कुछ विचार/कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार

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क़ौमी भाषा के विषय में कुछ विचार

भाषा ही राष्ट्र की बुनियाद है

बहनो और भाइयो,

किसी क़ौम के जीवन, और उसकी तरक्की में भाषा का कितना बड़ा हाथ है, इसे हम सब जानते हैं और उसकी तशरीह करना आप-जैसे विद्वानों की तौहीन करना है। यह दो पैरोंवाला जीव उसी वक्त आदमी बना, जब उसने बोलना सीखा। यों तो सभी जीवधारियों की एक भाषा होती है। वह उसी भाषा में अपनी खुशी और रंज, अपना क्रोध और भय, अपनी हाँ या नहीं बतला दिया करता है। कितने ही जीव तो केवल इशारों से ही अपने दिल का हाल और स्वभाव ज़ाहिर करते हैं। यह दर्जा आदमी ही को हासिल है कि वह अपने मन के भाव और विचार सफ़ाई और बारीकी से बयान करे। समाज की बुनियाद भाषा है। भाषा के बग़ैर किसी समाज का ख़्याल भी नहीं किया जा सकता। किसी स्थान की जलवायु, उसके नदी और पहाड़, उसकी सर्दी और गर्मी और अन्य मौसमी हालतें सब मिल-जुलकर वहाँ के जीवों में एक विशेष आत्मा का विकास करती हैं, जो प्राणियों की शक्ल-सूरत, व्यवहार-विचार और स्वभाव पर अपनी छाप लगा देती हैं और अपने को व्यक्त करने के लिए एक विशेष भाषा या बोली का निर्माण करती हैं। इस तरह हमारी भाषा का सीधा सम्बन्ध हमारी आत्मा से है। यों कह सकते हैं कि भाषा हमारी आत्मा का बाहरी रूप है। वह हमारी शकल-सूरत हमारे रंग-रूप ही की भाँति हमारी आत्मा से निकलती है। उसके एक-एक अक्षर में हमारी आत्मा का प्रकाश है। ज्यों-ज्यों हमारी आत्मा का विकास होता है, हमारी भाषा भी प्रौढ़ और पुष्ट होती जाती है। आदि में जो लोग इशारों में बात करते थे, फिर अक्षरों में अपने भाव [ १२२ ]प्रकट करने लगे, वही लोग फिलॉसफी लिखते और शायरी करते हैं, और जब ज़माना बदल जाता है और हम उस जगह से निकलकर दुनिया के दूसरे हिस्सों में आबाद हो जाते हैं, हमारा रङ्ग-रूप भी बदल जाता है। फिर भी भाषा सदियों तक हमारा साथ देती रहती है और जितने लोग हमज़बान हैं, उनमें एक अपनापन, एक आत्मीयता, एक निकटता का भाव जगाती रहती है। मनुष्य में मेल-मिलाव के जितने साधन हैं, उनमें सबसे मजबूत, असर डालनेवाला रिश्ता भाषा का है। राजनीतिक, व्यापारिक या धार्मिक नाते जल्द या देर में कमज़ोर पड़ सकते हैं और अक्सर टूट जाते हैं। लेकिन भाषा का रिश्ता समय की और दूसरी बिखेरनेवाली शक्तियों की परवा नहीं करता, और एक तरह से अमर हो जाता है।

क़ौमी भाषा की ओर हमारी उदासीनता

लेकिन आदि में मनुष्यों के जैसे छोटे-छोटे समूह होते हैं, वैसी ही छोटी-छोटी भाषाएँ भी होती हैं। अगर ग़ौर से देखिये, तो २०-२५ कोस के अन्दर ही भाषाओं में कुछ-न-कुछ फ़र्क हो जाता है। कानपुर और झाँसी की सरहदें मिली हुई हैं। केवल एक नदी का अन्तर है; लेकिन नदी की उत्तर तरफ़ कानपुर में जो भाषा बोली जाती है, उसमें और नदी की दक्षिण तरफ़ की भाषा में साफ़-साफ़ फ़र्क नज़र आता है। सिर्फ़ प्रयाग में कम-से-कम दस तरह की भाषाएँ बोली जाती हैं, लेकिन जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है, यह स्थानीय भाषाएँ किसी सूबे की भाषा में जा मिलती और सूबे की भाषा एक सार्वदेशिक भाषा का अंग बन जाती है। हिन्दी ही में ब्रजभाषा, बुन्देलखण्डी, अवधी, मैथिल, भोजपुरी आदि भिन्न-भिन्न शाखाएँ हैं, लेकिन जैसे छोटी-छोटी धाराओं के मिल जाने से एक बड़ा दरिया बन जाता है, जिसमें मिलकर नदियाँ अपने को खो देती हैं, उसी तरह ये सभी प्रान्तीय भाषाएँ हिन्दी की मातहत हो गई हैं और आज उत्तर भारत का एक देहाती भी हिन्दी समझता है और अवसर पड़ने पर बोलता है; लेकिन [ १२३ ]हमारे मुल्की फैलाव के साथ हमें एक ऐसी भाषा की ज़रूरत पड़ गई है, जो सारे हिन्दुस्तान में समझी और बोली जाय, जिसे हम हिन्दी या गुजराती या मराठी या उर्दू न कहकर हिन्दुस्तानी भाषा कह सकें, जिसे हिन्दुस्तान का प्रत्येक पढ़ा या बेपढ़ा आदमी उसी तरह समझे या बोले, जैसे हर एक अंग्रेज़ या जर्मन या फ्रांसीसी फ्रेंच या जर्मन या अंग्रेज़ी भाषा बोलता और समझता है। हम सूबे की भाषाओं के विरोधी नहीं हैं। आप उनमें जितनी उन्नति कर सकें, करें; लेकिन एक क़ौमी भाषा का मरकज़ी सहारा लिये बगैर आपके राष्ट्र की जड़ कभी मज़बूत नहीं हो सकती। हमें रञ्ज के साथ कहना पड़ता है कि अब तक हमने क़ौमी भाषा की ओर जितना ध्यान देना चाहिये, उतना नहीं दिया है। हमारे पूज्य नेता सब-के-सब ऐसी ज़ुबान की ज़रूरत को मानते हैं। लेकिन, अभी तक उनका ध्यान ख़ास तौर पर इस विषय की ओर नहीं आया। हम ऐसा राष्ट्र बनाने का स्वप्न देख रहे हैं, जिसकी बुनियाद इस वक्त सिर्फ़ अंग्रेजी हुकूमत है। इस बालू की बुनियाद पर हमारी क़ौमियत का मीनार खड़ा किया जा रहा है। और अगर हमने क़ौमियत की सबसे बड़ी शर्त, यानी क़ौमी ज़ुबान की तरफ़ से लापरवाही को, तो इसका अर्थ यह होगा कि आपकी क़ौम को ज़िन्दा रखने के लिए अंग्रेजी की मरकज़ी हुकूमत का कायम रहना लाज़िम होगा; वरना कोई मिलानेवाली ताक़त न होने के कारण हम सब बिखर जायँगे और प्रान्तीयता जोर पकड़कर राष्ट्र का गला घोंट देगी, और जिस बिखरी हुई दशा में हम अंग्रेज़ों के आने के पहले थे, उसी में फिर लौट जायँगे।

