ी सहायता पहुँची है । इनके कई शिष्य अच्छे-अच्छे कवि हुए है। हरिराम व्यास ने इनके गोलोकवास पर बड़े चुभते पद कहे है । सेवकजी, ध्रुवदास आदि इनके शिष्य बड़ी सुंदर [ १८१ ]
रचना कर गए हैं। अपनी रचना की मधुरता के कारण हितहरिवंशजी श्रीकृष्ण की वंशी के अवतार कहे जाते हैं । इनका रचना-काल संवत् १६०० से संवत् १६४० तक माना जा सकता है । 'हित चौरासी' के अतिरिक्त इनकी फुटकल बानी भी मिलती है जिसमें सिद्धांत-संबंधी पद्य है। इनके 'हित चौरासी' पर लोकनाथ कवि ने एक टीका लिखी है । वृंदावनदास ने इनकी स्तुति और वंदना में 'हितजी की सहस्रनामावली' और चतुर्भुजदास ने 'हितजू को मंगल' लिखा है । इसी प्रकार हित परमानंदजी और ब्रजजीवनदास ने इनकी जन्म बधाइयाँ लिखी है । हितहरिवंश जी की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है जिनसे इनकी वर्णन-प्रचुरता का परिचय मिलेगा---

( सिद्धांत-संबंधी कुछ फुटकल पदों से )
रहो कोउ काहू मनहिं दिए ।
मेरे प्राननाथ श्री स्यामा सपथ करौं तिन छिए ॥
जो अवतार-कदंब भजत हैं धरि दृढ़ ब्रत जु हिए ।
तेऊ उमगि तजत मर्यादा बन बिहार रस पिए ॥
खोए रतन फिरत जो घर घर कौन काज इमि जिए ?
हितहरिबंस अनत सच नाहीं बिन या रसहि पिए ॥
              ( हित-चौरासी से )
ब्रज नव तरुनि कदंब मुकुटमनि स्यामा आजु बनी ।
नख सिख लौं अँग अँग - माधुरी मोहे श्याम धनी ॥
यों राजति कबरी गूथित कच कनक कज-बदनी ।
चिकुर चंद्रिकन बीच अधर बिधु मानौ - ग्रसित फनी ॥
सौभग रस सिर स्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी ।
भ्रुकुटि काम-कोदंड, नैन शर, कज्ज्ल-रेख अनी ॥
भाल तिलक, ताटक गंड पर, नासा जलज मनी ।
दसन, कुंद, सरसाधर पल्लव, पीतम-मन-समनी ॥
हितहरिबंस प्रसंसित स्यामा कीरति बिसद घनी ।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर विश्व-दुरित-दवनी ॥
————

[ १८२ ]

विपिन धन कुंज रति केलि भुज मेलि रुचि

स्याम स्यामा मिले सरद की जामिनी ।

हृदय अति फूल, रसमूल पिय नागरी

कर निकर मस्त मनु विविध गुत रागिनी ॥

सरस गति हास परिहास आवेस बस

दलित दल मदन बल कोक रस जामिनी ।

हितहरिबंस सुनि लाल लावन्य भिदे

प्रिया अति सूर सुख-सुरत संग्रामिनी ॥

( १० ) गदाधर भट्ट---ये दक्षिणी ब्राह्मण थे । इनके जन्म-संवत् आदि का ठीक-ठीक पता नहीं । पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे। इनका समर्थन भक्तमाल की इन पंक्तियों से भी होता है---

भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहिंन दुखद ।
गुणनिकर गदाधर भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद ॥

श्री चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव संवत् १५४२ में और गोलोकवास १५८४ में माना जाता है । अतः संवत् १५८४ के भीतर ही आपने श्री महाप्रभु से दीक्षा ली होगी । महाप्रभु के जिन छः विद्वान् शिष्यों ने गौडीय संप्रदाय के मूल संस्कृत ग्रंथों की रचना की थी उनमे जीव गोस्वामी भी थे । वे वृंदावन में रहते थे । एक दिन दो साधुओं ने जीव गोस्वामी के सामने गदाधर भट्टजी का यह पद सुनाया---

सखी हौं स्याम रंग रँगी ।
देखि बिकाय गई वह मूरति, सूरत माहिं पगी ॥
संग हुतो अपनो सपनो सो सोइ रहो रस खोई ।
जागेहु आगे दृष्टि परै, सखि, नेकु न न्यारो होई ॥
एक जु मेरी अँखियनि में निसि द्यौस रह्यो करि भौन ।
गाय चरावन जात सुन्यो, सखि, सो धौं कन्हैया कौन ?
कासों कहौं कौन पतियावै कौन करे बकवाद ?
कैसे कै कहि जात गदाधर, गूँगे तें गुर-स्वाद ?

