स्वदेशरवीन्द्रनाथ टैगोर के चुने हुए निबन्धों का हिन्दी अनुवाद है। इसका प्रकाशन हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, (बम्बई) द्वारा १९१४ ई॰ में किया गया था।
हम पुराने भारतवर्ष के लोग हैं; बहुत ही प्राचीन और बहुत ही थके हुए हैं। मैं बहुधा अपने में ही अपनी इस जातीय भारी प्राचीनता का अनुभव किया करता हूँ। मन लगाकर जब अपने भीतर नजर डालता हूँ तब देखता हूँ कि वहाँ केवल चिन्ता, विश्राम और वैराग्य है। मानों हमारी भीतरी और बाहरी शक्तियों ने एक लम्बी छुट्टी ले रक्खी है। मानों जगत् के प्रातःकाल ही में हम लोग दफ्तर का कामकाज कर आये हैं, इसीसे इस दोपहर की कड़ी धूप में, जब कि और सब लोग कामकाज में लगे हुए हैं हम दर्वाजा बंद करके निश्चिन्त हो विश्राम या आराम कर रहे हैं; हमने अपनी पूरी तलब चुका ली है और पेंशन पा गये हैं। बस, अब उसी पेंशन पर गुजारा कर रहे हैं। मजे में हैं।...(पूरा पढ़ें)
"हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का पता लगाने और उसका थोड़ा भी इतिहास लिखने में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ हैं; क्योंकि इसके लिए पतेवार सामग्री कहीं नहीं मिलती। अधिकतर अनुमान ही के आधार पर इमारत खड़ी करनी पड़ती है, और यह सबका काम नहीं। इस विषय के विवेचन में पाश्चात्य पण्डितों ने बड़ा परिश्रम किया है। उनकी खोज की बदौलत अब इतनी सामग्री इकट्ठी हो गई है कि उसकी सहायता से हिन्दी की उत्पत्ति और विकास आदि का थोड़ा-बहुत पता लग सकता है। हिन्दी की माता कौन है? मातामही कौन है? प्रमातामही कौन है? कौन कब पैदा हुई? कौन कितने दिन तक रही? हिन्दी का कुटुम्ब कितना बड़ा है? उसकी इस समय हालत क्या है? इन सब बातों का पता लगाना-और फिर ऐतिहासिक पता, ऐसा वैसा नहीं—बहुत कठिन काम है। मैक्समूलर, काल्डवेल, बीम्स और हार्नली आदि विद्वानों ने इन विषयों पर बहुत कुछ लिखा है और बहुत-सी अज्ञात बातें जानी हैं, पर खोज, विचार और अध्ययन से भाषाशास्त्र-विषयक नित नई बातें मालूम होती जाती हैं। इससे पुराने सिद्धान्तों में परिवर्तन दरकार होता है! कोई-कोई सिद्धान्त तो बिलकुल ही असत्य साबित हो जाते हैं। अतएव भाषाशास्त्र की इमारत हमेशा ही गिरती रहती है और हमेशा ही उसकी मरम्मत हुआ करती है।..."(पूरा पढ़ें)
स्कंदगुप्त जयशंकर प्रसाद द्वारा १९२८ ई. में लिखा गया नाटक है। गुप्त-काल (२७५ ई०---५४० ई० तक) अतीत भारत के उत्कर्ष का मध्याह्न था। उस समय आर्य्य-साम्राज्य मध्य-एशिया से जावा-सुमात्रा तक फैला हुआ था। समस्त एशिया पर भारतीय संस्कृति का झंडाफहरा रहा था। इसी गुप्तवंश का सबसे उज्ज्वल नक्षत्र था---स्कंदगुप्त। उसके सिंहासन पर बैठने के पहले ही साम्राज्य में भीतरी षड्यंत्र उठ खड़े हुए थे। साथ ही आक्रमणकारी हूणों का आतंक देश में छा गया था और गुप्त-सिंहासन डाँवाडोल हो चला था। ऐसी दुरवस्था में लाखों विपत्तियाँ सहते हुए भी जिस लोकोत्तर उत्साह और पराक्रम से स्कंदगुप्त ने इस स्थिति से आर्य साम्राज्य की रक्षा की थी---पढ़कर नसों में बिजली दौड़ जाती हैं। अन्त में साम्राज्य का एक-छत्र चक्रवर्तित्व मिलने पर भी उसे अपने वैमात्र एवं विरोधी भाई पुरगुप्त के लिये त्याग देना, तथा, स्वयं आजन्म कौमार जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा करना---ऐसे प्रसंग हैं जो उसके महान चरित पर मुग्ध ही नहीं कर देते, बल्कि देर तक सहृदयों को करुणासागर में निमग्न कर देते हैं। (स्कंदगुप्त पूरा पढ़ें)
रबीन्द्रनाथ ठाकुर या रबीन्द्रनाथ टैगोर (7 मई 1861 — 7 अगस्त 1941) नोबल पुरस्कार विजेता बाँग्ला कवि, उपन्यासकार, निबंधकार, दार्शनिक और संगीतकार हैं। विकिस्रोत पर उपलब्ध इनकी रचनाएँ:
"सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते हैं जो पूर्वापर संबंध से किसी भी संज्ञा के बदले उपयोग में आता है; मैं (बोलने-वाला), तू (सुननेवाला ), यह (निकटवर्ती वस्तु), वह (दूरवर्ती वस्तु), इत्यादि। हिंदी के प्रायः सभी वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का एक भेद मानते हैं। संस्कृत में "सर्व" (प्रातिपदिक) के समान जिन नामों (संज्ञाओं) का रूपांतर होता है उनका एक अलग वर्ग मानकर उसका नाम 'सर्वनाम' रक्खा गया है। 'सर्वनाम' शब्द एक और अर्थ में भी आता है। वह यह है कि सर्व (सब) नामों (सज्ञाओं) के बदले में जो शब्द आता है उसे सर्वनाम कहते हैं। हिदी मे 'सर्वनाम' शब्द से यही (पिछला) अर्थ लिया जाता है और इसीके अनुसार वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का एक भेद मानते हैं।..."(पूरा पढ़ें)
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