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गो-दान/१७

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(गोदान/भाग 17 से अनुप्रेषित)
गो-दान
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १८० से – १९० तक

 

गाँव में खबर फैल गयी कि राय साहब ने पंचों को बुलाकर खूब डाँटा और इन लोगों ने जितने रुपए वसूल किये थे, वह सव इनके पेट से निकाल लिये। वह तो इन लोगों को जेहल भेजवा रहे थे;लेकिन इन लोगों ने हाथ-पाँव जोड़े,थूककर चाटा,तब जाके उन्होंने छोड़ा। धनिया का कलेजा शीतल हो गया,गाँव में घूम-घूमकर पंचों को लज्जित करती फिरती थी-आदमी न सुने गरीबों की पुकार,भगवान् तो सुनते हैं। लोगों ने सोचा था,इनसे डाँड़ लेकर मजे से फुलौड़ियाँ खायेंगे। भगवान् ने ऐसा तमाचा लगाया कि फुलौड़ियाँ मुँह से निकल पड़ीं। एक-एक के दो-दो भरने पड़े। अब चाटो मेरा मकान लेकर।

मगर बैलों के विना खेती कैसे हो? गाँवों में वोआई शुरू हो गयी। कार्तिक के महीने में किसान के बैल मर जायें,तो उसके दोनों हाथ कट जाते है। होरी के दोनों हाथ कट गये थे। और सब लोगों के खेतों में हल चल रहे थे। बीज डाले जा रहे थे। कही-कहीं गीत की ताने सुनायी देती थीं। होरी के खेत किसी अनाथ अबला के घर की भांति सूने पड़े थे। पुनिया के पास भी गोई थी;शोभा के पास भी गोई थी;मगर उन्हें अपने खेतों की बुआई से कहाँ फुरसत कि होरी की बुआई करें। होरी दिन-भर इधर-उधर मारा-मारा फिरता था। कहीं इसके खेत में जा बैठता,कही उसकी बोआई करा देता। इस तरह कुछ अनाज मिल जाता। धनिया,रूपा,सोना सभी दूसरों की बोआई में लगी रहती थी। जब तक बुआई रही,पेट की रोटियाँ मिलती गयीं,विशेष कप्ट न हुआ। मानसिक वेदना तो अवश्य होती थी;पर खाने भर को मिल जाता था। रात को नित्य स्त्री-पुरुष में थोड़ी-सी लड़ाई हो जाती थी।

यहाँ तक कि कार्तिक का महीना बीत गया और गाँव में मजदूरी मिलनी भी कठिन हो गयी। अब सारा दारमदार ऊख पर था,जो खेतों में खड़ी थी।

रात का समय था। सर्दी खूब पड़ रही थी। होरी के घर में आज कुछ खाने को न था। दिन को तो थोड़ा-सा भुना हुआ मटर मिल गया था;पर इस वक्त चूल्हा जलाने का कोई डौल न था और रूपा भूख के मारे व्याकुल थी और द्वार पर कौड़े के सामने बैठी रो रही थी। घर में जब अनाज का एक दाना भी नहीं है,तो क्या माँगे,क्या कहे!

जब भूख न सही गयी तो वह आग माँगने के बहाने पुनिया के घर गयी। पुनिया
बाजरे की रोटियाँ और बथुए का साग पका रही थी। सुगन्ध से रूपा के मुंह में पानी भर आया।

पुनिया ने पूछा-क्या अभी तेरे घर आग नहीं जली, क्या री?

रूपा ने दीनता से कहा--आज तो घर में कुछ था ही नहीं,आग कहाँ से जलती?

'तो फिर आग काहे को माँगने आयी है?'

'दादा तमाखू पियेंगे।'

पुनिया ने उपले की आग उसकी ओर फेंक दी;मगर रूपा ने आग उठायी नही और समीप जाकर बोली-तुम्हारी रोटियाँ महक रही हैं काकी! मुझे बाजरे की रोटियाँ बड़ी अच्छी लगती हैं।

पुनिया ने मुस्कराकर पूछा-खायेगी?