[ १८३ ]इस पद को सुन जीव गोस्वामी ने भट्टजी के पास यह श्लोक लिख भेजा।

अनाराध्य राधापदाम्भोजयुग्ममनाश्रित्य वृंदाटवीं तत्पदाङ्कम्।
असम्भाष्य तद्भावगम्भीरचितान् कुतःश्यामसिन्धोःरसस्यावगाहः॥

यह श्लोक पढ़कर भट्टजी मूर्च्छित हो गए। फिर सुध आने पर सीधे वृंदावन में जाकर चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हुए। इस वृत्तांत को यदि ठीक माने तो इनकी रचनाओं का आरंभ १५८० से मानना पड़ता है और अंत संवत् १६०० के पीछे। इस हिसाब से इनकी रचना का प्रादुर्भाव सूरदासजी के रचनाकाल के साथ साथ अथवा उससे भी कुछ पहले से मानना होगा।

संस्कृत के चूडांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था। इनका पद-विन्यास बहुत ही सुंदर है। गोस्वामी तुलसीदासजी के समान इन्होंने संस्कृत पदों के अतिरिक्त संस्कृत-गर्भित भाषा-कविता भी की है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं––

जयति श्रीराधिके, सकल-सुख-साधके,
तरुनि-मनि नित्य नवतन किसोरी।
कृष्णतन-लीन-मन, रूप की चातकी,
कृष्ण-मुख हिम-किरन की चकोरी॥
कृष्ण-दृग-भृंग विश्राम हित पद्मनी,
कृष्ण-दृग-मृगज-बंधन सुडोरी।
कृष्ण-अनुराग-मकरंद की मधुकरी,
कृष्ण-गुण-गान-रससिंधु बोरी॥
विमुख पर चित्त तें चित्त जाको सदा,
करति निज नाह की चित्त चोरी।
प्रकृति यह गदाधर कहत कैसे बनै,
अमित महिमा, इतै बुद्धि थोरी॥


झूलति नागरि नागर लाल।
मंद मंद सब सखीं झुलावति, गावति गीत रसाल॥

[ १८४ ]

फरहरात पट पीत नील के, अंचल चंचल चाल।
मनहूँ परस्पर उमगि ध्यान छवि प्रकट भई तिहि काल॥
सिलसिलात अति प्रिया सीस तें, लटकति बेनी भाल।
जन प्रिय-मुकुट-बरहि-भ्रम तहँ व्याल विकल विहाल॥
मल्लीमाल प्रिया के उर की, पिय तुलसीदल माल।
जनु सुरसरि रवितनया मिलिकै सोभित श्रेनि-मराल॥
स्यामल गौर परस्पर प्रति छवि, सोभा बिसद विशाल।
निरखि गदाधर रसिककुँवरि-मन पर्यों सुरस-जंजाल॥


(११) मीराबाई––ये मेड़तिया के राठौर रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसाने वाले प्रसिद्ध राव जोधाजी की प्रपौत्री थीं। इनका जन्म संवत् १५७३ में चोकडी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के महाराणा-कुमार भोजराजजी के साथ हुआ था। ये आरंभ ही से कृष्णभक्ति में लीन रहा करती थीं। विवाह के उपरांत थोड़े दिनों में इनके पति-का परलोकवास हो गया। ये प्रायः मंदिर में जाकर उपस्थित भक्तों और संतों के बीच श्रीकृष्ण भगवान् की मूर्त्ति के सामने आनंद-मग्न होकर नाचती और गाती थीं। कहते हैं कि इनके इस राजकुल-विरुद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रुष्ट रहा करते थे। यहाँ तक कहा जाता है कि इन्हें कई बार विष देने का प्रयत्न किया गया, पर भगवत्कृपा से विष का कोई प्रभाव इनपर न हुआ। घरवालों के व्यवहार से खिन्न होकर ये द्वारका और वृंदावन के मंदिरों में घूम घूमकर भजन सुनाया करती थीं। जहाँ जातीं वहाँ इनका देवियों का सा समान होता। ऐसा प्रसिद्ध है कि घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी को यह पद लिखकर भेजा था––