इस उदासीनता का कारण

इस लापरवाही का ख़ास सबब है—अंग्रेज़ी ज़ुबान का बढ़ता हुआ प्रचार और हममें आत्म-सम्मान की वह कमी, जो गुलामी की शर्म को नहीं महसूस करती। यह दुरुस्त है कि आज भारत की दफ़्तरी जबान अंग्रेज़ी है और भारत की जनता पर शासन करने में अंग्रेज़ों का हाथ [ १२४ ]बटाने के लिए हमारा अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी है। इल्म और हुनर और ख़यालात में जो इनक़लाब होते रहते हैं, उनके वाक़िफ़ होने के लिए भी अंग्रेज़ी ज़ुबान सीखना लाज़िमी हो गया है। ज़ाती शोहरत और तरक्की की सारी कुंजियाँ अंग्रेज़ी के हाथ में हैं और कोई भी उस खजाने को नाचीज़ नहीं समझ सकता। दुनिया की तहज़ीबी या सांस्कृतिक विरादरी में मिलने के लिए अंग्रेज़ी ही हमारे लिए एक दरवाज़ा है और उसकी तरफ़ से हम आँख नहीं बन्द कर सकते; लेकिन हम दौलत और अख़्बियार की दौड़ में, और बेतहाशा दौड़ में क़ौमी भाषा की ज़रूरत बिल्कुल भूल गये और उस ज़रूरत की याद कौन दिलाता? आपस में तो अंग्रेज़ी का व्यवहार था ही, जनता से ज़्यादा सरोकार था ही नहीं, और अपनी प्रान्तीय भाषा से सारी ज़रूरतें पूरी हो जाती थीं। क़ौमी भाषा का स्थान अंग्रेज़ी ने ले लिया और उसी स्थान पर विराजमान है। अंग्रेज़ी राजनीति का, व्यापार का, साम्राज्यवाद का, हमारे ऊपर जैसा आतंक है, उससे कहीं ज़्यादा अंग्रेज़ी भाषा का है। अंग्रेज़ी राजनीति से, व्यापार से, साम्राज्यवाद से तो आप बग़ावत करते हैं; लेकिन अंग्रेज़ी भाषा को आप गुलामी के तौक़ की तरह गर्दन में डाले हुए हैं। अंग्रेज़ी राज्य की जगह आप स्वराज्य चाहते हैं। उनके व्यापार की जगह अपना व्यापार चाहते हैं; लेकिन अंग्रेज़ी भाषा का सिक्का हमारे दिलों पर बैठ गया है। उसके बग़ैर हमारा पढ़ा-लिखा समाज़ अनाथ हो जायगा। पुराने समय में आर्य और अनार्य्य का भेद था, आज अंग्रेज़ीदाँ और गैर-अंग्रेज़ीदाँ का भेद है। अंग्रेज़ीदाँ आर्य्य है। उसके हाथ में, अपने स्वामियों की कृपा-दृष्टि की बदौलत कुछ अख़्तयाय है, रोब है, सम्मान है; ग़ैर-अंग्रेज़ीदाँ अनार्य है और उसका काम केवल आर्य्यो की सेवा-टहल करना है और उनके भोग-विलास और भोजन के लिए सामग्री जुटाना है। यह आर्य्यवाद बड़ी तेजी से बढ़ रहा है, दिन-दूना रात चौगुना। अगर सौ-दो सौ साल में भी वह सारे भारत में फैल जाता, तो हम कहते बला से, विदेशी ज़ुबान है, हमारा काम तो चलता है; रेकिन इधर तो हज़ार-दो हज़ार साल में भी उसके [ १२५ ]जनता में फैलने का इमकान नहीं। दूसरे वह पढ़े-लिखों को जनता से अलग किये चली जा रही है। यहाँ तक कि इनमें एक दीवार खिंच गई है। साम्राज्यवादी जाति की भाषा में कुछ तो उसके घमण्ड और दबदबे का असर होना ही चाहिये। हम अँग्रेज़ी पढ़कर अगर अपने को महकूम जाति का अङ्ग भूलकर हाकिम जाति का अङ्ग समझने लगते हैं, कुछ वही ग़रूर, कुछ वही अहम्मन्यता, 'हम चुनीं दीगरे नेस्त' वाला भाव, बहुतों में क़सदन, और थोड़े आदमियों में बेजाने पैदा हो जाता है, तो कोई ताज्जुब नहीं। हिन्दुस्तानी साहबों की अपनी बिरादरी हो गई है, उनका रहन-सहन, चाल-ढाल, पहनावा-बर्ताव सब साधारण जनता से अलग है, साफ मालूम होता है कि यह कोई नई उपज है। जो हमारा अँग्रेज़ी साहब करता है, वही हमारा हिन्दुस्तानी साहब करता है, करने पर मजबूर है। अंग्रेज़ियत ने उसे हिप्नोटाइज कर दिया है, उसमें बेहद उदारता आ गई है, छूतछात से सोलहो आना नफ़रत हो गई है, वह अँग्रेज़ी साहब की मेज़ का जूठन भी खा लेगा और उसे गुरु का प्रसाद समझ लेगा; लेकिन जनता उसकी उदारता में स्थान नहीं पा सकती, उसे तो वह काला आदमी समझता है। हाँ, जब कभी अँग्रेज़ी साहबों से उसे कोई ठोकर मिलती है, तो वह दौड़ा हुआ जनता के पास फ़रियाद करने जाता है, उसी जनता के पास, जिसे वह काला आदमी और अपना भोग्य समझता है। अगर अँग्रेज़ी स्वामी उसे नौकरियाँ देता जाय, उसे, उसके लड़कों, पोतों, सबको, तो उसे अपने हिन्दुस्तानी या गुलाम होने का कभी ख़्याल भी न आयगा। मुश्किल तो यही है कि वहाँ भी गुञ्जायश नहीं है। ठोकरें-पर-ठोकरें मिलती हैं, तब यह क्लास देश-भक्त बन जाता है और जनता