'अम्मा डाटेंगी।'

'अम्मा से कौन कहने जायगा।'

रूपा ने पेट-भर रोटियाँ खायीं और जूठे मुंह भागी हुई घर चली गयी।

होरी मन-मारे बैठा था कि पण्डित दातादीन ने आकर पुकारा। होरी की छाती धड़कने लगी। क्या कोई नयी विपत्ति आनेवाली है। आकर उनके चरण छुये और कौड़े के सामने उनके लिए माँची रख दी।

दातादीन ने बैठते हुए अनुग्रह भाव से कहा-अबकी तो तुम्हारे खेत परती पड़ गये होरी! तुमने गाँव में किसी से कुछ कहा नहीं,नहीं भोला की मज़ाल थी कि तुम्हारे द्वार मे बैल खोल ले जाता! यहीं लहास गिर जाती। मैं तुममे जनेऊ हाथ में लेकर कहता हूँ होरी,मैंने तुम्हारे ऊपर डाँड़ न लगाया था। धनिया मुझे नाहक वदनाम करती फिरती है। यह लाला पटेश्वरी और झिंगुरीसिंह की कारस्तानी है। मैं तो लोगों के कहने से पंचायत में बैठ भर गया था। वह लोग तो और कड़ा दण्ड लगा रहे थे। मैंने कह-सुनके कम कराया;मगर अब सब जने सिर पर हाथ धरे रो रहे है। समझे थे,यहाँ उन्हीं का राज है। यह न जानते थे,कि गाँव का राजा कोई और है। तो अब अपने खेतों की बोआई का क्या इन्तजाम कर रहे हो?

होरी ने करुण-कंठ से कहा-क्या बताऊँ महाराज, परती रहेंगे।

'परती रहेंगे? यह तो बड़ा अनर्थ होगा !'

'भगवान् की यही इच्छा है,तो अपना क्या बस।'

'मेरे देखते तुम्हारे खेत कैसे परती रहेंगे। कल मैं तुम्हारी बोआई करा दूंगा। अभी खेत में कुछ तरी है। उपज दस दिन पीछे होगी,इसके सिवा और कोई बात नहीं। हमारा तुम्हारा आधा साझा रहेगा। इसमें न तुम्हें कोई टोटा है,न मुझे। मैंने आज बैठे-बैठे सोचा,तो चित्त बड़ा दुखी हुआ कि जुने-जुताये खेत परती रहे जाते हैं!'

होरी सोच में पड़ गया। चौमासे-भर इन खेतों में खाद डाली,जोता और आज केवल बोआई के लिए आधी फसल देनी पड़ रही है। उस पर एहसान कैसा जता रहे हैं। लेकिन इससे तो अच्छा यही है कि खेत परती पड़ जायँ। और कुछ न
छोड़कर न जाने कहाँ मारा-मारा फिर रहा है। चंचल सुभाव का आदमी है,इसीसे मुझे शंका होती है कि कहीं और न फंस गया हो। ऐसे आदमियों को तो गोली मार देना चाहिए। आदमी का धरम है,जिसकी बाँह पकड़े,उसे निभाये। यह क्या कि एक आदमी की जिन्दगी खराब कर दी और आप दूसरा घर ताकने लगे।

युवती रोने लगी। मातादीन ने इधर-उधर ताककर उसका हाथ पकड़ लिया और समझाने लगा-तुम उसकी क्यों परवा करती हो झूना,चला गया,चला जाने दो। तुम्हारे लिए किस बात की कमी है। रुपये-पैसे,गहना-कपड़ा,जो चाहो मुझसे लो।

झुनिया ने धीरे से हाथ छुड़ा लिया और पीछे हटकर बोली-सव तुम्हारी दया है महाराज! मैं तो कहीं की न रही। घर से भी गयी,यहाँ से भी गयी। न माया मिली,न राम ही हाथ आये। दुनिया का रंग-ढंग न जानती थी। इसकी मीठी-मीठी बातें सुनकर जाल में फंस गई।

मातादीन ने गोबर की बुराई करनी शुरू की-वह तो निरा लफंगा है,घर का न घाट का। जब देखो,माँ-बाप से लड़ाई। कहीं पैसा पा जाय,चट जुआ खेल डालेगा,चरस और गाँजे में उसकी जान बसती थी,सोहदों के साथ घूमना,बहू-बेटियों को छेड़ना,यही उसका काम था। थानेदार साहब बदमाशी में उसका चालान करनेवाले थे,हम लोगों ने बहुत खुशामद की तब जा कर छोड़ा। दूसरों के खेत-खलिहान से अनाज उड़ा लिया करता था। कई बार तो खुद उसी ने पकड़ा था;पर गाँव-घर समझकर छोड़ दिया।

सोना ने बाहर आ कर कहा-भाभी,अम्माँ ने कहा है, अनाज निकालकर धूप में डाल दो,नहीं तो चोकर बहुत निकलेगा। पण्डित ने जैसे बखार में पानी डाल दिया हो।

मातादीन ने अपनी सफ़ाई दी–मालूम होता है,तेरे घर बरसात नहीं हुई। चौमासे में लकड़ी तक गीली हो जाती है, अनाज तो अनाज ही है।

यह कहता हुआ वह बाहर चला गया।सोना ने आकर उसका खेल बिगाड़ दिया।

सोना ने झुनिया से पूछा-मातादीन क्या करने आये थे?