स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषन दूषन-हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहुं, अब हरहु सोक-समुदाई॥
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु-संग अरु भजन करत मोहिं देत कलेस महाई॥
मेरे मात-पिता के सम हौ, हरिभक्तह्न सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सौ लिखिए समझाई॥

[ १८५ ]इसपर गोस्वामीजी ने विनयपत्रिका का यह पद लिखकर भेजा था––

जाके प्रिय न राम वैदेही।
सो नर तजिय कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही॥
नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ-लौं।
अंजन कहा आँखि जौ फूटै, बहुतक कहाँ कहाँ लौं।

पर मीराबाई की मृत्यु द्वारका में संवत् १६०३ में हो चुकी थी। अतः यह जनश्रुति किसी की कल्पना के आधार पर चल पड़ी।

मीराबाई की उपासना 'माधुर्य' भाव की थी अर्थात् वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थीं। पहले यह कहा जा चुका है कि इस भाव की उपासना में रहस्य का समावेश अनिवार्य है[३]। इसी ढंग की उपासना का प्रचार सूफी भी कर रहे थे अतः उनका संस्कार भी इन पर अवश्य कुछ पड़ा। जब लोग इन्हें खुले मैदान मंदिरों में पुरुषों के सामने जाने से मना करते तब ये कहतीं कि 'कृष्ण के अतिरिक्त और पुरुष है कौन जिसके सामने मैं लज्जा करूँ?' मीराबाई का नाम भारत के प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभाजी, ध्रुवदास, व्यासजी, मलूकदास आदि सब भक्तों ने किया है। इनके पद कुछ तो राजस्थानी मिश्रित भाषा में हैं और कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में। पर सब में प्रेम की तल्लीनता समान रूप से पाई जाती है। इनके बनाए चार ग्रंथ कहे जाते हैं––नरसीजी का मायरा, गीत-गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद।

इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं––

बसो मेरे नैनन में नँदलाल।
मोहनि मूरति, साँवरि सूरति, नैना बने रसाल॥
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुन तिलक दिए भाल॥
अधर सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल॥
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई भक्तबछल गोपाल॥


[ १८६ ]

मन रे परसि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल-कोमल विविध-ज्वाला-हरन॥
जो चरन प्रहलाद परसे इंद्र-पदवी-हरन।
जिन वरल ध्रुव अटल कीन्हों राखि अपनी सरन॥
जिन चरन ब्रह्मांड भेंट्यों नखसिखौ श्री भरन।
जिन चरन प्रभु परस लीन्हें तरी गौतम-घरनि॥
जिन चरन धारयों गोवरधन गरब-मधवा-हरन।
दासि मीरा लाल गिरधर अगम तारन तरन॥

(१२) स्वामी हरिदास––ये महात्मा वृंदावन में निंबार्कमतांतर्गत टट्टी संप्रदाय के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिद्ध भक्त और संगीत-कला-कोविंद माने जाते थे। कविता-काल १६०० से १६१७ ठहरता है। प्रसिद्ध गायनाचार्य तानसेन इनका गुरुवत् संमानकरते थे। यह प्रसिद्ध है, कि अकबर बादशाह साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गाना सुनने के लिये गया था। कहते है कि तानसेन इनके सामने गाने लगे और उन्होंने जान-बूझकर गाने में कुछ भूल कर दी। इस पर स्वामी हरिदास ने उसी गान को शुद्ध करके गाया। इस युक्ति से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चाही पर इन्होने स्वीकृत न की। इनका जन्म-संवत् आदि कुछ ज्ञात नहीं, पर इतना निश्चित है कि ये सनाढ्य ब्राह्मण थे जैसा कि सहचरिसरनदासजी ने, जो इनकी शिष्यपरंपरा में थे, लिखा है। वृंदावन से उठकर स्वामी हरिदास जी कुछ दिन निधुवन में रहे थे। इनके पद कठिन राग-रागिनियों में गाने योग्य है, पढ़ने में कुछ कुछ उबड़-खाबड लगते है। पद-विन्यास भी और कवियों के समान सर्वत्र मधुर और कोमल नहीं है, पर भाव उत्कृष्ट हैं। इनके पदों के तीन-चार संग्रह 'हरिदासजी के ग्रंथ', 'स्वामी हरिदासजी के पद', 'हरिदासजी की बानी' आदि नामों से मिलते है। एक पद देखिए––