का वकील और नेता बनकर उसका ज़ोर लेकर अँग्रेज साहब का मुक़ाबिला करना चाहता है। तब उसे ऐसी भाषा की कमी महसूस होती है, जिसके द्वारा वह जनता तक पहुँच सके। कांग्रेस को जो थोड़ा-बहुत यश मिला, वह जनता को उसी भाषा में अपील करने से मिला। हिन्दुस्तान में इस वक्त [ १२६ ] करीब २४-२५ करोड़ आदमी हिन्दुस्तानी भाषा समझ सकते हैं। यह क्या दुःख की बात नहीं कि वे, जो भारतीय जनता की वकालत के दावेदार हैं, वह भाषा न बोल सकें और न समझ सकें, जो पचीस करोड़ की भाषा है, और जो थोड़ी-सी कोशिश से सारे भारतवर्ष की भाषा बन सकती है? लेकिन अंग्रेज़ी के चुने हुए शब्दों और महाविरों और मँजी हुई भाषा में अपनी निपुणता और कुशलता दिखाने का रोग इतना बढ़ा हुआ है कि हमारी क़ौमी सभाओं में सारी कार्रवाई अँग्रेज़ी में होती है, अँग्रेज़ी में भाषण दिये जाते हैं, प्रस्ताव पेश किये जाते हैं सारी लिखा-पढ़ी अँग्रेज़ी में होती है, उस संस्था में भी, जो अपने को जनता की संस्था कहती है। यहाँ तक कि सोशलिस्ट और कम्यूनिस्ट भी, जो जनता के ख़ासुलख़ास झंडे-बरदार हैं, सभी कार्रवाई अँग्रेज़ी में करते हैं। जब हमारी क़ौमी संस्थाओं की यह हालत है, तो हम सरकारी महकमों और युनिवर्सिटियों से क्या शिकायत करें? मगर २०० वर्ष तक अँग्रेज़ी पढ़ने-लिखने और बोलने के बाद भी एक हिन्दुस्तानी भी ऐसा नहीं निकला, जिसकी रचना का अँग्रेज़ी में आदर हो। हम अँग्रेज़ी भाषा की ख़ैरात खाने के इतने आदी हो गये हैं कि अब हमें हाथ-पाँव हिलाते कष्ट होता है। हमारी मनोवृत्ति कुछ वैसी ही हो गई है, जैसी अक्सर भिखमंगों की होती है जो इतने आराम-तलब हो जाते हैं कि मजदूरी मिलने पर भी नहीं करते। यह ठीक है कि कुदरत अपना काम कर रही है और जनता क़ौमी भाषा बनाने में लगी हुई है। उसका अंग्रेज़ी न जानना, क़ौम की भाषा के लिए अनुकूल जलवायु दे रहा है। इधर सिनेमा के प्रचार ने भी इस समस्या को हल करना शुरू कर दिया है और ज्यादातर फिल्में हिन्दुस्तानी भाषा में ही निकल रही हैं। सभी ऐसी भाषा में बोलना चाहते हैं, जिसे ज़्यादा-से-ज़्यादा आदमी समझ सकें, लेकिन जब जनता अपने रहनुमाओं को अंग्रेज़ी में बोलते और लिखते देखती है, तो क़ौमी भाषा से उसे जो हमदर्दी है, उसमें ज़ोर का धक्का लगता है, उसे कुछ ऐसा ख़्याल होने लगता है कि क़ौमी भाषा कोई ज़रूरी चीज़ नहीं है। जब उसके नेता, जिनके [ १२७ ]क़दमों के निशान पर वह चलती है, और जो जनता की रुचि बनाते हैं, क़ौमी भाषा को हक़ीर समझें—सिवाय इसके कि कभी- कभी श्रीमुख से उसकी तारीफ़ कर दिया करें—तो जनता से यह उम्मीद करना कि वह क़ौमी भाषा के मुर्दे को पूजती जायगी, उसे बेवकूफ़ समझना है। और जनता को आप जो चाहें इलज़ाम दे लें, वह बेवकूफ़ नहीं है। आपने समझदारी का जो तराजू अपने दिल में बना रखा है, उस पर वह चाहे पूरी न उतरे; लेकिन हम दावे से कह सकते हैं कि कितनी ही बातों में वह आपसे और हमसे कहीं ज़्यादा समझदार है। क़ौमी भाषा के प्रचार का एक बहुत बड़ा ज़रिया हमारे अखबार हैं; लेकिन अख़बारों की सारी शक्ति नेताओं के भाषणों, व्याख्यानों और बयानों के अनुवाद करने में ही ख़र्च हो जाती है, और चूँकि शिक्षित समाज ऐसे अख़बार ख़रीदने और पढ़ने में अपनी हतक समझता है, इसलिए ऐसे पत्रों का प्रचार बढ़ने नहीं पाता और आमदनी कम होने के सबब वे पत्र को मनोरंजक नहीं बना सकते। वाइसराय या गवर्नर अंग्रेज़ी में बोलें, हमें कोई एतराज़ नहीं; लेकिन अपने ही भाइयों के खयालात तक पहुँचने के लिए हमें अंग्रेज़ी से अनुवाद करना पड़े, यह हालत भारत जैसे गुलाम देश के सिवा और कहीं नज़र नहीं आ सकती। और ज़बान की गुलामी ही असली गुलामी है। ऐसे भी देश संसार में हैं, जिन्होंने हुक्मराँ जाति की भाषा को अपना लिया। लेकिन उन जातियों के पास न अपनी तहजीब या सभ्यता थी, और न अपना कोई इतिहास था, न अपनी कोई भाषा थी। वे उन बच्चों की तरह थे, जो थोड़े ही दिनों में अपनी मातृभाषा भूल जाते हैं और नई भाषा में बोलने लगते हैं। क्या हमारा शिक्षित भारत वैसा ही बालक है? ऐसा मानने की इच्छा नहीं होती; हालाँकि लक्षण सब वही हैं।