झुनिया ने माथा सिकोड़ कर कहा--पगहिया माँग रहे थे। मैंने कह दिया,यहाँ पगहिया नहीं है।

'यह सब बहाना है। बड़ा खराब आदमी है।'

'मुझे तो बड़ा भला आदमी लगता है। क्या खराबी है उसमें?'

'तुम नहीं जानतीं? सिलिया चमारिन को रख हुए है।'

'तो इसी से खराब आदमी हो गया?'

'और काहे से आदमी खराब कहा जाता है?'

'तुम्हारे भैया भी तो मुझे लाये हैं। वह भी खराब आदमी हैं?'

सोना ने इसका जवाब न देकर कहा-मेरे घर में फिर कभी आयेगा,तो दुत्कार दूंगी।

'और जो उससे तुम्हारा ब्याह हो जाय?' सोना लजा गयी-तुम तो भाभी,गाली देती हो।

'क्यों,इसमें गाली की क्या बात है?'

'मुझसे बोले,तो मुंह झुलस दूं।'

'तो क्या तुम्हारा ब्याह किसी देवता से होगा। गाँव में ऐसा सुन्दर,सजीला जवान दूसरा कौन है?'

'तो तुम चली जाओ उसके साथ,सिलिया से लाख दर्जे अच्छी हो।'

'मैं क्यों चली जाऊँ? मैं तो एक के साथ चली आयी। अच्छा है या बुरा।'

'तो मैं भी जिसके साथ व्याह होगा,उसके साथ चली जाऊँगी,अच्छा हो या बुरा।'

'और जो किसी बूढ़े के साथ व्याह हो गया?

सोना हँसी-मैं उसके लिए नरम-नरम रोटियाँ पकाऊँगी, उसकी दवाइयाँ कूटूछानगी,उसे हाथ पकड़कर उठाऊँगी,जव मर जायगा,तो मुंह ढाँपकर रोऊँगी।

'और जो किसी जवान के साथ हुआ!'

'तव तुम्हारा सिर,हाँ नहीं तो!'

'अच्छा वताओ,तुम्हें बूढ़ा अच्छा लगता है,कि जवान ?'

'जो अपने को चाहे वही जवान है,न चाहे वही बूढ़ा है।'

'दैव करे,तुम्हारा व्याह किसी बूढ़े मे हो जाय,तो देखू,तुम उसे कैसे चाहती हो। नव मनाओगी,किसी तरह यह निगोड़ा मर जाय,तो किसी जवान को लेकर बैठ जाऊँ।'

'मुझे तो उम बूढ़े पर दया आये।'

इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था। उसके कारिन्दे और दलाल गाँव-गाँव घूमकर किमानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल था,जो मिस्टर खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिन्दा इस गाँव में भी आया। किसानों ने जो उससे भाव-ताव किया,तो मालूम हुआ,गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है। जब घर में ऊख पेरकर भी यही दाम मिलता है, तो पेरने की मेहनत क्यों उटायी जाय? माग गाँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया;अगर कुछ कम भी मिले,तो परवाह नही। तत्काल तो मिलेगा! किसी को वैल लेना था,किसी को वाक़ी चुकाना था,कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था। होरी को बैलों की गोई लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी;इसलिए यह डर भी था कि माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव मिल की चीनी मिलेगी,तो गड़ लेगा ही कौन? सभी ने बयाने ले लिये। होरी को कम-से-कम सौ रुपये की आशा थी। इसमें एक मामूली गोई आ जायगी;लेकिन महाजनों को क्या करे! दातादीन,मॅगरू,दुलारी,झिंगुरीमिह सभी तो प्राण खा रहे थे। अगर महाजनों को देने लगेगा,तो सौ रुपए सूद-भर को भी न होंगे! कोई ऐसी जुगुन न सूझती थी कि ऊख के रुपए हाथ आ जायँ और किसी को खबर न हो। जब बैल घर आ जायेंगे,तो कोई क्या कर लेगा? गाड़ी लदेगी,तो सारा गाँव देखेगा ही,तौल पर जो रुपए मिलेंगे,वह सबको मालूम हो जायेंगे। सम्भव है मैंगरू और दातादीन हमारे साथ-साथ रहें। इधर रुपए मिले,उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी। शाम को गिरधर ने पूछा-तुम्हारी ऊख कब तक जायेगी होरी काका?