ज्योंही ज्योंही तुम राखत हौं, त्योंही त्योंही रहियत हौं, हे हरि!
और अपरचै पाय धरौं सुतौं कहौं कौन के पैंड भरि॥

[ १८७ ]

जदपि हौं अपनो भायो किया चाहौं, कैसे कर सकौं जो तुम राखौ पकरि।
कहै इरिदास पिंजरा के जनावर लौं तरफाय रह्यो उडिंबे को कितोऊ करि॥

(१३) सूरदास मदनमोहन––ये अकबर के समय में सँडीले के अमीन थे। जाति के ब्राह्मण और गौड़ीय संप्रदाय के वैष्णव थे। ये जो कुछ पास में आता प्रायः सब साधुओं की सेवा में लगा दिया करते थे। कहते हैं कि एक बार सँडीले तहसील की मालगुजारी के कई लाख रुपए सरकारी खजाने में आए थे। इन्होंने सबका सब साधुओं को खिला पिला दिया और शाही खजाने में कंकड़ पत्थरों से भरे संदूक भेज दिए जिनके भीतर कागज के चिट यह लिखकर रख दिए––

तेरह लाख सँडीले आए, सब साधुन मिलि गटके।
सूरदास मदनमोहन आधि रातहिं सटके॥

और आधी रात को उठकर कहीं भाग गए। बादशाह ने इनका अपराध क्षमा करके इन्हें फिर बुलाया, पर ये विरक्त होकर वृंदावन में रहने लगे। इनकी कविता इतनी सरस होती थी कि इनके बनाए बहुत से पद सूरसागर में मिल गए। इनकी कोई पुस्तक प्रसिद्ध नहीं। कुछ फुटकल पद लोग के पास मिलते हैं। इनका रचनाकाल संवत् १५९० और १६०० के बीच अनुमान किया जाता हैं इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं––

मधु के मतवारे स्याम! खोलौं प्यारे पलकैं।
सीस मुकुट लटा छुटी और छुटी अलकैं॥
सुर नर मुनि द्वार ठाढे, दरस हेतु कलकैं।
नासिका के मोती सोहै बीच लाल ललकैं॥
कटि पीताम्बर मुरली कर श्रवन कुंडल झलकैं।
सूरदास मदनमोहन दरस दैहौं भले कै॥


नवल किसोर नवल नागरिया।
अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर, स्याम भुजा अपने उर धरिया॥
करत विनोद तरनि-तनया तट, स्यामा स्याम उमगि रस भरिया।
यौं लपटाइ रहे उर अंतर मरकत मनि कंचन ज्यों जरिया॥

[ १८८ ]

उपमा को घन दामिनि नाहीं, कँदरप कोटि वारने करिया।
सूर मदनमोहन बलि जोरी नँदनंदन वृषभानु दुलरिया॥

(१४) श्री भट्ट––ये निंबार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान् केशव काश्मीरी के प्रधान शिष्य थे। इनका जन्म संवत् १५९५ में अनुमान किया जाता हैं अतः इनका कविता-काल संवत् १६२५, या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। इनकी कविता सीधी-सादी और चलती भाषा में है। पद भी प्रायः छोटे-छोटे हैं। इनकी कृति भी अधिक विस्तृत नहीं है पर 'युगल शतक' नाम का इनका १०० पदो का एक ग्रंथ कृष्णभक्तों में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है 'युगल शतक' के अतिरिक्त इनकी एक और छोटी सी पुस्तक 'आदि बानी' भी मिलती है। ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी कभी उसी पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान् की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी। एक बार वे यह मलार गा रहे थे––