क़ौमी भाषा का रूप

सवाल यह होता है कि जिस क़ौमी भाषा पर इतना जोर दिया जा रहा है, उसका रूप क्या है? हमें खेद है कि अभी तक हम उसकी [ १२८ ] क़ोई ख़ास सूरत नहीं बना सके हैं, इसलिए कि जो लोग उसका रूप बना सकते थे, वे अंग्रेज़ी के पुजारी थे और हैं; मगर उसकी कसौटी यही है कि उसे ज़्यादा-से-ज़्यादा आदमी समझ सकें। हमारी कोई सूबेवाली भाषा इस कसौटी पर पूरी नहीं उतरती। सिर्फ हिन्दुस्तानी ऐसी भाषा है, जिसे यह दर्जा हासिल है। इसे उर्दू या हिन्दी का अलग-अलग नाम न देकर मैं हिन्दुस्तानी कहता हूँ; क्योंकि मेरे ख़्याल में हिन्दी और उर्दू दोनों एक ज़ुबान हैं। क्रिया और कर्त्ता, फेल और फ़ाइल, जब एक हैं, तो उनके एक होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। उर्दू वह हिन्दुस्तानी ज़ुबान है, जिसमें फ़ारसी अरबी के लफ़्ज ज़्यादा हों, उसी तरह हिन्दी वह हिन्दुस्तानी है, जिसमें संस्कृत के शब्द ज्यादा हो; लेकिन जिस तरह अंग्रेज़ी में चाहे लैटिन या ग्रीक शब्द अधिक हों या एंग्लोसेक्सन, दोनों ही अंग्रेज़ी हैं, उसी भाँति हिन्दुस्तानी भी अन्य भाषाओं के शब्दों के मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो जाती। साधारण बात-चीत में तो हम हिन्दुस्तानी का व्यवहार करते ही हैं। थोड़ी-सी कोशिश से हम इसका व्यवहार उन सभी कामों में कर सकते हैं, जिनसे जनता का सम्बन्ध है। मैं यहाँ एक उर्दू पत्र से दो-एक उदाहरण देकर अपना मतलब साफ़ कर देना चाहता हूँ—

'एक ज़माना था, जब देहातों में चरख़ा और चक्की के बग़ैर कोई घर ख़ाली न था। चक्की चूल्हे से छुट्टी मिली, तो चरख़े पर सूत कात लिया। औरतें चक्की पीसती थीं इससे उनकी तन्दुरुस्ती बहुत अच्छी रहती थी, उनके बच्चे मज़बूत और जफ़ाकश होते थे; मगर अब तो अंग्रेज़ी तहज़ीब और मुआशरत ने सिर्फ शहरों में ही नहीं देहातों में भी काया पलट दी है। हाथ की चक्की के बजाय अब मशीन का पिसा हुआ आटा इस्तेमाल किया जाता है। गाँवों में चक्की न रही, तो चक्की पर गीत कौन गाये? जो बहुत ग़रीब हैं, वे अब भी घर की चक्की का आटा इस्तेमाल करते हैं। चक्की पीसने का वक्त अमूमन रात का तीसरा पहर होता है। सरे शाम ही से पीसने के लिए अनाज रख लिया जाता है और पिछले पहर से उठकर औरतें चक्की पीसने बैठ जाती हैं।' [ १२९ ]

इस पैराग्राफ को मैं हिन्दुस्तानी का बहुत अच्छा नमूना समझता हूँ, जिसे समझने में किसी भी हिन्दी समझनेवाले आदमी को ज़रा भी मुश्किल न पड़ेगी। अब मैं उर्दू का एक दूसरा पैरा देता हूँ—

'उसकी वफ़ा का जज़बा सिर्फ़ ज़िन्दा हस्तियों के लिए महदूद न था। वह ऐसी परवाना थी, कि न सिर्फ जलती हुई शमा पर निसार होती थी, बल्कि बुझी हुई शमा पर भी ख़ुद को क़ुरबान कर देती थी। अगर मौत का ज़ालिम हाथ उसके रफ़ीक़ हयात को छीन लेता था, तो वह बाक़ी ज़िन्दगी उसके नाम और उसकी याद में बसर कर देती थी। एक की कहलाने और एक की हो जाने के बाद फिर दूसरे किसी शख़्स का ख़याल भी उसके वफ़ापरस्त दिल में भूलकर भी न उठता था।'