होरी ने झांसा दिया--अभी तो कुछ ठीक नहीं है भाई,तुम कब तक ले जाओगे?

गिरधर ने भी झांसा दिया--अभी तो मेरा भी कुछ ठीक नहीं है काका!

और लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयाँ बताते थे, किसी को किसी पर विश्वास न था। झिंगुरीसिंह के सभी रिनियाँ थे,और सबकी यही इच्छा थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपए न पड़ने पायें,नहीं वह सबका सब हज़म कर जायगा। और जब दूसरे दिन असामी फिर रुपये माँगने जायगा,तो नया कागज़,नया नज़राना,नई तहरीर। दूसरे दिन शोभा आकर बोला--दादा कोई ऐसा उपाय करो कि झिंगुरी को हैज़ा हो जाय। ऐसा गिरे कि फिर न उठे।

होरी ने मुस्कराकर कहा- क्यों,उसके बाल-बच्चे नहीं हैं?

'उसके बाल-बच्चों को देखें कि अपने बाल-बच्चों को देखें? वह तो दो-दो मेहरियों को आराम से रखता है,यहाँ तो एक को रूखी रोटी भी मयस्सर नहीं,सारी जमा ले लेगा। एक पैसा भी घर न लाने देगा।'

'मेरी तो हालत और भी खराब है भाई,अगर रुपए हाथ से निकल गये,तो तबाह हो जाऊँगा। गोई के विना तो काम न चलेगा।'

'अभी तो दो-तीन दिन ऊख ढोते लगेंगे। ज्यों ही सारी ऊख पहुँच जाय,जमादार मे कहें कि भैया कुछ ले ले,मगर ऊख चटपट तौल दे,दाम पीछे देना। इधर झिगुरी से कह देंगे,अभी रुपए नहीं मिले।'

होरी ने विचार करके कहा-झिंगुरीसिंह हमसे-तुमसे कई गुना चतुर है सोभा! जाकर मुनीम से मिलेगा और उसीसे रुपए ले लेगा। हम-तुम ताकते रह जायँगे। जिस खन्ना वाबू का मिल है,उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी कोठी भी है। दोनों एक हैं।

शोभा निराश होकर बोला--न जाने इन महाजनों से भी कभी गला छुटेगा कि नहीं।

होरी बोला-इस जनम में तो कोई आशा नहीं है भाई! हम राज नहीं चाहते,भोग-विलास नहीं चाहते,खाली मोटा-झोटा पहनना,और मोटा-झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं। वह भी नहीं सधता।

शोभा ने धूर्तता के साथ कहा--मैं तो दादा,इन सबों को अवकी चकमा दूंगा। जमादार को कुछ दे-दिलाकर इस बात पर राजी कर लूंगा कि रुपए के लिए हमें खूब दौड़ायें। झिंगुरी कहाँ तक दौड़ेंगे।

होरी ने हँसकर कहा-यह सब कुछ न होगा भैया! कुशल इसी में है कि झिंगुरीसिंह के हाथ-पाँव जोड़ो। हम जाल में फंसे हुए हैं। जितना ही फड़फड़ाओगे,उतना ही और जकड़ते जाओगे।

'तुम तो दादा,बूढ़ों की-सी बातें कर रहे हो। कटघरे में फंसे बैठे रहना तो कायरता है। फन्दा और जकड़ जाय बला से;पर गला छुड़ाने के लिए जोर तो लगाना ही पड़ेगा। यही तो होगा झिंगुरी घर-द्वार नीलाम करा लेंगे;करा लें नीलाम! मैं तो चाहता हूँ कि हमें कोई रुपए न दे,हमें भूखों मरने दे,लातें खाने दे,एक पैसा भी
उधार न दे;लेकिन पैसावाले उधार न दें तो सूद कहाँ से पायें। एक हमारे ऊपर दावा करता है,तो दूसरा हमें कुछ कम सूद पर रुपए उधार देकर अपने जाल में फंसा लेता है। मैं तो उसी दिन रुपये लेने जाऊँगा,जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा।

होरी का मन भी विचलित हुआ-हाँ,यह ठीक है।

'ऊख तुलवा देंगे। रुपए दाँव-धात देखकर ले आयेंगे।'