भीजत कब देखौं इन नैना।
स्यामाजू की सुरँग चूनरी, मोहन को उपरैना॥

कहते हैं कि राधाकष्ण इसी रूप में इन्हें दिखाई पड़ गए और इन्होंने पद इस प्रकार पूरा किया––

स्यामा स्याम कुंजतर ठाढें, जतन कियो कछु मैं ना।
श्रीभट उमडिं घटा चहुँ दिसि से घिरि आईं जल-सेना॥

इनके 'युगल शतक' से दो पद उद्धृत किए जाते हैं––

ब्रजभूमि मोहनी मैं जानी।
मोहन कुंज, मोहन वृंदावन, मोहन जमुना-पानी॥
मोहन नारि सकल गोकुल की बोलति अमेरित बानी।
श्रीभट के प्रभु मोहन नागर, मोहनि राधा रानी॥


बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद।
गोर-बदनि वृषभानु-नंदिनी, स्यामबरन नँदनंद॥
गोलक रहे लुभाय रूप में निरखत आनँदकंद।
जय श्रीभट्ट प्रेमरस-बंधन, क्यों छूटै दृढ़ फंद॥

[ १८९ ](१५) व्यासजी––इनका पूरा नाम हरीराम व्यास था और ये ओरछा के रहनेवाले सनाढ्य शुक्ल ब्राह्मण थे। ओरछानरेश मधुकरसाह के ये राजगुरु थे। पहले ये गौड़ संप्रदाय के वैष्णव थे, पीछे हितहरिवंशजी के शिष्य होकर राधावल्लभी हो गए। इनका काल संवत् १६२० के आसपास है। पहले ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे और सदा शास्त्रार्थ करने के लिये तैयार रहते थे। एक बार वृंदावन में जाकर गोस्वामी हितहरिवंशजी को शास्त्रार्थ के लिये

ललकारा। गोसाईंजी ने नम्र भाव से यह पद कहा––

यह जो एक मन बहुत ठौर करि कहि कौने सचु पायो।
जहँ तहँ विपति जार जुवती ज्यों प्रगट पिंगला गायो॥

यह पद सुन व्यासजी चेत गए और हितहरिवंशजी के अनन्य भक्त हो गए। उनकी मृत्यु पर इन्होंने इस प्रकार अपना शोक प्रकट किया––

हुतो रस रसिकन को आधार।
बिन हरिवंसहि सरस रीति को कापै चलिहै भार?
को राधा दुलरावै गावै, वचन सुनावै चार?
वृंदावन की सहज माधुरी, कहि है कौन उदार?
पद-रचना अब कापै ह्वै है? निरस भयो संसार।
बडों अभाग अनन्य सभा को, उठिगो ठाट सिंगार॥
जिन बिन दिन छिन जुग सम बीतत सहज रूप आगार।
व्यास एक कुल-कुमुद-चंद्र बिनु उडुगन जूठी थार॥

जब हितहरिवंश जी से दीक्षा लेकर व्यासजी, वृंदावन में ही रह गए तब महाराज मधुकरसाह इन्हें ओरछा ले जाने के लिये आए, पर ये वृंदावन छोड़कर न गए ओर अधीर होकर इन्होने यह पद कहा––

वृंदावन के रूख हमारे मात पिता सुत बंध।
गुरु गोविंद साधुगति मति सुख, फल फूलन की गंध॥
इनहिं पीठ दै अनत डीठि करै सो अंधन में अंध।
व्यास इनहिं छोंडै़ औ छुड़ावै ताको परियो कंध॥

