"अमर बेलि बिन मूल की, प्रति-पालत है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि॥१॥
अधम बचन तैं को फल्यो, बैठि तार की छाहिं।
रहिमन काम न आवहीं, जे नीरस जग माहिं॥२॥
अनुचित-उचित रहीम लघु, करहिं बड़ेन के जोर।
ज्यों ससि के संयोग[१] तैं, पचवत[२] आगि चकोर॥३॥
अनुचित बचन न मानिए, यदपि गुराइस[३] गाढ़ि।
है रहीम रघुनाथ तैं, सुजस भरत को बाढ़ि॥४॥
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे तैं तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥५॥
अमी[४] पियावत मान बिन, रहिमन मोहिं न सुहाइ।
प्रेम सहित मरिबो भलो, जो बिष देइ बुलाइ॥६॥[५]..."
"माइ लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भङ्गडको बुलबुला का बड़ा चाव था। गांवमें कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे। बालक शिवशम्भु शर्म्मा बुलबुलें लड़ानेका चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुलको हाथपर बिठा कर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मणकुमारकों बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालकको बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथसे बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोधसे यदि पिता ने किसी मित्रकी बुलबुल किसी दिन ला भी दी, तो वह एक घण्टे से अधिक नहीं रह पाती थी। वह भी पिताकी निगरानी में!..."(पूरा पढ़ें)
हड़तालजॉन गाल्सवर्दी के "Strife" नामक तीन अंकों के नाटक का हिन्दी अनुवाद है। इसका प्रकाशन "हिन्दुस्तानी एकेडेमी, संयुक्त प्रांत", (प्रयाग) द्वारा १९३० ई॰ में किया गया।
"दोपहर का समय है, अन्डरवुड के भोजनालय में तेज़ आग जल रही है। आतिशदान के एक तरफ़ दुहरे दरवाज़े हैं, जो बैठक में जाते हैं। दूसरी तरफ़ एक दरवाज़ा है, जो बड़े कमरे में जाता है। कमरे के बीच में, एक लम्बी खाने की मेज़ है। उस पर कोई मेज़पोश नहीं है। वह लिखने की मेज़ बना ली गई है। उसके सिरे पर सभापति के स्थान पर जॉन ऐंथ्वनी बैठा हुआ वह एक बुड्ढा, बड़े डीलडौल का आदमी है। दाढ़ी मूँछ मुड़ी हुई, रंग लाल, घने सफ़ेद बाल और घनी काली भौंहें। चालढाल से वह सुस्त और कमज़ोर मालूम होता है, लेकिन उसकी आँखें बहुत तेज़ हैं। उसके पास पानी का एक गिलास रक्खा हुआ है। उसकी दाहिनी तरफ़ उसका बेटा एडगार बैठा अखबार पढ़ रहा है। उसकी उम्र ३० साल की होगी। सूरत से उत्साही मालूम होता है।"
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"( ३ ) लल्लूलालजी आगरे के रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। इनका जन्म संवत् १८२० में और मृत्यु संवत् १८८२ में हुई। संस्कृत के विशेष जानकार तो ये नहीं जान पड़ते पर भाषा-कविता का अभ्यास इन्हें था। उर्दू भी कुछ जानते थे। संवत् १८६० में कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से इन्होंने खड़ी बोली गद्य में "प्रेमसागर" लिखा जिसमें भगवत दशम स्कंध की कथा वर्णन की गई है। इंशा के समान इन्होंने केवल ठेठ हिंदी लिखने का संकल्प तो नहीं किया था पर विदेशी शब्दों के न आने देने की प्रतिज्ञा अवश्य लक्षित होती है। यदि ये उर्दू जानते होते तो ..."(पूरा पढ़ें)
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