'बस-बस,यही चाल चलो।'

दूसरे दिन प्रातःकाल गाँव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की। होरी भी अपने खेत में गँडासा लेकर पहुंचा। उधर से शोभा भी उसकी मदद को आ गया। पुनिया,झुनिया, धनिया,सोना सभी खेत में जा पहुँचीं। कोई ऊख काटता था, कोई छोलता था,कोई पूले वाँधता था। महाजनों ने जो ऊख कटते देखी,तो पेट में चूहे दौड़े। एक तरफ से दुलारी दौड़ी,दूसरी तरफ से मँगरू साह,तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिगुरी के पियादे। दुलारी हाथ-पाँव में मोटे-मोटे चाँदी के कड़े पहने,कानों में सोने का झूमक,आँखों में काजल लगाये,बूढ़े यौवन को रँगे-रँगाये आकर बोलीपहले मेरे रुपये दे दो तब ऊख काटने दूंगी। मैं जितना ही गम खाती हूँ,उतना ही तुम शेर होते हो। दो साल से एक धेला सूद नहीं दिया,पचास तो मेरे सूद के होते हैं।

होरी ने घिघियाकर कहा--भाभी,ऊख काट लेने दो, इनके रुपये मिलते हैं,तो जितना हो सकेगा,तुमको भी दूंगा। न गाँव छोड़कर भागा जाता हूँ,न इतनी जल्द मौत ही आयी जाती है। खेत में खड़ी ऊख तो रुपये न देगी?

दुलारी ने उसके हाथ से गँडासा छीनकर कहा-नीयत इतनी खराब हो गयी है तुम लोगों की,तभी तो वरक्कत नहीं होती।

आज पाँच साल हुए,होरी ने दुलारी से तीस रुपये लिये थे,तीन साल में उसके सौ रुपये हो गये,तव स्टाम्प लिखा गया। दो साल में उस पर पचास रुपया सूद चढ़ गया था।

होरी बोला--सहुआइन,नीयत तो कभी खराव नहीं की,और भगवान् चाहेंगे,तो पाई-पाई चुका दूंगा। हाँ,आजकल तंग हो गया हूँ,जो चाहे कह लो।

सहुआइन को जाते देर नहीं हुई कि मॅगरू साह पहुँचे। काला रंग,तोंद कमर के नीचे लटकती हुई,दो बड़े-बड़े दाँत सामने जैसे काट खाने को निकले हुए,सिर पर टोपी,गले में चादर,उम्र अभी पचास से ज्यादा नहीं;पर लाठी के सहारे चलते थे। गठिया का मरज़ हो गया था। खाँसी भी आती थी। लाठी टेककर खड़े हो गये और होरी को डाँट बतायी-पहले हमारे रुपये दे दो होरी,तब ऊख काटो। हमने रुपये उधार दिये थे, खैरात नहीं थे। तीन-तीन साल हो गये,न सूद न ब्याज;मगर यह न समझना कि तुम मेरे रुपये हज़म कर जाओगे। मैं तुम्हारे मुर्दे से भी वसूल कर लूंगा।

शोभा मसखरा था। बोला-तब काहे को घवड़ाते हो साहजी,इनके मुर्दे ही से वसूल कर लेना। नहीं,एक दो साल के आगे पीछे दोनों ही सरग में पहुँचोगे। वहीं भगवान के सामने अपना हिसाब चुका लेना। मँगरू ने शोभा को बहुत बुरा-भला कहा--जमामार, बेईमान इत्यादि। लेने की बेर तो दुम हिलाते हो,जब देने की बारी आती है,तो गुर्राते हो। घर बिकवा लूंगा;बैल बधिये नीलाम करा लंगा।

शोभा ने फिर छेड़ा-अच्छा,ईमान से बताओ साह, कितने रुपए दिये थे,जिसके अव तीन सौ रुपये हो गये हैं?

'जब तुम साल के साल सूद न दोगे,तो आप ही बढ़ेंगे।'

'पहले-पहल कितने रुपये दिये थे तुमने? पचास ही तो।'

'कितने दिन हुए,यह भी तो देख।'

'पाँच-छ:साल हुए होंगे?'

'दस साल हो गये पूरे,ग्यारहवाँ जा रहा है।'

'पचास रुपये के तीन सौ रुपए लेते तुम्हें जरा भी सरम नहीं आती!'