[ १९० ]इनकी रचना परिमाण में भी बहुत विस्तृत है और विषय-भेद के विचार से भी अधिकांश कृष्णभक्तों की अपेक्षा व्यापक है। ये श्रीकृष्ण की बाललीला और शृंगारलीला में लीन रहने पर भी बीच-बीच में संसार पर भी दृष्टि डाला करते थे। इन्होंने तुलसीदासजी के समान खलों, पाखंडियों आदि का भी स्मरण किया है और, रसगान के अतिरिक्त तत्त्व-निरूपण में भी ये प्रवृत्त हुए हैं। प्रेम को इन्होंने शरीर-व्यवहार से अलग 'अतन' अर्थात् शुद्ध मानसिक या आध्यात्मिक वस्तु कहा है। ज्ञान, वैराग्य और भक्ति तीनों पर बहुत से पद और सखियाँ इनकी मिलती हैं। इन्होंने एक 'रास पंचाध्यायी' भी लिखी है जिसे लोगों ने भूल से सूरसागर में मिला लिया है। इनकी रचना के थोड़े से उदाहरण यहाँ दिए जाते हैं––

आज कछु कुंजन में बरषा सी।
बादल-दल में देखि सखी री! चमकति है चपला सी॥
नान्हीं-नान्हीं बूँदन कछु धुरवा से, पवन बहै सुखरासी।
मंद-मंद गरजनि सी सुनियतु, नाचति मोरसभा सी॥
इंद्रधनुष बगपंगति डोलति, बोलति कोककला सी॥
इंद्रवधू छबि छाइ रही मनु, गिरि पर अरुन-घटा सी।
उमगि महीरुह स्यों महि फूली, भूली मृगमाला सी।
रटति प्यास चातक ज्यों रसना, रस पीवत हू प्यासी॥



सुधर राधिका प्रवीन बीना, बर रासे रच्यो,
स्याम संग वर सुढंग तरनि-तनया तीरे।
आनँदकंद वृंदावन सरद मंद मंद पवन,
कुसुमपुंज तापदवन, धुनित कल कुटीरे॥
रुनित किंकनी सुचारु, नूपुर तिमि बलय हारु,
अँग बर मृदंग ताल तरल रंग भीरे।
गावत अति रग रह्यो, मोपै नहिं जाति कह्यो,
व्यास रसप्रवाह बह्यो निरखि नैन सीरे॥


[ १९१ ]

(साखी) व्यास न कथनी काम की, करनी है इक सार।
भक्ति बिना पंडित वृथा, ज्यों खर चंदन-भार॥
अपने अपने मत लगे, बादि मचावत सोर।
ज्यों त्यों सबको सेइबो एकै नदंकिसोर॥
प्रेम अतन या जगत में, जानै बिरला कोय।
व्यास सतन क्यों परसिहै पचि हार्यो जग रोय॥
सती, सूरमा संत जन, इन समान नहिं और।
अगम पंथ पै पग धरै, डिगे न पावैं ठौर॥

(१६) रसखान––ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे। इन्होंने 'प्रेम-बाटिका' में अपने को शाही खानदान का कहा है––

देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा-बस की, ठसक छाँडिं रसखान॥

संभव है पठान बादशाहों की कुल परंपरा से इनका संबंध रहा हो। ये बडे़ भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलनाथजी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। "दो सौ बावन वैष्णवो की वार्ता" में इनका वृत्तात आया है। उक्त वार्ता के अनुसार ये पहले एक बनिए के लड़के पर आसक्त थे। एक दिन इन्होंने किसी को कहते हुए सुना कि भगवान् से ऐसा प्रेम करना चाहिए जैसे रसखान का उस बनिए के लड़के पर हैं। इस बात से मर्माहत होकर ये श्रीनाथजीको ढूँढ़ते ढूँढ़ते गोकुल आए और वहाँ गोसाई विझलनाथजी से दीक्षा ली। यही आख्यायिका एक दूसरे रूप में भी प्रसिद्ध है। कहते है जिस स्त्री पर ये आसक्त थे वह बहुत मानवती थी और इनका अनादर किया करती थी। एक दिन ये श्रीमद्भागवत का फारसी तर्जुमा पढ़ रहे थे। उसमें गोपियो के अनन्य और अलौकिक प्रेम को पढ़ इन्हे। ध्यान हुआ कि उसी से क्यों न मन लगाया जाय जिसपर इतनी गोपियाँ मरती थीं। इसी बात पर थे वृंदावन चले आए। 'प्रेमवाटिका' के इस दोहे का संकेत लोग इस घटना की ओर बताते है––

