कुछ विचार/एक भाषण

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एक भाषण

सज्जनो, आर्यसमाज ने इस सम्मेलन का नाम आर्यभाषा-सम्मेलन शायद इसलिए रखा है कि यह समाज के अन्तर्गत उन भाषाओं का सम्मेलन है जिनमें आर्यसमाज ने धर्म का प्रचार किया है। और उनमें उर्दू और हिन्दी दोनों का दर्जा बराबर है। मैं तो आर्यसमाज को जितनी धार्मिक संस्था समझता हूँ उतना ही तहज़ीबी (सांस्कृतिक) संस्था भी समझता हूँ। बल्कि आप क्षमा करें तो मैं कहूँगा कि उसके तहज़ीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से ज्यादा प्रसिद्ध और रौशन हैं। आर्यसमाज ने साबित कर दिया है कि समाज की सेवा ही किसी धर्म के सजीव होने का लक्षण है। सेवा का ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जिसमें उसकी कीर्ति की ध्वजा न उड़ रही हो। क़ौमी ज़िन्दगी की समस्याओं को हल करने में उसने जिस दूरंदेशी का सबूत दिया है उस पर हम गर्व कर सकते हैं। हरिजनों के उद्धार में सबसे पहले आर्य-समाज ने क़दम उठाया, लड़कियों की शिक्षा की जरूरत को सबसे पहले उसने समझा। वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर है। जाति-भेद-भाव और खान-पान के छूत-छात और चौके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। यह ठीक है कि ब्रह्मसमाज ने इस दिशा में पहले क़दम रखा पर वह थोड़े से अँग्रेज़ी पढ़े-लिखों तक ही रह गया। इन विचारों को जनता तक पहुँचाने का बीड़ा आर्यसमाज ने ही उठाया। अन्ध-विश्वास और धर्म के नाम पर किये जानेवाले हज़ारों अनाचारों की क़ब्र उसने खोदी, हालाँकि मुर्दे को उसमें दफ़न न कर सका और अभी तक उसका ज़हरीला दुर्गन्ध उड़-उड़कर समाज को दूषित कर रहा है। समाज के मानसिक और बौद्धिक धरातल (सतह) को आर्यसमाज ने जितना उठाया है, शायद ही भारत की किसी संस्था ने उठाया हो। उसके [ ६३ ]उपदेशकों ने वेदों और वेदांगों के गहन विषयों को जन-साधारण की सम्पत्ति बना दिया जिन पर विद्वानों और आचार्य के कई-कई लीवर-वाले ताले लगे हुए थे। आज आर्यसमाज के उत्सवों और गुरुकुलों के जलसों से हज़ारों मामूली लियाक़त के स्त्री-पुरुष सिर्फ़ विद्वानों के भाषण सुनने का आनन्द उठाने के लिए खिंचे चले जाते हैं। गुरुकुलाश्रम को नया जन्म देकर आर्यसमाज ने शिक्षा को सम्पूर्ण बनाने का महान् उद्योग किया है। सम्पूर्ण से मेरा आशय उस शिक्षा का है जो सर्वाङ्गपूर्ण हो, जिसमें मन, बुद्धि, चरित्र और देह, सभी के विकास का अवसर मिले। शिक्षा का वर्तमान आदर्श यही है। मेरे ख़याल में वह चिरसत्य है। वह शिक्षा जो सिर्फ अक़्ल तक ही रह जाय अधूरी है। जिन संस्थाओं में युवकों में समाज से पृथक् रहनेवाली मनोवृत्ति पैदा हो, जो अमीर और ग़रीब के भेद को न सिर्फ़ क़ायम रखें बल्कि और मज़बूत करे, जहाँ पुरुषार्थ इतना कोमल बना दिया जाय कि उसमें मुशकिलों का सामना करने की शक्ति न रह जाय, जहाँ कला और संयम में कोई मेल न हो, जहाँ की कला केवल नाचने-गाने और नक़ल करने में ही ज़ाहिर हो, उस शिक्षा का मैं क़ायल नहीं हूँ। शायद ही मुल्क में कोई ऐसी शिक्षा-संस्था हो जिसने क़ौम की पुकार का इतनी जवाँमर्दी से स्वागत किया हो। अगर विद्या हममें सेवा और त्याग का भाव न लाये, अगर विद्या हमें आदर्श के लिए सीना खोलकर खड़ा होना न सिखाये, अगर विद्या हममें स्वाभिमान न पैदा करे, और हमें समाज के जीवन-प्रवाह से अलग रखे तो उस विद्या से हमारी अविद्या अच्छी। और समाज ने हमारी भाषा के साथ जो उपकार किया है उसका सबसे उज्ज्वल प्रमाण यह है कि स्वामी दयानन्द ने इसी भाषा में सत्यार्थ-प्रकाश लिखा और उस वक़्त लिखा जब उसकी इतनी चर्चा न थी। उनकी बारीक नज़र ने देख लिया कि अगर जनता में प्रकाश ले जाना है तो उसके लिए हिन्दी भाषा ही अकेला साधन है, और गुरुकुलों ने हिन्दी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाकर अपने भाषा-प्रेम को और भी सिद्ध कर दिया है। [ ६४ ]