'सरम कैसी,रुपये दिये हैं कि खैरात माँगते हैं।'

होरी ने इन्हें भी चिरौरी-विनती करके बिदा किया। दातादीन ने होरी के साझे में खेती की थी। बीज देकर आधी फसल ले लेंगे। इस वक्त कुछ छेड़-छाड़ करना नीतिविरुद्ध था। झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह-सुन रखा था। उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवाकर नाव पर पहुंचा रहे थे। नदी गाँव से आध मील पर थी। एक गाड़ी दिन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती थी। और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी। इस तरह किफायत पड़ती थी। इस सुविधा का इन्तज़ाम करके झिंगुरीसिंह ने सारे इलाके को एहसान से दबा दिया था।

तौल शुरू होते ही झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया। हरएक की ऊख तौलाते थे,दाम का पुरजा लेते थे,खजांची से रुपए वसूल करते थे और अपना पावना काटकर असामी को दे देते थे। असामी कितना ही रोये,चीखे, किसी की न सुनते थे। मालिक का यही हुक्म था। उनका क्या वस!

होरी को एक सौ बीस रुपए मिले। उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपये सूद समेत काटकर कोई पचीस रुपये होरी के हवाले किये।

होरी ने रुपये की ओर उदासीन भाव से देखकर कहा-यह लेकर मैं क्या करूँगा ठाकुर,यह भी तुम्हीं ले लो। मेरे लिए मजूरी बहुत मिलेगी।

झिंगुरी ने पचीसों रुपये जमीन पर फेंककर कहा--लो या फेंक दो,तुम्हारी खुशी। तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियाँ खायीं और अभी राय साहब सिर पर सवार हैं कि डाँड़ के रुपये अदा करो। तुम्हारी गरीबी पर दया करके इतने रुपये दिये देता हूँ, नहीं एक धेला भी न देता। अगर राय साहब ने सख्ती की तो उल्टे और घर से देने पड़ेंगे।

होरी ने धीरे से रुपये उठा लिये और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जाकर पचीसों रुपए उनके हाथ पर रख दिये,और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था। शोभा को इतने ही रुपये मिले थे। वह बाहर निकला,तो पटेश्वरी ने घेरा। शोभा बदल पड़ा। बोला-मेरे पास रुपये नहीं हैं;तुम्हें जो कुछ करना हो,कर लो।

पटेश्वरी ने गर्म होकर कहा--ऊख बेची है कि नहीं?

'हाँ,वेची है।'

'तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख वेचकर रुपया दूंगा ?'

'हाँ,था तो।'

'फिर क्यों नहीं देते। और सब लोगों को दिये हैं कि नहीं?'

'हाँ,दिये हैं।'

'तो मुझे क्यों नहीं देते?'

'मेरे पास अब जो कुछ बचा है,वह वाल-बच्चों के लिए है।'

पटेश्वरी ने विगड़कर कहा--तुम रुपये दोगे शोभा,और हाथ जोड़कर और आज ही। हाँ,अभी जितना चाहो,वहक लो। एक रपट में जाओगे छ:महीने को,पूरे छः महीने को,न एक दिन वेस न एक दिन कम। यह जो नित्य जुआ खेलते हो,वह एक रपट में निकल जायगा। मैं ज़मीदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ,सरकार वहादुर का नौकर हूँ,जिसका दुनिया भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और ज़मीदार दोनों का मालिक है।

पटेश्वरी लाला आगे बढ़ गये। शोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इम धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो। तव होरी ने कहा--शोभा,इसके रुपये दे दो। समझ लो,ऊख में आग लग गयी थी। मैंने भी यही सोचकर,मन को समझाया है।

शोभा ने आहत कंठ से कहा-हाँ,दे दूंगा दादा! न दूंगा तो जाऊँगा कहाँ?

सामने से गिरधर ताड़ी पिये झूमता चला आ रहा था। दोनों को देखकर वोलाझिगुरिया ने सारे का सारा ले लिया होरी काका! चवैना को भी एक पैसा न छोड़ा। हत्यारा कहीं का। रोया गिड़गिड़ाया;पर इस पापी को दया न आयी।

शोभा ने कहा-ताड़ी तो पिये हुए हो,उस पर कहते हो,एक पैसा भी न छोड़ा!

गिरधर ने पेट दिखाकर कहा--साँझ हो गयी,जो पानी की बूंद भी कंठ तले गयी हो,तो गो-मांस बराबर। एक इकन्नी मुँह में दवा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा,साल-भर पसीना गारा है,तो एक दिन ताड़ी तो पी लू;मगर सच कहता हूँ,नसा नहीं है। एक आने में क्या नसा होगा। हाँ,झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझें वृव पिये हुए है। बड़ा अच्छा हुआ काका,बेबाकी हो गयी। बीस लिये,उसके एक सौ साठ भरे,कुछ हद है!