अगर पहले जुमले को हम इस तरह लिखें—'वह सिर्फ जिन्दा आदमियों के साथ वफा न करती थी' और 'वफ़ापरस्त' की जगह 'प्रेमी', 'रफ़ीक़ हयात' की जगह 'बीवी' का व्यवहार करें, तो वह साफ़ हिन्दुस्तानी बन जायगी और फिर उसके समझने में किसी को दिक्क़त न होगी। अब मैं एक हिन्दी-पत्र से एक पैरा नक़ल करता हूँ

'मशीनों के प्रयोग से आदमियों का बेकार होना और नये-नये आविष्कारों से बेकारी का बढ़ना, फिर बाजार की कमी, रही-सही कमी को और भी पूरा कर देती है। बेकारी की समस्या को अधिक भयंकर रूप देने के लिए यही काफी था; लेकिन इसके ऊपर संसार में हर दसवें साल की जन-गणना देखने से मालूम हो रहा है कि जन-संख्या बढ़ती ही जा रही है। पूँजीवाद कुछ लोगों को धनी बनाकर उनके लिए सुख और विलास की नई-नई सामग्री जुटा सकता है।'

यह हिन्दी के एक मशहूर और माने हुए विद्वान् की शैली का नमूना है, इसमें 'प्रयोग', 'आविष्कार', 'समस्या' यह तीन शब्द ऐसे हैं, जो उर्दूदाँ लोगों को अपरिचित लगेंगे। बाक़ी सभी भाषाओं के बोलनेवालों की समझ में आ सकते हैं। इससे साबित हो रहा है कि हिन्दी या उर्दू में कितने थोड़े रद्दोबदल से उसे हम क़ौमी भाषा बना सकते हैं। हमें सिर्फ अपने शब्दों का कोष बढ़ाना पड़ेगा और वह [ १३० ] भी ज़्यादा नहीं। एक दूसरे लेख की शैली का नमूना और लीजिये–

'अपने साथ रहनेवाले नागरिकों के साथ हमारा जो रोज़-रोज़ का सम्बन्ध होता है, उसमें क्या आप समझते हैं कि वस्तुतः न्यायकर्ता , जेल के अधिकारी और पुलीस के कारण ही समाज-विरोधी कार्य बढ़ने नहीं पाते? न्यायकर्ता तो सदा न ख़ूँख्वार बना रहता है, क्योंकि वह क़ानून का पागल है, अभियोग लगानेवाला, पुलीस को ख़बर देनेवाला, पुलीस का गुप्तचर, तथा इसी श्रेणी के और लोग जो अदालतों के इर्द गिर्द मँडराया करते हैं और किसी प्रकार अपना पेट पालते हैं, क्या यह लोग व्यापक रूप से समाज में दुर्नीति का प्रचार नहीं करते? मामलों-मुकदमों की रिपोर्ट पढ़िये, पर्दे के अन्दर नज़र डालिये, अपनी विश्लेषक बुद्धि को अदालतों के बाहरी भाग तक ही परिमित न रखकर भीतर ले जाइये, तब आपको जो कुछ मालूम होगा, उससे आपका सिर बिल्कुल भन्ना उठेगा'।

यहाँ अगर हम 'समाज-विरोधी' की जगह 'समाज को नुक़सान पहुँचानेवाले', 'अभियोग' की जगह 'जुर्म', 'गुप्तचर' की जगह 'मुख़बिर', श्रेणी' की जगह 'दर्जा', 'दुर्नीति' की जगह 'बुराई', 'विश्लेषक बुद्धि' की जगह 'परख', 'परिमित' की जगह 'बन्द' लिखें तो वह सरल और सुबोध हो जाती है और हम उसे हिन्दुस्तानी कह सकते हैं।

इस रूप का प्रचार कैसे हो?