सज्जनो, मैं यहाँ हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास की कथा नहीं कहना चाहता, वह सारी कथा भाषा विज्ञान की पोथियों में लिखी हुई है। हमारे लिए इतना ही जानना काफ़ी है कि आज हिन्दुस्तान के पन्द्रह सोलह करोड़ के सभ्य व्यवहार और साहित्य की यही भाषा है। हाँ, वह लिखी जाती है दो लिपियों में और उसी एतबार से हम उसे हिन्दी या उर्दू कहते हैं। पर है वह एक ही। बोलचाल में तो उसमें बहुत कम फ़र्क़ है, हाँ, लिखने में वह फ़र्क़ बढ़ जाता है, मगर उस तरह का फ़र्क़ सिर्फ़ हिन्दी में ही नहीं, गुजराती, बँगला और मराठी वगैरह भाषाओं में भी कमोबेश वैसा ही फ़र्क़ पाया जाता है। भाषा के विकास में हमारी संस्कृति की छाप होती है, और जहाँ संस्कृति में भेद होगा वहाँ भाषा में भेद होना स्वाभाविक है। जिस भाषा का हम और आप व्यवहार कर रहे हैं वह देहली प्रांत की भाषा है, उसी तरह जैसे ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली, भोजपुरी और मारवाड़ी आदि भाषाएँ अलग-अलग क्षेत्रों में बोली जाती हैं और सभी साहित्यिक भाषा रह चुकी हैं। बोली की परिमार्जित रूप ही भाषा है। सबसे ज्यादा प्रसार तो ब्रजभाषा का है क्योंकि वह आगरा प्रांत के बड़े हिस्से में ही नहीं, सारे बुन्देलखण्ड की बोलचाल की भाषा है। अवधी अवध प्रांत की भाषा है। भोजपुरी प्रांत के पूर्वी जिलों में बोली जाती है, और मैथिली बिहार प्रांत के कई जिलों में। ब्रजभाषा में जो साहित्य रचा गया है वह हिन्दी के पद्य-साहित्य का गौरव है। अवधी के प्रमुख ग्रंथ तुलसीकृत रामायण और मलिक मुहम्मद जायसी का रचा हुआ पद्मावत हैं। मैथिली में विद्यापति की रचनाएँ ही मशहूर हैं। मगर साहित्य में आम तौर पर मैथिल का व्यवहार कम हुआ। साहित्य में तो अवधी और ब्रजभाषा का व्यवहार होता था। हिन्दी के विकास के पहले ब्रजभाषा ही हमारी साहित्यिक भाषा थी और प्रायः उन सभी प्रदेशों में जहाँ आज हिन्दी का प्रचार है, पहले ब्रजभाषा का प्रचार था। अवध में और काशी में भी कवि लोग अपने कवित्त ब्रजभाषा में ही कहते थे। यहाँ तक कि गया में भी ब्रजभाषा का ही प्रचार होता था। [ ६५ ]

तो यकायक ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी आदि को पीछे हटाकर हिन्दी कैसे सबके ऊपर ग़ालिब आई, यहाँ तक कि अब अवधी और भोजपुरी का तो साहित्य में कहीं व्यवहार नहीं है, हाँ ब्रजभाषा को अभी तक थोड़े-से लोग सीने से चिपटाये हुए हैं। हिन्दी को यह गौरव प्रदान करने का श्रेय मुसलमानों को है। मुसलमानों ही ने दिल्ली प्रांत की इस बोली को, जिसको उस वक्त तक भाषा का पद न मिला था, व्यवहार में लाकर उसे दरबार की भाषा बना दिया और दिल्ली के उमरा और सामंत जिन प्रांतों में गये, हिन्दी भाषा को साथ लेते गये। उन्हीं के साथ वह दक्खिन में पहुँची और उसका बचपन दक्खिन ही में गुज़रा। दिल्ली में बहुत दिनों तक अराजकता का जोर रहा, और भाषा को विकास का अवसर न मिला। और दक्खिन में वह पलती रही। गोल-कुंडा, बीजापूर, गुलबर्गा आदि के दरबारों में इसी भाषा में शेर-शायरी होती रही। मुसलमान बादशाह प्रायः साहित्यप्रेमी होते थे। बाबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगज़ेब, दाराशिकोह सभी साहित्य के मर्मज्ञ थे। सभी ने अपने-अपने रोज़नामचे लिखे हैं। अकबर ख़ुद शिक्षित न हो मगर साहित्य का रसिक था। दक्खिन के बादशाहों में अफ्सरों ने कविताएँ की और कवियों को आश्रय दिया। पहले तो उनकी भाषा कुछ अजीब, खिचड़ी-सी थी जिसमें हिन्दी, फ़ारसी सब कुछ भिला होता था। आपको शायद मालूम होगा कि हिन्दी की सबसे पहली रचना ख़ुसरो ने की है जो मुग़लों से भी पहले ख़िलजी राजकाल में हुए। ख़ुसरो की कविता का एक नमूना देखिये—

जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिन्ता उतर,
ऐसा नहीं कोई अजब, राखे उसे समझाय कर।
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया,
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भरलाय कर॥
तूँ तो हमारा यार है, तुम पर हमारा प्यार है,
तुझ दोस्ती बिसियार है, यक शब मिलो तुभ आय कर।

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मेरा जो मन तुमने लिया, तुमने उठा ग़म को दिया,
ग़म ने मुझे ऐसा किया, जैसे पतंगा आग पर॥

ख़ुसरो की एक दूसरी ग़ज़ल देखिये—

बह गये बालम, वह गये नदियों किनार,
आप पार उतर गये हम तो रहे अरदार।
भाई रे मल्लाहो हम को उतारो पार,
हाथ का देऊँगी मुँदरी, गल का देऊँ हार।

मुसलमानी ज़माने में अवश्य ही हिन्दी के तीन रूप होंगे। एक नागरी लिपि में ठेठ हिन्दी, जिसे भाषा या नागरी कहते थे, दूसरी उर्दू यानी फ़ारसी लिपि में लिखी हुई फ़ारसी से मिली हुई हिन्दी और तीसरी ब्रजभाषा। लेकिन हिन्दी-भाषा को मौजूदा सूरत में आते-आते सदियाँ गुज़र गईं। यहाँ तक सन् १८०३ ई॰ से पहले का कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। सदल मिश्र की 'चन्द्रावती' का रचना-काल १८०३ माना जाता है, और सदल मिश्र ही हिन्दी के आदि लेखक ठहरते हैं। इसके बाद लल्लूजी, सैयद इंशा अल्लाह खाँ वग़ैरह के नाम हैं। इस लिहाज़ से हिन्दी-गद्य का जीवन सवा सौ साल से ज़्यादा का नहीं है, और क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सवा सौ साल जिस ज़बान में कोई गद्य-रचना तक न थी आज सारे हिन्दुस्तान की क़ौमी ज़बान बनी हुई है? और इसमें मुसलमानों का कितना सहयोग है यह हम बता चुके हैं। हमें सन्देह है कि मुसलमानों का सहारा पाये बग़ैर हमको आज यह दरजा हासिल होता।