होरी घर पहुंचा,तो रूपा पानी लेकर दौड़ी,सोना चिलम भर लायी,धनिया ने चबेना और नमक लाकर रख दिया और सभी आशा भरी आँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुंह-हाथ धोये,कैसे चबेना खाये। ऐसा लज्जित और ग्लानित था,मानो हत्या करके आया हो। धनिया ने पूछा-कितने की तौल हुई?

'एक सौ बीस मिले;पर सव वहीं लुट गये;धेला भी न बचा।'

धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि अपना मुंह नोच ले। बोली-तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान् ने क्यों रचा,कहीं मिलते तो उनसे पूछती। तुम्हारे साथ सारी जिन्दगी तलख हो गयी,भगवान् मौत भी नहीं दे देते कि जंजाल से जान छूटे। उठाकर सारे रुपए बहनोइयों को दे दिये। अब और कौन आमदनी है,जिससे गोई आयेगी। हल में क्या मुझे जोतोगे,या आप जुतोगे? मैं कहती हूँ,तुम बूढ़े हुए,तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि गोई-भर के रुपए तो निकाल लेते! कोई तुम्हारे हाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की यह ठंढ और किसी की देह पर लत्ता नहीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सिसक-सिसक कर मरने मे तो एक दिन मर जाना फिर अच्छा है। कव तक पुआल में घुसकर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लें,तो पुआल खाकर रहा तो न जायगा! तुम्हारी इच्छा हो घास ही खाओ,हमसे तो घास न खायी जायगी।

यह कहते-कहते वह मुस्करा पड़ी। इतनी देर में उसकी समझ में यह बात आने लगी थी कि महाजन जब सिर पर सवार हो जाय,और अपने हाथ में रुपये हों और महाजन जानता हो कि इसके पास रुपये हैं,तो असामी कैसे अपनी जान बचा सकता है!

होरी सिर नीचा किये अपने भाग्य को रो रहा था। धनिया का मुस्कराना उसे न दिखायी दिया। बोला-मजूरी तो मिलेगी। मजूरी करके खायँगे।

धनिया ने पूछा--कहाँ है इस गाँव में मजूरी? और कौन मुँह लेकर मजूरी करोगे? महतो नहीं कहलाते!

होरी ने चिलम के कई कश लगाकर कहा-मजूरी करना कोई पाप नहीं है। मजूर बन जाय तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता है। मजूरी करना भाग्य में न होता तो यह सब बिपत क्यों आती? क्यों गाय मरती? क्यों लड़का नालायक निकल जाता?

धनिया ने बहू और बेटियों की ओर देखकर कहा--तुम सव की सब क्यों घेरे खड़ी हो,जाकर अपना-अपना काम देखो। वह और है जो हाट-बाजार से आते है,तो बाल-बच्चों के लिए दो-चार पैसे की कोई चीज़ लिये आते हैं। यहाँ तो यह लोभ लग रहा होगा कि रुपये तुड़ायें कैसे? एक कम न हो जायगा;इसीसे इनकी कमाई में बरक्कत नहीं होती। जो खरच करते हैं,उन्हें मिलता है। जो न खा सकें,न पहन सकें,उन्हें रुपये मिले ही क्यों? जमीन में गाड़ने के लिए?

होरी ने खिलखिलाकर पूछा-कहाँ है वह गाड़ी हुई थाती ?

'जहाँ रखी है,वहीं होगी। रोना तो यही है कि यह जानते हुए भी पैसों के लिए मरते हो! चार पैसे की कोई चीज़ लाकर बच्चों के हाथ पर रख देते तो पानी में न पड़ जाते। झिंगुरी से तुम कह देते कि एक रुपया मुझे दे दो,नहीं मैं तुम्हें एक पैसा न दूंगा,जाकर अदालत में लेना,तो वह जरूर दे देता।' होरी लज्जित हो गया। अगर वह झल्लाकर पच्चीसों रुपये नोखेराम को न दे देता,तो नोखे क्या कर लेते? बहुत होता वकाया पर दो-चार आना सूद ले लेता;मगर अब तो चूक हो गयी!

झनिया ने भीतर जाकर सोना से कहा--मुझे तो दादा पर बड़ी दया आती है। बेचारे दिन-भर के थके-माँदे घर आये, तो अम्माँ कोसने लगीं। महाजन गला दवाय था,तो क्या करते बेचारे!