इन उदाहरणों या मिसालों से ज़ाहिर है कि हिन्दी-कोष में उर्दू के और उर्दू-कोष में हिन्दी के शब्द बढ़ाने से काम चल सकता है। यह भी निवेदन कर देना चाहता हूँ कि थोड़े दिन पहले फ़ारसी और उर्दू के दरबारी भाषा होने के सबब से फ़ारसी के शब्द जितना रिवाज़ पा गये हैं, उतना संस्कृत के शब्द नहीं। संस्कृत शब्दों के उच्चारण में जो कठिनाई होती है, इसको हिन्दी के विद्वानों ने पहले ही देख लिया और उन्होंने हज़ारों संस्कृत शब्दों को इस तरह बदल दिया कि वह आसानी में बोले जा सकें। ब्रजभाषा और अवधी में इसकी बहुत-सी [ १३१ ]मिसालें मिलती हैं, जिन्हें यहाँ लाकर मैं आपका समय नहीं ख़राब करना चाहता; इसलिए कौमी भाषा में भी उनका वही रूप रखना पड़ेगा, और संस्कृत शब्दों की जगह, जिन्हें सर्व-साधारण नहीं समझते, ऐसे फ़ारसी शब्द रखने पड़ेंगे, जो विदेशी होकर भी इतने आम हो गये हैं कि उनको समझने में जनता को कोई दिक्क़त नहीं होती। 'अभियोग' का अर्थ वही समझ सकता है, जिसने संस्कृत पढ़ी हो। जुर्म का मतलब वे-पढ़े भी समझते हैं। 'गुप्तचर' की जगह 'मुखबिर', 'दुर्नीति' की जगह 'बुराई' ज्यादा सरल शब्द है। शुद्ध हिन्दी के भक्तों को मेरे इस बयान से मतभेद हो सकता है। लेकिन अगर हम ऐसी क़ौमी जबान चाहते हैं, जिसे ज्यादा-से-ज्यादा आदमी समझ सकें, तो हमारे लिए दूसरा रास्ता नहीं है, और यह कौन नहीं चाहता कि उसकी बात ज्यादा-से-ज्यादा लोग समझें, ज्यादा-से-ज्यादा आदमियों के साथ उसका आत्मिक सम्बंध हो। हिन्दी में एक फरीक़ ऐसा है, जो यह कहता है कि चूँकि हिन्दुस्तान की सभी सूबेवाली भाषाएं संस्कृत से निकली हैं और उनमें संस्कृत के शब्द अधिक हैं इसलिए हिन्दी में हमें अधिक-से-अधिक संस्कृत के शब्द लाने चाहिये, ताकि अन्य प्रान्तों के लोग उसे आसानी से समझें। उर्दू की मिलावट करने से हिन्दी को कोई फायदा नहीं। उन मित्रों को मैं यही जवाब देना चाहता हूँ कि ऐसा करने से दूसरे सूबों के लोग चाहे आपकी भाषा समझ लें, लेकिन खुद हिन्दी बोलनेवाले न समझेंगे। क्योंकि, साधारण हिन्दी बोलनेवाला आदमी शुद्ध संस्कृत शब्दों का जितना व्यवहार करता है, उससे कहीं ज्यादा फारसी शब्दों का। हम इस सत्य की ओर से आँखें नहीं बन्द कर सकते, और फिर इसकी ज़रूरत ही क्या है, कि हम भाषा को पवित्रता की धुन में तोड़-मोड़ डालें। यह जरूर सच है कि बोलने की भाषा और लिखने की भाषा में कुछ-न-कुछ अन्तर होता है। लेकिन लिखित भाषा सदैव बोल-चाल की भाषा से मिलते जुलते रहने की कोशिश किया करती है। लिखित भाषा की खूबी यही है कि ल वह बोल-चाल की भाषा से मिले। इस आदर्श से वह जितनी [ १३२ ]ही दूर जाती है, उतनी ही अस्वाभाविक हो जाती है। बोल-चाल की भाषा भी अवसर और परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है। विद्वानों के समाज में जो भाषा बोली जाती है, वह बाज़ार की भाषा से अलग होती है। शिष्ट भाषा की कुछ-न-कुछ मर्यादा तो होनी ही चाहिये; लेकिन इतनी नहीं कि उससे भाषा के प्रचार में बाधा पड़े। फ़ारसी शब्दों में शीन-क़ाफ़ की बड़ी क़ैद है; लेकिन क़ौमी भाषा में यह क़ैद ढीली करनी पड़ेगी। पंजाब के बड़े-बड़े विद्वान भी 'क़' की जगह 'क' ही का व्यवहार करते हैं। मेरे ख़याल में तो भाषा के लिए सबसे महत्त्व की चीज़ है कि उसे ज़्यादा-से-ज़्यादा आदमी, चाहे वे किसी प्रान्त के रहनेवाले हों, समझें, बोलें, और लिखें। ऐसी भाषा न पंडिताऊ होगी और न मौलवियों की। उसका स्थान इन दोनों के बीच में है। यह जाहिर है कि अभी इस तरह की भाषा में इबारत की चुस्ती और शब्दों के विन्यास की बहुत थोड़ी गुञ्जायश है। और जिसे हिन्दी या उर्दू पर अधिकार है, उसके लिए चुस्त और सजीली भाषा लिखने का लालच बड़ा जोरदार होता है। लेखक केवल अपने मन का भाव नहीं प्रकट करना चाहता; बल्कि उसे बना-सँवारकर रखना चाहता है। बल्कि यों कहना चाहिये कि वह लिखता है रसिकों के लिए, साधारण जनता के लिए नहीं। उसी तरह, जैसे कलावंत राग-रागिनियाँ गातं समय केवल संगीत के आचार्यों ही से दाद चाहता है, सुननेवालों में कितने अनाड़ी बैठे हैं, इसकी उसे कुछ भी परवाह नहीं होती। अगर हमें राष्ट्र-भाषा का प्रचार करना है, तो हमें इस लालच को दबाना पड़ेगा। हमें इबारत की चुस्ती पर नहीं, अपनी भाषा को सलीस बनाने पर खास तौर से ध्यान रखना होगा। इस वक्त ऐसी भाषा कानों और आँखों को खटकेगी ज़रूर, कहीं गंगा-मदार का जोड़ नज़र आयेगा, कहीं एक उर्दू शब्द हिन्दी के बीच में इस तरह डटा हुआ मालूम होगा, जैसे कौओं के बीच में हंस आ गया हो। कहीं उर्दू के बीच में हिन्दी शब्द हलुए में नमक के डले की तरह मजा बिगाड़ देंगे। पंडितजी भी खिलखिलायेंगे और मौलवी साहब भी नाक सिकोड़ेंगे [ १३३ ]और चारों तरफ़ से शोर मचेगा कि हमारी भाषा का गला रेता जा रहा है, कुन्द छुरी से उसे ज़बह किया जा रहा है। उर्दू को मिटाने के लिये यह साज़िश की गई है, हिन्दी को डुबोने के लिए यह माया रची गई है। लेकिन हमें इन बातों को कलेजा मज़बूत करके सहना पड़ेगा। राष्ट्र-भाषा केवल रईसों और अमीरों की भाषा नहीं हो सकती। उसे किसानों और मज़दूरों की भाषा बनना पड़ेगा। जैसे रईसों और अमीरों ही से राष्ट्र नहीं बनता, उसी तरह उनकी गोद में पली हुई भाषा राष्ट्र की भाषा नहीं हो सकती। यह मानते हुए कि सभाओं में बैठकर हम राष्ट्रभाषा की तामीर नहीं कर सकते, राष्ट्र-भाषा तो बाज़ारों में और गलियों में बनती है; लेकिन सभाओं में बैठकर हम उसकी चाल को तेज़ जरूर कर सकते हैं। इधर तो हम राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, उधर अपनी अपनी ज़बानों के दरवाजों पर संगीने लिये खड़े रहते हैं कि कोई उसकी तरफ़ आँख न उठा सके। हिन्दी में हम उर्दू शब्दों को बिला तकल्लुफ़ स्थान देते हैं; लेकिन उर्दू के लेखक संस्कृत के मामूली शब्दों को भी अन्दर नहीं आने देते। वह चुन-चुनकर हिन्दी की जगह फ़ारसी और अरबी के शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। ज़रा-ज़रा से मुज़क्कर और मुअन्नस के भेद पर तुफान मच जाया करता है। उर्दू ज़वान सिरात का पुल बनकर रह गई है, जिससे ज़रा इधर उधर हुए और जहन्नुम में पहुँचे। जहाँ राष्ट्र-भाषा के प्रचार करने का प्रयत्न हो रहा है, वहाँ सब से बड़ी दिक़्कत इसी लिङ्ग-भेद के कारण पैदा हो रही है। हमें उर्दू के मौलवियों और हिन्दी के पण्डितों मे उम्मीद नहीं कि वे इन फन्दों को कुछ नर्म करेंगे। यह काम हिन्दुस्तानी भाषा का होगा कि वह जहाँ तक हो सके निरर्थक क़ैदों से आजाद हो। आँख क्यों स्त्री लिङ्ग है और कान क्यों पुल्लिङ्ग है? इसका कोई सन्तोष के लायक़ जवाब नहीं दिया जा सकता।