जिस तरह हिन्दुओं की हिन्दी का रूप विकसित हो रहा था, उसी तरह मुसलमानों की हिन्दी का रूप भी बदलता जा रहा था। लिपि तो शुरू से ही अलग थी, ज़बान का रूप भी बदलने लगा। मुसलमानों की संस्कृति ईरान और अरब की है। उसका ज़बान पर असर पड़ने लगा। अरबी और फ़ारसी के शब्द उसमें आ-आकर मिलने लगे, यहाँ तक कि आज हिन्दी और उर्दू दो अलग-अलग ज़बानें-सी हो गई हैं। एक तरफ़ हमारे मौलवी साहबान अरबी और फ़ारसी के शब्द भरते [ ६७ ] जाते हैं, दूसरी ओर पण्डितगण, संस्कृत और प्राकृत के शब्द ठूँस रहे हैं और दोनों भाषाएँ जनता से दूर होती जा रही हैं। हिन्दुओं की ख़ासी तादाद अभी तक उर्दू पढ़ती जा रही है लेकिन उनकी तादाद दिन-दिन घट रही है। मुसलमानों ने हिन्दी से कोई सरोकार रखना छोड़ दिया। तो क्या यह तै समझ लिया जाय कि उत्तर भारत में उर्दू और हिन्दी दो भाषाएँ अलग-अलग रहेंगी, उन्हें अपने-अपने ढंग पर, अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार बढ़ने दिया जाय, उनको मिलाने की ओर इस तरह उन दोनों की प्रगति को रोकने की कोशिश न की जाय? या ऐसा सम्भव है कि दोनों भाषाओं को इतना समीप लाया जाय कि उनमें लिपि के सिवा कोई भेद न रहे। बहुमत पहले निश्चय की ओर है। हाँ कुछ थोड़े-से लोग ऐसे भी हैं जिनका ख़याल है कि दोनों भाषाओं में एकता लाई जा सकती है, और इस बढ़ते हुए फ़र्क को रोका जा सकता है, लेकिन उनकी आवाज़ नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ है। ये लोग हिन्दी और उर्दू नामों का व्यवहार नहीं करते, क्योंकि दो नामों का व्यवहार उनके भेद को और मज़बूत करता है। यह लोग दोनों को एक नाम से पुकारते हैं और वह 'हिन्दुस्तानी' है। उनका आदर्श है कि जहाँ तक मुमकिन हो लिखी जानेवाली ज़ुबान और बोलचाल की ज़ुबान की सूरत एक हो, और वह थोड़े से पढ़े-लिखे आदमियों की ज़ुबान न रहकर सारी क़ौम की ज़ुबान हो। जो कुछ लिखा जाय उसका फ़ायदा जनता भी उठा सके, और हमारे यहाँ पढ़े-लिखों की जो एक जमाअत अलग बनती जा रही है, और जनता से उनका सम्बन्ध जो दूर होता जा रहा है वह दूरी मिट जाय और पढ़े-बे-पढ़े सब अपने को एक जान, एक दिल समझें, और क़ौम में ताक़त आवे। चूँकि उर्दू ज़ुबान अरसे से अदालती और सभ्य-समाज की भाषा रही है, इसलिए उसमें हज़ारों फ़ारसी और अरबी के शब्द इस तरह घुल-मिल गये हैं कि बज्र देहाती भी उनका मतलब समझ जाता है। ऐसे शब्दों को अलग करके हिन्दी में विशुद्धता लाने का जो प्रयत्न किया जा रहा है, हम उसे ज़ुबान और [ ६८ ]क़ौम दोनों ही के साथ अन्याय समझते हैं। इसी तरह हिन्दी या संस्कृत या अँगरेज़ी के जो बिगड़े हुए शब्द उर्दू में मिल गये उनको चुन-चुनकर निकालने और उनकी जगह ख़ालिस फ़ारसी और अरबी के शब्दों के इस्तेमाल को भी उतना ही एतराज़ के लायक समझते हैं। दोनों तरफ से इस अलगौझे का सबब शायद यही है कि हमारा पढ़ा-लिखा समाज जनता से अलग-अलग होता जा रहा है, और उसे इसकी ख़बर ही नहीं कि जनता किस तरह अपने भावों और विचारों को अदा करती है। ऐसी ज़बान जिसके लिखने और समझनेवाले थोड़े-से पढ़े-लिखे लोग ही हों, मसनई, बेजान और बोझल हो जाती है। जनता का मर्म स्पर्श करने की, उन तक अपना पैग़ाम पहुँचाने की, उसमें कोई शक्ति नहीं रहती। वह उस तालाब की तरह है जिसके घाट संगमरमर के बने हों जिसमें कमल खिले हों, लेकिन उसका पानी बन्द हो। क्या उस पानी में वह मज़ा, वह सेहत देनेवाली ताक़त, वह सफ़ाई है जो खुली हुई धारा में होती है? क़ौम की ज़बान वह है जिसे क़ौम समझे, जिसमें क़ौम की आत्मा हो, जिसमें क़ौम के जज़बात हों। अगर पढ़े लिखे समाज की ज़बान ही क़ौम की ज़बान है तो क्यों न हम अंग्रेज़ी को क़ौम की ज़बान कहें? क्योंकि मेरा तजुरबा है कि आज पढ़ा-लिखा समाज जिस बेतकल्लुफ़ी से अंग्रेजी बोल सकता है, और जिस रवानी के साथ अंग्रेज़ी लिख सकता है, उर्दू या हिन्दी बोल या लिख नहीं सकता। बड़े-बड़े दफ्तरों में और ऊँचे दायरे में आज भी किसी को उर्दू-हिन्दी बोलने की महीनों, बरसों ज़रूरत नहीं होती। ख़ानसामे और बैरे भी ऐसे रखे जाते हैं जो अंग्रेजी बोलते और समझते हैं। जो लोग इस तरह की ज़िन्दगी बसर करने के शौक़ीन हैं उनके लिए तो उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी का कोई झगड़ा ही नहीं। वह इतनी बुलंदी पर पहुँच गये हैं कि नीचे की धूल और गर्मी उन पर कोई असर नहीं कर सकती! वह मुअल्लक हवा में लटके रह सकते हैं। लेकिन हम सब तो हज़ार कोशिश करने पर भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकते। हमें तो इसी धूल और गर्मी में जीना और मरना है। Intelligentsia में जो [ ६९ ]कुछ शक्ति और प्रभाव है वह जनता ही से आता है। उससे अलग रहकर वे हाकिम की सूरत में ही रह सकते हैं, ख़ादिम की सूरत में, जनता के होकर नहीं रह सकते। उनके अरमान और मंसूबे उनके है, जनता के नहीं। उनकी आवाज़ उनकी है, उसमें जनसमूह की आवाज़ की गहराई और गरिमा और गम्भीरता नहीं है। वह अपने प्रतिनिधि हैं, जनता के प्रतिनिधि नहीं।