तोरि मानिनी तें हियो फोरि भोहिनी मान। प्रेमदेव को छबिहि लखि भए मियाँ रसखान॥

[ १९२ ]वृंदावन-सत, सिंगार-सत, रस-रत्नावली, नेह-मंजरी, रहस्य-मंजरी, सुख-मंजरी, रति-मंजरी, वन-विहार, रंग-विहार, रस-विहार, आनंद-दसा-विनोद, रंग-विनोद, नृत्य-विलास, रंग-हुलास, मान-रस-लीला, रहसलता, प्रेमलता, प्रेमावली, भजन-कुंडलिया, भक्त-नामावली, मन-सिंगार, भजन-सत, प्रीती-चौवनी, रस-मुक्तावली, वामन वृहत्-पुराण की भाषा, सभा-मंडली, रसानंदलीला, सिद्धात-विचार, रस-हीरावली, हित-सिंगार-लीला, ब्रजलीला, आनंद-लता, अनुराग-लता, जीवदशा,

वैद्यलीला, दान-लीला, ब्याहलो।

नाभाजी के भक्तमाल के अनुकरण पर इन्होंने 'भक्तनामावली' लिखी है। जिससे अपने समय तक के भक्तों का उल्लेख किया है। इनकी कई पुस्तकों में संवत् दिए है; जैसे––सभा-मंडली १६८१, वृंदावन-सत १६८६ और रसमंजरी १६९८। अतः इनका रचनाकाल संवत् १६६० से १७०० तक माना जा सकता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते है––

('सिंगार-सत' से)


रूपजल उठत तरंग हैं कटाछन के,
अंग अंग भौरन की अति गहराई है।
नैनन को प्रतिबिंब पन्यो हैं कपोलन में,
तेई भए मीन तहाँ, ऐसो उर आई है॥
अरुन कमल मुसुकान मानो फुबि रही,
थिरकन बेसरि के मोती की सुहाई है।
भयो है मुदित सखी लाल को मराल-मन,
जीवन-जुगल ध्रुव एक ठाँव पाई है॥

('नेहमंजरी' से)


प्रेम बात कछु कहि नहिं जाई। उलटी चाल तहाँ सब भाई॥
प्रेम बात सुनि बौरो होई। तहाँ सयान रहै नहिं कोई॥
तन मन प्रान तिही छिन हारै। भली बुरी कछुवै न विचारै॥
ऐसों प्रेम उपजिहै जनहीं। हित ध्रुव बात बनैगी तबहीं॥

[ १९३ ]

('भजन-सत' से)
बहु बीती योरी रही, सोऊ बीती जाय।
हित ध्रुव बेगि विचारि कै बसि वृंदावन आय॥
वसि वृंदावन आय त्यागि, लाजहि अभिमानहि।
प्रेमलीन ह्वै दीन आपको तृन सम जानहि॥
सफल सार कौ सार, भजन तू करि रस-रीती।
रे मन सोच विचार, रही थोरी, बहु बीती॥

कृष्णोपासक भक्त कवियों की परंपरा अब यहीं समाप्त की जाती है। पर इसका अभिप्राय यह नहीं कि ऐसे भक्त कवि आगे और नहीं हुए। कृष्णगढ़-नरेश महाराज नागरीदासजी, अलबेली अलिजी, चाचा हितवृंदावनदासजी, भगवत् रसिक आदि अनेक पहुँचे हुए भक्त बराबर होते गए हैं जिन्होंने बड़ी सुंदर रचनाएँ की है। पर पूर्वोक्त काल के भीतर ऐसे भक्त कवियों की जितनी प्रचुरता रही है उतनी आगे चलकर नहीं। वे कुछ अधिक अंतर देकर हुए है। ये कृष्ण-भक्त कवि हमारे साहित्य में प्रेम-माधुर्य को जो सुधा-स्रोत बहा गए है उसके प्रभाव से हमारे काव्य क्षेत्र में सरसता और प्रफुल्लता बराबर बनी रहेगी। 'दुःख-वाद', की छाया आकर भी टिकने न पाएगी। इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।



[ १९४ ]इन प्रवादों से कम से कम इतना अवश्य सूचित होता है कि आरंभ से ही ये बड़े प्रेमी जीव थे। वही प्रेम अत्यंत गूढ़ भगवद्भक्ति में परिणत हुआ। प्रेम के ऐसे सुंदर उद्गार इनके सवैयों से निकले कि जन-साधारण प्रेम या शृंगार संबंधी कवित्त-सवैयो को ही 'रसखान' कहने लगे––जैसे 'कोई रसखान सुनाओं'। इनकी भाषा बहुत चलती, सरस और शब्दाडंबर-मुक्त होती थी। शुद्ध ब्रज-भाषा का जो चलतापन और सफाई इनकी और घनानंद की रचनाओं में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इनका रचना-काल संवत् १६४० के उपरांत ही माना जा सकता है क्योकि गोसाईं विट्ठलनाथजी का गोलोकवास संवत् १६४३ में हुआ

था। प्रेसवाटिका का रचना-काल सं० १६७१ है। अतः उनके शिष्य होने के उपरांत ही इनकी मधुर वाणी स्फुरित हुई होगी। इनकी कृति परिमाण में तो बहुत अधिक नहीं है, पर जो है वह प्रेमियों के मर्म को स्पर्श करनेवाली है। इनकी दो छोटी छोटी पुस्तके अब तक प्रकाशित हुई हैं––प्रेम-वाटिका (दोहे) और सुजान-रसखान (कवित्त-सवैया)। और कृष्णभक्तों के समान इन्होंने 'गीताकाव्य' का आश्रय न लेकर कवित्त-सवैयों में अपने सच्चे प्रेम की व्यंजना की है ब्रजभूमि के सच्चे प्रेम से पूरिपूर्ण ये दो सवैये इनके अत्यंत प्रसिद्ध है––

मानुष हों तो वही रसखान बसौं सँग गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हों तो कहाँ बसु मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हों तो वही गिरि को जो कियो हरि छत्र पुरंदर-धारन।
जौ खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन॥


या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाय चराय बिसारौं॥
नैनन सों रसखान जबै ब्रज के बन बाग तडांग निहारौं।
केतक ही कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

अनुप्रास की सुंदर छटा होते हुए भी भाषा की चुस्ती और सफाई कहीं नहीं जाने पाई है। बीच-बीच में भावों की बड़ी ही सुंदर व्यंजना है। लीला-पक्ष को लेकर इन्होंने बड़ी रंजनकारिणी रचनाएँ की है। [ १९५ ]भगवान् प्रेम के वशीभूत है; जहाँ प्रेम है वहीं प्रिय है, इस बात को रसखान यों कहते हैं––

ब्रह्म मैं ढूँढ्यों पुरानन-गानन, वेदरिचा सुनी चौगुने चायन।
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कहूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन॥
टेरत हेरत हरि परयों, रसखान बतायो न लोग लुगायन।
देख्यो दुरो वह कुंज-कुटीर में बैठो पलोटत राधिका-पायँन॥

कुछ और नमूने देखिए––

मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पीतांबर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन संग फिरौंगी॥
भावतो सोई मेरो रसखान सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान-धरी अधर न धरौंगी॥
सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहिं निरंतर गावैं।
जाहिं अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुवेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं॥

(प्रेम-वाटिका से)
जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं जान्यो जात बिसेस।
सोइ प्रेम जेहिं जान कै रहि न जात कछु सेस॥
प्रेमफाँस सों फँसि मरै सोई जियै सदाहि।
प्रेम-मरम जाने बिना मरि कोउ जीवत नाहिं॥

(१७) ध्रुवदास––ये श्री हितहरिवंशजी के शिष्य स्वप्न में हुए थे। इसके अतिरिक्त इनका कुछ जीवनवृत्त नहीं प्राप्त हुआ हैं। ये अधिकतर वृंदावन ही में रहा करते थे। इनकी रचना बहुत ही विस्तृत है और इन्होंने पदों के अतिरिक्त दोहे, चौपाई, कवित्त, सवैये आदि अनेक छंदों में भक्ति और प्रेमतत्त्व का वर्णन किया है। छोटे मोटे सब मिलाकर इनके ४० ग्रंथ के लगभग मिले हैं जिनके नाम ये हैं––

  1. देखो पृ० १३१।
  2. देखो पृ० ४५ पर चंद का वंशवृक्ष।
  3. देखो पृ॰ १५९।