राष्ट्रीय संस्थाओं से अपील

मेरी समझ में यही बात नहीं आती कि जो संस्था जनता की भाषा [ १३४ ]का बायकाट करती है, उस पर दूर ही मे लाठी लेकर उठती है, वह राष्ट्रीय संस्था किस लिहाज़ से है और जो लोग जनता की भाषा नहीं बोल सकते, वह जनता के वकील कैसे बन सकते हैं, चाहे वे समाजवाद वा समष्टिवाद या किसी और वाद का लेवल लगाकर आवें। संभव है, इस वक्त आपको राष्ट्र-भाषा की ज़रूरत न मालूम होती हो और अँग्रेज़ी से आपका काम मज़े से चल सकता हो, लेकिन अगर आगे चलकर हमें फिर हिन्दुस्तान को घरेलू लड़ाइयों से बचाना है, तो हमें उन सारे नातों का मज़बूत बनाना पड़ेगा, जो राष्ट्र के अंग हैं और जिनमें क़ौमी भाषा का स्थान सबसे ऊँचा नहीं, तो किसी से कम भी नहीं है। जब तक आप अंग्रेज़ी को अपनी क़ौमी भाषा बनाये हुए है, तब तक आपकी आज़ादी की धुन पर किसी को विश्वास नहीं आता। वह भीतर की आत्मा से निकली हुई तहरीक नहीं है, केवल आज़ादी के शहीद बन जाने की हबिस है। यहाँ जय-जय के नारे और फूलों की वर्षा न हो; लेकिन जो लोग हिन्दुस्तान को एक क़ौम देखना चाहते हैं—इसलिए नहीं कि वह कौम कमज़ोर क़ौमों को दबाकर, भाँति-भाँति के माया-जाल फैलाकर, रोशनी और ज्ञान फैलाने का ढोंग रचकर, अपने अमीरों का व्यापार बढ़ाये और अपनी ताक़त पर घमण्ड करे, बल्कि इसलिए कि वह आपस में हमदर्दी, एकता और सद्भाव पैदा करे और हमें इस योग्य बनाये कि हम अपने भाग्य का फैसला अपनी इच्छानुसार कर सकें—उनका यह फर्ज़ है कि क़ौमी भाषा के विकास और प्रचार में वे हर तरह मदद करें। और यहाँ सब कुछ हमारे हाथ में है। विद्यालयों में हम क़ौमी भाषा के दर्जे खोल सकते हैं। हर एक ग्रेजुएट के लिए क़ौमी भाषा में बोलना और लिखना लाज़िमी बना सकते हैं। हम हरेक पत्र में, चाहे वह मराठी हो या गुजराती या अंग्रेज़ी या बँगला, एक दो कॉलम क़ौमी भाषा के लिए अलग करा सकते हैं। अपने प्लेटफार्म पर कौमी भाषा का व्यवहार कर सकते हैं। आपस में क़ौमी भाषा में बात चीत कर सकते हैं। जब तक मुल्की दिमाग़ अँग्रेज़ों की गुलामी में ख़ुश होता रहेगा, उस वक्त तक भारत सच्चे मानो में राष्ट्रीयता का [ १३५ ]सकेगा। यह भी ज़ाहिर है कि एक प्रान्त या एक भाषा के बोलनेवाले क़ौमी भाषा नहीं बना सकते। क़ौमी भाषा तो तभी बनेगी, जब सभी प्रान्तों के दिमाग़दार लोग उसमें सहयोग देंगे। सम्भव है कि दस-पाँच साल भाषा का कोई रूप स्थिर न हो, कोई पूरब जाय कोई पश्चिम; लेकिन कुछ दिनों के बाद तूफान शान्त हो जायगा और जहाँ केवल धूल और अन्धकार और गुबार था, वहाँ हरा-भरा साफ-सुथरा मैदान निकल आयेगा। जिनके क़लम में मुर्दों को जिलाने और सोतों को जगाने की ताक़त है, वे सब वहाँ विचरते हुए नज़र आयेंगे। तब हमें टैगोर, मुन्शी, देसाई और जोशी की कृतियों से आनन्द और लाभ उठाने के लिए मराठी और बँगला या गुजराती न सोखनी पड़ेगी। क़ौमी भाषा के साथ क़ौमी साहित्य का उदय होगा और हिन्दुस्तानी भी दूसरी सम्पन्न और सरसब्ज़ भाषाओं की मजलिस में बैठेगी। हमारा साहित्य प्रान्तीय न होकर क़ौमी हो जायगा। इस अँग्रेज़ी प्रभुत्व की यह बरकत है कि आज एडगर वैलेस, गाई बूथवी जैसे लेखकों से हम जितने मानूस हैं, उसका शतांश भी अपने शरत और मुन्शी और 'प्रसाद' की रचनाओं से नहीं। डॉक्टर टैगोर भी अँग्रेज़ी में न लिखते, तो शायद बंगाली दायरे के बाहर बहुत कम आदमी उनसे वाकिफ होते; मगर कितने खेद की बात है कि महात्मा गान्धी के सिवा किसी भी दिमाग़ ने क़ौमी भाषा की ज़रूरत नहीं समझी और उस पर ज़ोर नहीं दिया। यह काम क़ौमी सभाओं का है कि वह क़ौमी भाषा के प्रचार के लिए इनाम और तमग़े दें, उसके लिए विद्यालय खोलें, पत्र निकालें और जनता में प्रोपेगैंडा करें। राष्ट्र के रूप में संघटित हुए बग़ैर हमारा दुनिया में ज़िन्दा रहना मुश्किल है। यक़ीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता कि इस मंजिल पर पहुँचने की शाही सड़क कौन सी है। मगर दूसरी क़ौमों के साथ क़ौमी भाषा देखकर सिद्ध होता है कि क़ौमियत के लिए लाज़िमी चीज़ों में भाषा भी है और जिसे एक राष्ट्र बनाना है, उसे एक क़ौमी भाषा भी बनानी पड़ेगी। इस हक़ीक़त को हम मानते हैं; लेकिन सिर्फ़ ख़्याल में। उस पर अमल करने का [ १३६ ]हममें साहस नहीं है। यह काम इतना बड़ा और मार्के का है कि इसके लिए एक ऑल इण्डिया संस्था का होना ज़रूरी है जो इसके महत्त्व को समझती हुई इसके प्रचार के उपाय सोचे और करे।

लिपि का सवाल

भाषा और लिपि का सम्बन्ध इतना क़रीबी है कि आप एक को लेकर दूसरे को छोड़ नहीं सकते। संस्कृत से निकली हुई जितनी भाषाएँ हैं, उनको एक लिपि में लिखने में कोई बाधा नहीं है, थोड़ा-सा प्रांतीय संकोच चाहे हो। पहले भी स्व॰ बाबू शारदाचरण मित्रा ने एक 'लिपि-विस्तार-परिषद्' बनाई थी और कुछ दिनों तक एक पत्र निकालकर वह आन्दोलन चलाते रहे; लेकिन उससे कोई ख़ास फायदा न हुआ। केवल लिपि एक हो जाने से भाषाओं का अन्तर कम नहीं होता और हिन्दी लिपि में मराठी समझना उतना ही मुश्किल है, जितना मराठी लिपि में। प्रान्तीय भाषाओं को हम प्रान्तीय लिपियों में लिखते जायँ, कोई एतराज़ नहीं, लेकिन हिन्दुस्तानी भाषा के लिए हिन्दी लिपि रखना ही सुविधा की बात है; इसलिए नहीं कि हमें हिन्दी लिपि से ख़ास मोह है; बल्कि हिन्दी लिपि का प्रचार बहुत ज़्यादा है और उसके सीखने में भी किसी को दिक्कत नहीं हो सकती। लेकिन उर्दू लिपि हिन्दी से बिल्कुल जुदा है। और जो लोग उर्दू लिपि के आदी हैं, उन्हें हिन्दी लिपि का व्यवहार करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। अगर ज़बान एक हो जाय, तो लिपि का भेद कोई महत्त्व नहीं रखता। अगर उर्दूदाँ आदमी को मालूम हो जाय कि केवल हिन्दी अक्षर लिखकर वह डा॰ टैगोर या महात्मा गान्धी के विचारों को पढ़ सकता है, तो वह हिन्दी सीख लेगा। यू॰ पी॰ प्राइमरी स्कूलों में तो दोनों लिपियों की शिक्षा दी जाती है। हर एक बालक उर्दू और हिन्दी की वर्णमाला जानता है। जहाँ तक हिन्दी लिपि पढ़ने की बात है, किसी उर्दूदाँ को एतराज़ न होगा। स्कूलों में हफ्ते में एक घण्टा दे देने से हिन्दीवालों को उर्दू और उर्दूवालों को हिन्दी लिपि सिख [ १३७ ]सकती है। लिखने के विषय में यह प्रश्न इतना सरल नहीं है। उर्दू में स्वर आदि के ऐब होने पर भी उसमें गति का ऐसा गुण है, जिसे उर्दू जाननेवाले नहीं छोड़ सकता और जिन लोगों का इतिहास और संस्कृति और गौरव उर्दू लिपि में स्वरक्षित है, उनसे मौजूदा हालत में उसके छोड़ने की आशा नहीं की जा सकती। उर्दूदाँ लोग हिन्दी जितनी आसानी से सीख सकते हैं, इसका लाज़िम नतीजा यह होगा कि ज़्यादातर लोग लिपि सीख जायेंगे और राष्ट्र-भाषा का प्रचार दिन-दिन बढ़ता जायगा। लिपि का फैसला समय करेगा। जो ज़्यादा जानदार है, वह आगे आयेगी। दूसरी पीछे रह जायगी। लिपि के भेद का विषय छेड़ना घोड़े के आगे गाड़ी को रखना होगा। हमें इस शर्त को मानकर चलना है कि हिन्दी और उर्दू दोनों ही राष्ट्र-लिपि हैं और हमें अख़्तियार है, हम चाहे जिस लिपि में उसका व्यवहार करें। हमारी सुविधा, हमारी मनोवृत्ति, और हमारे संस्कार इसका फ़ैसला करेंगे।