बेशक, यह बड़ा जोरदार जवाब है कि जनता में शिक्षा इतनी कम है, समझने की ताक़त इतनी कम कि अगर हम उसे ज़ेहन में रखकर कुछ बोलना या लिखना चाहें, तो हमें लिखना और बोलना बन्द करना पड़ेगा। यह जनता का काम है कि वह साहित्य पढ़ने और गहन विषयों के समझने की ताक़त अपने में लाये। लेखक का काम तो अच्छी-से-अच्छी भाषा में ऊँचे-से-ऊँचे विचारों का प्रकट करना है। अगर जनता का शब्दकोष सौ-दो-सौ निहायत मामूली रोज़मर्रा के काम के शब्दों के सिवा और कुछ नहीं है, तो लेखक कितनी ही सरल भाषा लिखे जनता के लिए वह कठिन ही होगी। इस विषय में हम इतनी अर्ज़ करेंगे कि जनता को इस मानसिक दशा में छोड़ने की ज़िम्मेदारी भी हमारे ही ऊपर है। हममें जिनके पास इल्म है, और फुरसत है, यह उनका फ़र्ज़ था कि अपनी तक़रीरों से जनता में जागृति पैदा करते, जनता में ज्ञान के प्रचार के लिए पुस्तकें लिखते और सफ़री कुतुबख़ाने क़ायम करते। हममें जिन्हें मक़दरत है वह मदरसे खोलने के लिए लाखों रुपए ख़ैरात करते हैं। मैं यह नहीं चाहता कि क़ौम को ऐसे मुहसिनों को धन्यवाद न देना चाहिये, मगर क्या ऐसी संस्थाएँ न खुल सकती थीं और क्या उनसे क़ौम का कुछ कम उपकार होता जो भाषणों और पुस्तकों से जनता में साहित्य और विज्ञान का प्रचार करतीं और उनको सभ्यता की ऊँची सतह पर लातीं? आर्यसमाज ने जिस तरह के विषयों का जनता में प्रचार किया है उन विषयों को साधारण पढ़ा-लिखा आर्यसमाजी भी ख़ूब समझता है। अदालती मामलों को, या मुक्ति और आवागमन जैसे गम्भीर विषयों को गाँव [ ७० ]के किसान भी अगर ज़्यादा नहीं समझते, तो साधारण पढ़े-लिखों के बराबर तो समझ ही लेते हैं। इसी तरह अन्य विषयों की चर्चा भी जनता के सामने होती रहती तो हमें यह शिकायत न होती कि जनता हमारे विचारों को समझ नहीं सकती। मगर हमने जनता की परवाह ही कब की है? हमने केवल उसे दुधार गाय समझा है। वह हमारे लिए अदालतों में मुक़दमें लाती रहे, हमारे कारख़ानों की बनी हुई चीज़ें ख़रीदती रहे। इनके सिवा हमने उससे कोई प्रयोजन नहीं रखा, जिसका नतीज़ा यह है कि आज जनता को अंग्रेज़ों पर जितना विश्वास है उतना अपने पढ़े-लिखे भाइयों पर नहीं।

संयुक्त-प्रान्त के साबिक़ से पहले के गवर्नर सर विलियम मैरिस ने इलाहाबाद की हिन्दुस्तानी एकेडेमी खोलते वक़्त हिन्दी-उर्दू के लेखकों को जो सलाह दी थी, उसे ध्यान में रखने की आज भी उतनी ही ज़रूरत है, जितनी उस वक़्त थी, शायद और ज़्यादा। आपने फ़रमाया, क्या हिन्दी के लेखकों को लिखते वक़्त यह समझते रहना चाहिये कि उनके पाठक मुसलमान हैं? इसी तरह उर्दू के लेखकों को यह ख़याल रखना चाहिए कि उनके क़ारी हिन्दू हैं।

यह एक सुनहरी सलाह है और अगर हम इसे गाँठ बाँध लें, तो ज़बान का मसला बहुत कुछ तय हो जाय। मेरे मुसलमान दोस्त मुझे माफ़ फ़रमायें अगर मैं कहूँ कि इस मुआमले में वह हिन्दू-लेखकों से ज़्यादा ख़तावार हैं। संयुक्त प्रांत की कॉमन लैंग्वेज रीडरों को देखिये। आप सहल क़िस्म की उर्दू पायेंगे। हिन्दी की अदबी किताबों में भी अरबी और फ़ारसी के सैकड़ो शब्द धड़ल्ले से लाये जाते हैं, मगर उर्दू-साहित्य में फ़ारसीयत की तरफ ही ज़्यादा झुकाव है। इसका सबब यही है कि मुसलमानों ने हिन्दी से कोई ताल्लुक नहीं रखा है, और न रखना चाहते हैं। शायद हिन्दी से थोड़ी सी वाक़फ़ियत हासिल कर लेना भी वह ब सरे-शान समझते हैं, हालाँकि हिन्दी वह चीज़ है, जो एक हफ़्ते में आ जाती है। जब तक दोनों भाषाओं का मेल न होगा, हिन्दुस्तानी ज़बान की गाड़ी जहाँ आकर रुक गई है उससे आगे न बढ़ [ ७१ ]सकेगी। और यह सारी करामात फ़ोर्ट विलियम की है जिसने एक ही ज़बान के दो रूप मान लिये। इसमें भी उस वक़्त कोई राजनीति काम कर रही थी या उस वक़्त भी दोनों ज़बानों में काफ़ी फ़र्क़ आ गया था, यह हम नहीं कह सकते, लेकिन जिन हाथों ने यहाँ की ज़बान के उस वक़्त दो टुकड़े कर दिये उसने हमारी क़ौमी ज़िन्दगी के दो टुकड़े कर दिये। अपने हिन्दू दोस्तों से भी मेरा यही नम्र निवेदन है कि जिन शब्दों ने जन-साधारण में अपनी जगह बना ली है, और उन्हें लोग आपके मुँह या क़लम से निकलते ही समझ जाते हैं, उनके लिए संस्कृतकोष की मदद लेने की ज़रूरत नहीं। 'मौजूद' के लिए 'उपस्थित', 'इरादा' के लिए 'संकल्प', बनावटी के लिए 'कृत्रिम' शब्दों को काम में लाने की कोई खा़स ज़रूरत नहीं। प्रचलित शब्दों को उनके शुद्ध रूप में लिखने का रिवाज भी भाषा को अकारण ही कठिन बना देता है। खेत को क्षेत्र, बरस का वर्ष, छेद को छिद्र, काम को कार्य, सूरज को सूर्य, जमना को यमुना लिखकर आप मुँह और जीभ के लिए ऐसी कसतर का सामान रख देते हैं जिसे ९० फ़ी सदी आदमी नहीं कर सकते। इसी मुशकिल को दूर करने और भाषा को सुबोध बनाने के लिए कवियों ने ब्रजभाषा और अवधी में शब्दों के प्रचलित रूप ही रखे थे। जनता में अब भी उन शब्दों का पुराना बिगड़ा हुआ रूप चलता है, मगर हम विशुद्धता की धुन में पड़े हुए हैं।

मगर सवाल यह है, क्या इस हिन्दुस्तानी में क्लासिकल भाषाओं के शब्द लिये ही न जायँ? नहीं, यह तो हिन्दुस्तानी का गला घोट देना होगा। आज साएंस की नई-नई शाखें निकलती जा रही हैं और नित नये-नये शब्द हमारे सामने आ रहे हैं, जिन्हें जनता तक पहुँचाने के लिए हमें संस्कृत या फ़ारसी की मदद लेनी पड़ती है! क़िस्से-कहानियों में तो आप हिन्दुस्तानी ज़बान का व्यवहार कर सकते हैं, वह भी जब आप गद्य-काव्य न लिख रहे हों, मगर आलोचना या तंक़ीद, अर्थशास्त्र, राजनीति, दर्शन और अनेक साएंस के विषयों में क्लासिकल भाषाओं से मदद लिये बग़ैर काम नहीं चल सकता। तो क्या संस्कृत और [ ७२ ]अरबी या फ़ारसी से अलग-अलग शब्द बनाये जायँ? ऐसा हुआ तो एकरूपता कहाँ आई? फिर तो वही होगा जो इस वक़्त हो रहा है। जरूरत तो यह है कि एक ही शब्द लिया जाय, चाहे वह संस्कृत से लिया जाय, या फ़ारसी से, या दोनों को मिलाकर कोई नया शब्द गढ़ लिया जाय। Sex के लिए हिन्दी में कोई शब्द अभी तक नहीं बन सका। आम तौर पर 'स्त्री-पुरुष सम्बन्धी' इतना बड़ा शब्द उस भाव को जाहिर करने के लिए काम में लाया जा रहा है। उर्दू में 'जिन्स' का इस्तेमाल होता है। जिंसी, जिंसियत, आदि शब्द भी उसी से निकले हैं। कई लेखकों ने हिन्दी में भी जिंसी, जिंस, जिंसियत का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। लेकिन यह मसला आसान नहीं है। अगर हम इसे मान लें कि हिन्दुस्तान के लिए एक क़ौमी ज़बान की ज़रूरत है, जिसे सारा मुल्क समझ सके तो हमें उसके लिए तपस्या करनी पड़ेगी। हमें ऐसी सभाएँ खोलनी पड़ेंगी जहाँ लेखक लोग कभी-कभी मिलकर साहित्य के विषयों पर, या उसकी प्रवृत्तियों पर आपस में ख़यालात का तबादला कर सकें। दिलों की दूरी भाषा की दूरी का मुख्य कारण है। आपस के हेल-मेल से उस दूरी को दूर करना होगा। राजनीति के पण्डितों ने क़ौम को जिस दुर्दशा में डाल दिया है वह आप और हम सभी जानते हैं। अभी तक साहित्य के सेवकों ने भी किसी-न-किसी रूप में राजनीति के पण्डितों को अगुआ माना है, और उनके पीछे-पीछे चले हैं। मगर अब साहित्यकारों को अपने विचार से काम लेना पड़ेगा। सत्यम्, शिवं, सुंदरं के उसूल को यहाँ भी बरतना पड़ेगा। सियासियाह ने सम्प्रदायों को दो कैम्पों में खड़ा कर दिया है। राजनीति की हस्ती ही इस पर क़ायम है कि दोनों आपस में लड़ते रहें। उनमें मेल होना उसकी मृत्यु है। इसलिए वह तरह-तरह के रूप बदलकर और जनता के हित का स्वाँग भरकर अब तक अपना व्यवसाय चलाती रही है। साहित्य धर्म को फ़िर्काबन्दी की हद तक गिरा हुआ नहीं देख सकता। वह समाज को सम्प्रदायों के रूप में नहीं, मानवता के रूप में देखता है। किसी धर्म की महानता और [ ७३ ]फ़ज़ीलत इसमें है कि वह इन्सान को इन्सान का कितना हमदर्द बनाता है, उसमें मानवता (इन्सानियत) का कितना ऊँचा आदर्श है, और उस आदर्श पर वहाँ कितना अमल होता है। अगर हमारा धर्म हमें यह सिखाता है कि इन्सानियत और हमदर्दी और भाईचारा सब कुछ अपने ही धर्मवालों के लिए है, और उस दायरे से बाहर जितने लोग हैं सभी ग़ैर हैं, और उन्हें ज़िन्दा रहने का कोई हक़ नहीं, तो मैं उस धर्म से अलग होकर विधर्मी होना ज़्यादा पसन्द करूँगा। धर्म नाम है उस रोशनी का जो क़तरे को समुद्र में मिल जाने का रास्ता दिखाती है, जो हमारी ज़ात को इमाओस्त में, हमारी आत्मा को व्यापक सर्वात्मा में, मिले होने की अनुभूति या यक़ीन कराती है। और चूँकि हमारी तबीयतें एक-सी नहीं हैं, हमारे संस्कार एक-से नहीं हैं, हम उसी मंज़िल तक पहुँचने के लिए अलग-अलग रास्ते अख़्तियार करते हैं। इसीलिए भिन्न-भिन्न धर्मों का ज़हूर हुआ है। यह साहित्य-सेवियों का काम है कि वह सच्ची धार्मिक जाग्रति पैदा करें। धर्म के आचार्यों और राजनीति के पण्डितों ने हमें ग़लत रास्ते पर चलाया है। मगर मैं दूसरे विषय पर आ गया। हिन्दुस्तानी को व्यावहारिक रूप देने के लिए दूसरी तदबीर यह है कि मैट्रिकुलेशन तक उर्दू और हिन्दी हरेक छात्र के लिए लाज़मी कर दी जाय। इस तरह हिन्दुओं को उर्दू से और मुसलमानो को हिन्दी में काफ़ी महारत हो जायगी, और अज्ञानता के कारण जो बदगुमानी और संदेह है वह दूर हो जायगा। चूँकि इस वक्त भी तालीम का सीग़ा हमारे मिनिस्ट्रों के हाथ में है और करिकुलम में इस तब्दीली से कोई ज़ायद ख़र्च न होगा, इसलिए अगर दोनों भाई मिलकर यह मुतालबा पेश करें तो गवर्नमेंट को उसके स्वीकार करने में कोई इन्कार न हो सकेगा। मैं यक़ीन दिलाना चाहता हूँ कि इस तजवीज़ में हिन्दी या उर्दू किसी से भी पक्षपात नहीं किया गया है। साहित्यकार के नाते हमारा यह धर्म है कि हम मुल्क में ऐसी फिज़ा, ऐसा वातावरण लाने की चेष्टा करें जिससे हम ज़िन्दगी वे हरेक पहलू में दिन-दिन आगे बढ़ें। साहित्यकार पैदाइश से सौन्दर्य का उपासक होता है। वह जीवन के हरेक [ ७४ ]अङ्ग में, ज़िन्दगी के हरेक शोवे में, हुस्न का जिल्वा देखना चाहता है। जहाँ सामञ्जस्य या हम-आहँगी है वही सौन्दर्य है, वही सत्य है, वही हक़ीक़त है। जिन तत्त्वों से जीवन की रक्षा होती है, जीवन का विकास होता है, वही हुस्न है। वह वास्तव में हमारी आत्मा की बाहरी सूरत है। हमारी आत्मा अगर स्वस्थ है, तो वह हुस्न की तरफ़ बेअख़्तियार दौड़ती है। हुस्न में उनके लिए न रुकनेवाली कशिश है। और क्या यह कहने की ज़रूरत है कि नेफ़ाक़ और हसद, और सन्देह और संघर्ष यह मनोविकार हमारे जीवन के पोषक नहीं बल्कि घातक हैं, इसलिए वह सुंदर कैसे हो सकते हैं? साहित्य ने हमेशा इन विकारों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई है। दुनिया में मानवजाति के कल्याण के जितने आन्दोलन हुए हैं, उन सभी के लिए साहित्य ने ही ज़मीन तैयार की है, ज़मीन ही नहीं तैयार की, बीज भी बोये और उसकी सिंचाई भी की। साहित्य राजनीति के पीछे चलनेवाली चीज नहीं, उसके आगे आगे चलनेवाला 'एडवांस गार्ड' है। वह उस विद्रोह का नाम है जो मनुष्य के हृदय में अन्याय, अनीति, और कुरुचि से होता है। और लेखक अपनी कोमल भावनाओं के कारण उस विद्रोह की ज़बान बन जाता है। और लोगों के दिलों पर भी चोट लगती है, पर अपनी व्यथा को, अपने दर्द को दिल हिला देनेवाले शब्दों में वे ज़ाहिर नहीं कर सकते। साहित्य का स्रष्टा उन चोटों को हमारे दिलों पर इस तरह अंकित करता है कि हम उनकी तीव्रता को सौगुने वेग के साथ महसूस करने लगते हैं। इस तरह साहित्य की आत्मा आदर्श है और उसकी देह यथार्थ चित्रण। जिस साहित्य में हमारे जीवन की समस्याएँ न हों, हमारी आत्मा को स्पर्श करने की शक्ति न हो, जो केवल जिन्सी भावों में गुदगुदी पैदा करने के लिए, या भाषा-चातुरी दिखाने के लिए रचा गया हो वह निर्जीव साहित्य है, सत्यहीन, प्राणहीन। साहित्य में हमारी आत्माओं को जगाने की, हमारी मानवता को सचेत करने की, हमारी रसिकता को तृप्त करने की शक्ति होनी चाहिये। ऐसी ही रचनाओं से क़ौमें बनती हैं। वह साहित्य जो हमें विलासिता के नशे [ ७५ ]में डुबा दे, जो हमें वैराग्य, पस्तहिम्मती निराशावाद की ओर ले जाय, जिसके नज़दीक संसार दुःख का घर है और उससे निकल भागने में हमारा कल्याण है, जो केवल लिप्सा और भावुकता में डूबी हुई कथाएँ लिखकर, कामुकता को भड़काये, निर्जीव है। सजीव साहित्य वह है, जो प्रेम से लबरेज़ हो, उस प्रेम में नहीं, जो कामुकता का दूसरा नाम है, बल्कि उस प्रेम का जिसमें शक्ति है, जीवन है, आत्म-सम्मान है। अब इस तरह की नीति से हमारा काम न चलेगा।

रहिमन चुप ह्वै बैठिये, देखि दिनन को फेर

अब तो हमें डा॰ इक़बाल का शंखनाद चाहिये —

ब शाख़े ज़िन्दगिये मा नमीज़े तिश्ना बसस्त
तलाशे चश्मए हैबाँ दलीले बे तलबीस्त। १
ता कुजा दर तहे बाले दिगराँ मी बाशी,
दर हवाये चमन आज़ाद परीदन् आमोज़। २
दर जहाँ बालो ब परे ख़ेश कुशूदन आमोज़,
कि परीदन् नतवाँ बा परो बालेदिगराँ। ३

(१) मेरे जीवन की डाली के लिए तृषा की तरी ही काफ़ी है। अमृतकुंड की खोज में भटकना आकांक्षा के अभाव का प्रमाण है।

(२) दूसरों के डैनों का आश्रय तुम कब तक लोगे? चमन की हवा में आज़ाद होकर उड़ना सीखो।

(३) दुनिया में अपने डैने-पंखे को फैलाना सीखो। क्योंकि दूसरों के डैने-पंखे के सहारे उड़ना सम्भव नहीं है।

जब हिन्दुस्तानी क़ौमी ज़बान है, क्योंकि किसी न किसी रूप में यह पन्द्रह-सोलह करोड़ आदमियों की भाषा है, तो यह भी ज़रूरी है कि हिन्दुस्तानी ज़बान में ही हमें भारतीय साहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ पढ़ने को मिलें। आप जानते हैं हिन्दुस्तान में बारह उन्नत भाषाएँ हैं और उनके साहित्य हैं। उन साहित्यों में जो कुछ संग्रह करने लायक है वह हमें हिन्दुस्तानी ज़बान में ही मिलना चाहिये। किसी भाषा में भी जो-जो अमर साहित्य है वह सम्पूर्ण राष्ट्र की सम्पत्ति है। मगर [ ७६ ]अभी तक उन साहित्यों के द्वार हमारे लिए बन्द थे, क्योंकि हिन्दुस्तान की बारहों भाषाओं का ज्ञान विरले ही किसी को होगा। राष्ट्र प्राणियों के उस समूह को कहते हैं कि जिनकी एक विद्या, एक तहज़ीब हो, एक राजनैतिक संगठन हो, एक भाषा हो और एक साहित्य हो। हम और आप दिल से चाहते हैं कि हिन्दुस्तान सच्चे मानी में एक क़ौम बने। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि भेद पैदा करनेवाले कारणों को मिटायें और मेल पैदा करनेवाले कारणों को संगठित करें। क़ौम की भावना यूरप में भी दो-ढाई सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं। हिन्दुस्तान में तो यह भावना अंग्रेजी राज के विस्तार के साथ ही आई है। इस ग़ुलामी का एक रोशन पहलू यही है कि उसने हममें क़ौमियत की भावना को जन्म दिया। इस ख़ुदादाद मौक़े से फ़ायदा उठाकर हमें क़ौमियत के अटूट रिश्ते में बँध जाना है। भाषा और साहित्य का भेद ही ख़ास तौर से हमें भिन्न-भिन्न प्रांतीय जत्थों में बाँटे हुए है। अगर हम इन अलग करनेवाली बाधा को तोड़ दें तो राष्ट्रीय संस्कृति की एक धारा बहने लगेगी जो क़ौमियत की सबसे मज़बूत भावना है। यही मक़सद सामने रखकर हमने 'हंस' नाम की एक मासिक पत्रिका निकालनी शुरू की है जिसमें हरेक भाषा के नये और पुराने साहित्य की अच्छी से अच्छी चीज़ें देने की कोशिश करते हैं। इसी मकसद को पूरा करने के लिए हमने एक भारतीय साहित्य परिषद् या हिन्दुस्तान की क़ौमी अदबी सभा की बुनियाद डालने की तजवीज़ की है, और परिषद् का पहला जलसा २३, २४[१] को नागपूर में महात्मा गांधी की सदारत में क़रार पाया है। हम कोशिश कर रहे हैं कि परिषद् में सभी सूबे के साहित्यकार आयें और आपस में ख़यालात का तबादला करके हम तजवीज़ की ऐसी सूरत दें जिसमें वह अपना मक़सद पूरा कर सके। बाज़ सूबों में अभी से प्रांतीयता के जज़बात पैदा होने लगे हैं। 'सूबा सूबेवालों के लिए' की सदाएँ उठने लगी हैं। हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए की सदा इस प्रांतीयता की चीख-पुकार में कहीं सूख न जाय, इसका [ ७७ ]अंदेशा अभी से होने लगा है। अगर बंगाल बंगाल के लिए, पंजाब पंजाब के लिए की हवा ने ज़ोर पकड़ा तो वह क़ौमियत की जो जन्नत गुलामी के पसीने और ज़िल्लत से बनी थी मादूम हो जायगी और हिन्दुस्तान फिर छोटे-छोटे राजों का समूह होकर रह जायगा और फिर क़यामत के पहले उसे पराधीनता की क़ैद से नजात न होगी। हमें अफ़सोस तो यह है कि इस क़िस्म की सदाएँ उन दिशाओं से आ रही हैं जहाँ से हमें एकता की दिल बढ़ानेवाली सदाओं की उम्मीद थी। डेढ़ सौ साल की गुलामी ने कुछ-कुछ हमारी आँखें खोलनी शुरू की थीं कि फिर वही प्रांतीयता की आवाज़ें पैदा होने लगीं। और इस नई व्यवस्था ने उन भेद-भावों के फलने-फूलने के लिए ज़मीन तैयार कर दी है। अगर 'प्राविंशल अटानोमी' ने यह सूरत अख़्तियार की तो वह हिन्दुस्तानी क़ौमियत की जवान मौत नहीं, बाल मृत्यु होगी। और वह तफ़रीक़ जाकर रुकेगी कहाँ? उसकी तो कोई इति ही नहीं। सूबा सूबे के लिए, ज़िला ज़िले के लिए, हिन्दू हिन्दू के लिए, मुसलिम मुसलिम के लिए, ब्राह्मण ब्राह्मण के लिए, वैश्य वैश्य के लिए, कपूर कपूर के लिए, सकसेना सकसेना के लिए, इतनी दीवारों और कोठरियों के अन्दर क़ौमियत कै दिन साँस ले सकेगी! हम देखते हैं कि ऐतिहासिक परम्परा प्रांतीयता की ओर है। आज जो अलग-अलग सूबे हैं किसी ज़माने में अलग-अलग राज थे, क़ुदरती हदें भी उन्हें दूसरे सूबों से अलग किये हुए हैं, और उनकी भाषा, साहित्य, संस्कृति सब एक हैं। लेकिन एकता के ये सारे साधन रहते हुए भी वह अपनी स्वाधीनता को क़ायम न रख सके इसका सबब यही तो है कि उन्होंने अपने को अपने क़िले में बन्द कर लिया और बाहर की दुनिया से कोई सम्बन्ध न रखा। अगर उसी अलहदगी की रीति से वह फिर काम लेंगे तो फिर शायद तारीख़ अपने को दोहराये। हमें तारीख़ से यही सबक़ न लेना चाहिये कि हम क्या थे। यह भी देखना चाहिये कि हम क्या हो सकते थे। अकसर हमें तारीख़ को भूल जाना पड़ता है। भूत हमारे भविष्य का रहबर नहीं हो सकता। जिन कुपथ्यों से हम बीमार हुए थे, क्या अच्छे हो [ ७८ ]जाने पर फिर वही कुपथ्य करेंगे? और चूँकि इस अलहदगी की बुनियाद भाषा है, इसलिए हमें भाषा ही के द्वार से प्रांतीयता की काया में राष्ट्रीयता के प्राण डालने पड़ेंगे। प्रांतीयता का सदुपयोग यह है कि हम उस किसान की तरह जिसे मौरूसी पट्टा मिल गया हो अपनी ज़मीन को ख़ूब जोतें, उसमें ख़ूब खाद डालें और अच्छी से अच्छी फसल पैदा करें। मगर उसका यह आशय हर्गिज़ न होना चाहिये कि हम बाहर से अच्छे बीज और अच्छी खाद लाकर उसमें न डालें। प्रांतीयता अगर अयोग्यता को क़ायम रखने का बहाना बन जाय तो यह उस प्रांत का दुर्भाग्य होगा और राष्ट्र का भी। इस नये ख़तरे का सामना करना होगा और वह मेल पैदा करनेवाली शक्तियों को संगठित करने ही से हो सकता है।

सज्जनो, साहित्यिक जागृति किसी समाज की सजीवता का लक्षण है। साहित्य की सबसे अच्छी तारीफ़ जो की गई है वह यह है कि वह अच्छे से अच्छे दिल और दिमाग़ के अच्छे से अच्छे भावों और विचारों का संग्रह है। आपने अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ा है। उन साहित्यिक चरित्रों के साथ आपने उससे कहीं ज़्यादा अपनापा महसूस किया है जितना आप किसी यहाँ के साहब बहादुर से कर सकते हैं। आप उसकी इंसानी सूरत देखते हैं, जिसमें वही वेदनाएँ हैं, वही प्रेम है, वही कमज़ोरियाँ हैं जो हममें और आपमें हैं। वहाँ वह हुकूमत और ग़ुरूर का पुतला नहीं, बल्कि हमारे और आपका-सा इन्सान है जिसके साथ हम दुखी होते हैं, हँसते हैं, सहानुभूति करते हैं। साहित्य बदगुमानियों को मिटानेवाली चीज़ है। अगर आज हम हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के साहित्य से ज़्यादा परिचित हों, मुमकिन है हम अपने को एक दूसरे से कहीं ज्यादा निकट पायें। साहित्य में हम हिन्दू नहीं हैं, मुसलमान नहीं हैं, ईसाई नहीं हैं, बल्कि मनुष्य हैं, और वह मनुष्यता हमें और आपको आकर्षित करती है। क्या यह खेद की बात नहीं है कि हम दोनों, जो एक मुल्क में आठ सौ साल से रहते हैं, एक दूसरे के पड़ोस में रहते हैं, एक दूसरे के साहित्य से इतने बेख़बर [ ७९ ]हैं? यूरोपियन विद्वानों को देखिए। उन्होंने हिन्दुस्तान के मुतअल्लिक हरेक मुमकिन विषय पर तहक़ीक़ातें की हैं, पुस्तकें लिखी हैं, वह हमें उससे ज़्यादा जानते है जितना हम अपने को जानते हैं। उसके विपरीत हम एक दूसरे से अनभिज्ञ रहने ही में मग्न हैं। साहित्य में जो सबसे बड़ी ख़ूबी है वह यह है कि वह हमारी मानवता को दृढ़ बनाता है, हममें सहानुभूति और उदारता के भाव पैदा करता है। जिस हिन्दू ने कर्बला की मारके की तारीख़ पढ़ी है, यह असम्भव है कि उसे मुसलमानों से सहानुभूति न हो। उसी तरह जिस मुसलमान ने रामायण पढ़ा है, उसके दिल में हिन्दू मात्र से हमदर्दी पैदा हो जाना यक़ीनी है। कम-से-कम उत्तरी हिन्दुस्तान में हरेक शिक्षित हिन्दू-मुसलिम को अपनी तालीम अधूरी समझनी चाहिये, अगर वह मुसलमान है तो हिन्दुओं के और हिन्दू है तो मुसलमानों के साहित्य से अपरिचित है। हम दोनों ही के लिए दोनों लिपियों का और दोनों भाषाओं का ज्ञान लाज़मी है। और जब हम ज़िन्दगी के पंद्रह साल अँगरेज़ी हासिल करने में कुरबान करते हैं तो क्या महीने-दो-महीने भी उस लिपि और साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने में नहीं लगा सकते जिस पर हमारी क़ौमी तरक़्क़ी ही नहीं, क़ौमी ज़िन्दगी का दारमदार है?

 

  1. २३‘ २४ अप्रैल, १९३६।