'तो बैल कहाँ से आयेंगे?'

'महाजन अपने रुपये चाहता है। उसे तुम्हारे घर के दुखड़ों से क्या मतलब?'

'अम्माँ वहाँ होती,तो महाजन को मज़ा चखा देतीं। अभागा रोकर रह जाता।'

झुनिया ने दिल्लगी की--तो यहाँ रुपये की कौन कमी है। तुम गहाजन से जरा हँसकर बोल दो,देखो सारे रुपये छोड़ देता है कि नहीं। सच कहती हूँ,दादा का सारा दुख-दलिद्दर दूर हो जाय।

सोना ने दोनों हाथों से उसका मुंह दबाकर कहा-बस, चुप ही रहना,नहीं कहे देती हूँ। अभी जाकर अम्माँ से मातादीन की सारी कलई खोल दूं तो रोने लगो।

झुनिया ने पूछा-क्या कह दोगी अम्माँ से? कहने को कोई बात भी हो। जब वह किसी बहाने से घर में आ जाते हैं, तो क्या कह दूं कि निकल जाओ,फिर मुझसे कुछ ले तो नहीं जाते। कुछ अपना ही दे जाते हैं। सिवाय मीठी-मीठी बातों के वह झुनिया से कुछ नहीं पा सकते! और अपनी मीठी वातों को मँहगे दामों बेचना भी मुझे आता है। मैं ऐसी अनाड़ी नहीं हूँ कि किसी के झांसे में आ जाऊँ। हाँ,जब जान जाऊँगी कि तुम्हारे भैया ने वहां किसी को रख लिया है,तब की नहीं चलाती। तब मेरे ऊपर किसी का कोई वन्धन न रहेगा। अभी तो मुझे विश्वास है कि वह मेरे हैं और मेरे ही कारन उन्हें गली-गली ठोकर खाना पड़ रहा है। हँसने-बोलने की बात न्यारी है,पर मैं उनसे विश्वासघात न करूंगी। जो एक से दो का हुआ,वह किसी का नहीं रहता।

शोभा ने आकर होरी को पुकारा और पटश्वरी के रुपए उसके हाथ में रखकर बोलाभैया,तुम जाकर ये रुपये लाला को दे दो। मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो गया था।

होरी रुपए लेकर उठा ही था कि शंख की ध्वनि कानों में आयी। गांव के उस सिरे पर ध्यानसिंह नाम के एक ठाकुर रहते थे। पल्टन में नौकर थे और कई दिन हुए,दस साल के वाद रजा लेकर आये थे। बगदाद,अदन,सिंगापुर,बर्मा-चारों तरफ घूम चुके थे। अब व्याह करने की धुन में थे। इसीलिए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चाहते थे।

होरी ने कहा-जान पड़ता है,सातों अध्याय पूरे हो गये। आरती हो रही है।

शोभा बोला-हाँ,जान तो पड़ता है,चलो आरती ले लो।

होरी ने चिन्तित भाव से कहा-तुम जाओ,मैं थोड़ी देर में आता हूँ।

ध्यानसिंह जिस दिन आये थे,सब के घर सेर-सेर भर मिठाई बैना भेजी थी। होरी
से जब कभी रास्ते में मिल जाते,कुशल पूछते। उनकी कथा में जाकर आरती में कुछ न देना अपमान की बात थी।

आरती का थाल उन्हीं के हाथ में होगा। उनके सामने होरी कैसे खाली हाथ आरती ले लेगा! इससे तो कहीं अच्छा है कि वह कथा में जाये ही नहीं। इतने आदमियों में उन्हें क्या याद आयेगी कि होरी नहीं आया। कोई रजिस्टर लिये तो बैठा नहीं है कि कौन आया,कौन नहीं आया। वह जाकर खाट पर लेट रहा।

मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं है! ताँबे का एक पैसा! आरती के पुण्य और माहात्म्य का उसे विलकुल ध्यान न था। बात थी केवल व्यवहार की। ठाकुरजी की आरती तो वह केवल श्रद्धा की भेंट देकर ले सकता था; लेकिन मर्यादा कैसे तोड़े,सबकी आँखों में हेठा कैसे बने!


सहसा वह उठ बैठा। क्यों मर्यादा की गुलामी करे। मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यों छोड़े। लोग हँसेंगे,हँस लें। उसे परवा नहीं है। भगवान् उसे कुकर्म से बचाये रखें,और वह कुछ नहीं चाहता।

वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा।