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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां/दो बैलों की कथा

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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ४३ से – ५८ तक

 
दो बैलों की कथा

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुध्दिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दरजे का बेवकूफ कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते है। गधा सचमुच बेवकूफ है,या उसके सीधेपन,उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है,इसका निश्चय नही किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याई हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, लेकिन गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो उस गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब सङी हुई घास सामने डाल दो। उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखायी देगी। वैशाख में चाहे एकाघ बार कुलेल कर लेता हो; पर हमने तो उसे कभी खुश होतें नहीं देखा। उसके चेहरे पर एक स्थायी बिषाद स्थाई रूप के छाया रहता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, किसी दशा में भी उसे बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण है, वह सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गये हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ़ कहता है। सदगुणों का इतना अनादर कहीं नहीं देखा। कदाचित् सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है। देखिए न, भारतवासियो की अफ्रिका में क्यों दुर्दशा हो रही है। क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नही दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीतें, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोङकर काम करते हैं, किसी से लङाई-झगङा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं। फिर भी बदमाश है। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते है। अगर वे भी ईट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद
सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल सामने है। एक ही विजय ने उसे ससार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया।

लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कुछ ही कम गधा है, और वह है 'बैल'। जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में बछिया के ताऊ का प्रयोग भी करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफ़ों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे; मगर हमारा विचार ऐसा नहीं। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आ जाता है। और भी कई रीतियों से वह अपना असन्तोष प्रकट कर देता है; अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।

झूरी काछी के दोनो बैलो के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे। देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील ऊँचे। बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करनेवाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे। विग्रह के भाव से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से जैसे दोस्तों में घनिष्टता होते ही धौल-घप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हलकी-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता। जिस वक्त यह दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिये जाते और गरदने हिला-हिलाकर चलते, तो हरएक की यही चेष्टा होती थी कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गरदन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर
या सन्ध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लिया करते। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मॅुह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था।

संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोई को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम, वे क्यो भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमें बेच दिया। अपना यो बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने, पर झूरी के साले गया को घर तक गोई ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हॉकता तो दोनों दाएँ-बाएँ भागते, पगहिया पकड़कर आगे से खींचता, तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीचे करके हुँकारते। अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते-तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था तो और काम लेते। हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया, वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथ क्यों बेच दिया?

सन्ध्या समय दोनों बैल अपने नये स्थान पर पहुँचे। दिन-भर के भूखे थे; लेकिन जब नाँद में लगाये गये, तो एक ने भी उसमें मॅुह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नये आदमी सब उन्हें बेगाने-से लगते थे।

दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये। जब गाँव में सोता पड़ गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुड़ा डाले और घर की तरफ चले! पगहे बहुत मजबूत थे।
अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा; पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गयी थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गयीं।

झूरो प्रातःकाल सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों की गरदनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटनों तक पाँव कीचड़ से भरे हैं; और दोनों की आँखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।

भूरी बैलो को देखकर स्नेह से गद्गद हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुंबन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था।

घर और गॉव के लड़के जमा हो गये और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशुवीरों को अभिनन्दन-पत्र देना चाहिए कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी।

एक बालक ने कहा-ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।

दूसरे ने समर्थन किया-इतनी दूर से दोनों अकेले चले आये।

तीसरा बोला-बैल नहीं हैं वे, उस जन्म के आदमी हैं।

इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ।

झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली कैसे नमकहराम बैल हैं कि एक दिन भी वहाँ काम न किया। भाग खड़े हुए।

झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका-नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते!

स्त्री ने रोब के साथ कहा-बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं। झूरी ने चिढ़ाया-चारा मिलता तो क्यो भागते?

स्त्री चिढ़ी-भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं। यह दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ कहाँ से खली और चोकर मिलता है! सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूंँगी, खायें चाहे मरें।

वही हुआ। मजूर को कड़ी ताकीद कर दी गयी कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाय।

बैलों में नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट न कोई रस! क्या खायें। आशा भरी आँखो से द्वार की ओर ताकने लगे।

भूरी ने मजूर से कहा-थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?

'मालकिन मुझे मार ही डालेंगी।'

'चुराकर डाल आ।'

'न दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।'

( ३ )

दूसरे दिन भूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। उसने दोनों को गाड़ी में जोता।

दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा; पर हीरा ने संभाल लिया। बह ज्यादा सहनशील था।

सन्ध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनो को मोटी रस्सियों से बाँधा, और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी, सब कुछ दी।

दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। भूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पड़ी। आहत सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा! नाँद की तरफ आँखें तक न उठायीं। दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता; पर इन दोनों ने जैसे पाँव उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया; पर दोनों ने पॉव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा के नाक में खूब उंडे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होतीं, तो दोनों पकड़ाई में न आते।

हीरा ने मूक भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है।

मोती ने उसी भाषा में उत्तर दिया-तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी। अबकी बड़ी मार पड़ेगी।

'पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है, तो मार से कहाँ तक बचेंगे।'

'गया दो आदमियो के साथ दौड़ा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियाँ है।'

मोती बोला-कहो तो दिखा दूं कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।'

हीरा ने समझाया-नहीं भाई! खड़े हो जाओ।

'मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा।'

'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।

मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मार-पीट न की, नहीं मोती भी पलट पड़ता। उसके तेवर देखकर गया और सहायक समझ गये, कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।

आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उसी वक्त एक छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लिये निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गयी। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शान्त होती; पर दोनों के हृदय की
मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का वास है। लड़की भैरों की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ उसे मारती रहती थी; इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गयी थी।

दोनों दिन-भर जोते जाते, डण्डे खाते, अडते। शाम को थान पर बाँध दिये जाते, और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद को वह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे; मगर दोनों की आँखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।

एक दिन मोती ने मूक भाषा में कहा- अब तो नही सहा जाता हीरा!

'क्या करना चाहते हो?'

'एकाध को सींगों पर उठाकर फेक दूंँगा।'

'लेकिन जानते हो वह प्यारी लड़की, जो हमे रोटियाँ खिलाती है, उसी की लड़की है, जो इस घर का मालिक है। वह बेचारी अनाथ हो जायगी।'

'तो मालकिन को न फेक दूँ। वही तो उस लड़की को मारती है।'

'लेकिन औरत जात पर सीग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।'

'तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। तो आओ, आज तुड़ाकर भाग चलें।

'हाँ, यह मैं स्वीकार करता हूँ; लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे!'

'इसका उपाय है। पहले रस्सी को थोड़ा-सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।'

रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गयी, तो दोनों रस्सियाँ चबाने लगे; पर मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।

सहसा घर का द्वार खुला, और वही लड़की निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूछे खड़ी हो गयीं। उसने उनके


माथे सहलाये और बोली-खोले देती हूँ। चुपके से भाग जा़ओ, नहीं यहाँ लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाय।

उसने गरॉव खोल दिया; पर दोनों चुपचाप खड़े रहे।

मोती ने अपनी भाषा में पूछा-अब चलते क्यों नहीं?

हीरा ने कहा-चलें तो; लेकिन कल इस अनाथ पर आफ़त आयेगी। सब इसी पर संदेह करेंगे। सहसा बालिका चिल्लायी-दोनों फूफावाले बैल भागे जा रहे हैं। ओ दादा! दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं! जल्दी दौड़ो!

गया हड़बड़ाकर भीतर से निकला और बैलों को पकड़ने चला। वह दोनों भागे। गया ने पीछा किया। वह और भी तेज हुए। गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौड़ते चले गये। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आये थे, उसका यहाँ पता न था। नये-नये गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए।

हीरा ने कहा-मालूम होता है राह भूल गये।

'तुम भी तो बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।'

'उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड़ दे लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोड़ें!'

दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खड़ी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं है।

जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनो ने डकार ली। फिर सींग मिलाये, और एक दूसरे को ठेलने लगें। मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा
दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आया। सँभलकर उठा और फिर मोती से भिड़ गया। मोती ने देखा-खेल में झगड़ा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।

( ४ )

अरे! वह क्या! कोई साँड़ डौंकता चला आ रहा है। हाँ, साँड़ ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र बगलें झॉक रहे हैं। साँड़ पूरा हाथी है। उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है; लेकिन न भिड़ने पर भी तो जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है। कितनी भयकर सूरत है!

मोती ने मूक भाषा में कहा-बुरे फंँसे। जान कैसे बचेगी। कोई उपाय सोचो।

हीरा ने चिन्तित स्वर में कहा-अपने घमंड में भूला हुआ हैं। आरजू-विनती न सुनेगा।

'भाग क्यों न चलें।'

'भागना कायरता है।'

'तो फिर यहीं मरो। बन्दा तो नौ-दो ग्यारह होता है।'

'और जो दौड़ाये?'

"वो फिर कोई उपाय सोचो जल्द!'

'उपाय यही है कि उस पर दोनो जनें एक साथ चोट करें। मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पड़ेगी, तो भाग खड़ा होगा। ज्योंही मेरी ओर झपटे तुम बगल से उसके पेट में सींग धुसेड़ देना। जान जोखिम है; पर दूसरा उपाय नहीं है।'

दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। साँड़ को कभी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तजुरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था। ज्योंही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौड़ाया। साँड़ उसकी तरफ मुड़ा, तो हीरा ने रगेदा। साँड़ चाहता था कि एक एक
करके दोनों को गिरा लें। पर यह दोनों उस्ताद थे। उसे यह अवसर न देते थे। एक बार साँड़ झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने के लिए चला, कि मोती ने बगल से पाकर उसके पेट में सींग भोंक दी। साँड़ क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग चुभा दिया। आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा, और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहाँ तक कि साँड़ बेदम होकर गिर पड़ा। तब दोनों ने उसे छोड़ दिया।

दोनो मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे।

मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा-मेरा जी चाहता था कि बचा को मार ही डालूँ।

हीरा ने तिरस्कार किया-गिरे हुए वैरी पर सींग न चलाना चाहिए।

'यह सब ढोंग है। वैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।'

'अब घर कैसे पहुंचेगे, यह सोचो।'

'पहले कुछ खा ले, तो सोचे।

सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मना करता रहा; पर उसने एक न सुनी। अभी दो-ही-चार ग्रास खाये थे कि दो आदमी लाठियाँ लिये दौड़ पड़े, और दोनों मित्रों को घेर लिया। हीरा तो मेंड़पर था, निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड़ में धँसने लगे। भाग न सका। पकड़ लिया गया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है, वो लौट पड़ा। फॅसेंगे तो दोनो साथ फँसेंगे। रख वालों ने उसे भी पकड़ लिया।

प्रातःकाल दोनों मित्र कॉंजीहौस में बन्द कर दिये गये।

( ५ )

दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा सबका पड़ा कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ ही में न आता था, यह कैसा स्वामी है। इससे तो गया फिर भी अच्छा था। वहाँ कई भैसे थीं; कई बकरियों, कई घोड़े, कई गधे पर किसी के सामने चारा न था;
सब जमीन पर मुरदों की तरह पड़े थे। कई तो इतने कमजोर हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाये ताकते रहे; पर कोई चारा लेकर आता न दिखायी दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की; पर इससे क्या तृप्ति होती!

रात को भी जब कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी। मोती से बोला-अब तो नहीं रहा जाता मोती!

मोती ने सिर लटकाये हुए जवाब दिया-मुझे तो मालूम होता है, प्राण निकल रहे हैं।

'इतनी जल्द हिम्मत न हारो भाई! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।'

'आओ दीवार तोड़ डालें।'

'मुझसे तो अब कुछ न होगा।'

'बस, इसी बूते पर अकड़ते थे!'

'सारी अकल निकल गयी।'

बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिये और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा। उसने दौड़-दौड़कर दीवार पर चोटें की और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा।

उसी समय काँजीहौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला। हीरा का यह उजड्डपन देखकर उसने उसे कई डंडे रसीद किये और मोटी-सी रस्सी से बाँध दिया।

मोती ने पड़े-पड़े कहा-आखिर मार खाई, क्या मिला?

'अपने बूते-भर जोर तो मार लिया।'

'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गये।'

'जोर तो मारता हो जाऊँगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जायँ।' 'जान से हाथ धोना पड़ेगा।'

'कुछ परवाह नहीं। यो भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती, तो कितनी जान बच जातीं। इतने भाई यहाँ बन्द हैं। किसी की देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा, तो सब मर जायँगे।'

'हाँ, यह बात तो है। अच्छा तो लो, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।

मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और हिम्मत बढ़ी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानों किसी द्वन्द्वी से लड़ रहा है। आखिर कोई दो घंटे की जोर आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गयी उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पड़ी।

दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोड़ियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं। इसके बाद भैसे भी खिसक गयी; पर गधे अभी तक ज्यों-के-यों खड़े थे।

हीरा ने पूछा-तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?

एक गधे ने कहा-जो कहीं फिर पकड़ लिये जाय?

'तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।'

'हमें तो डर लगता है। हम यहीं पड़े रहेंगे।'

आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे, भागें या न भागें। और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था, जब वह हार गया तो, हीरा ने कहा-तुम जाओ, मुझे मुझे यहीं पड़ा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाय।

मोती ने आँखों में आँसू लाकर कहा--तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे। आज तुम विपत्ति में पड़ गये, तो मै तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊँ? हीरा ने कहा-बहुत मार पड़ेगी। लोग समझ जायेंगे, यह तुम्हारी शरारत है।

मोती गर्व से बोला-जिस अपराध के लिए तम्हारे गले में बंधन पड़ा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पड़े, तो क्या चिन्ता। इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियो की जान बच गयी। वह सब तो आशीर्वाद देंगे।

यह कहते हुए मोती ने दोनो गधों को सींगों से मार-मारकर बाड़े के बाहर निकाला और तब अपने बन्धु के पास आकर सो रहा।

भोर होते ही मुंशी और चौकीदार और अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने को जरूरत नहीं। बस इतना ही काफी है कि मोती को खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया गया।

( ६ )

एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहाँ बंधे पड़े रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनो इतने दुर्बल हो गये थे कि उठा तक न जाता था। ठठरियाँ निकल आयी थीं।

एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गये। तब दोनों मित्र निकाले गये और उनकी देख-भाल होने लगी। लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीदार होता?

सहसा एक दढ़ियल आदमी जिसकी आँखें लाल थीं, और मुद्रा अत्यन्त कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उँगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अन्तरज्ञान से दोनों मित्रों के दिल काँप उठे। वह कौन है और उन्हें क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई सन्देह न हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को भीत नेत्रों से देखा, और सिर झुका लिया। हीरा ने कहा-गया के घर से नाहक भागे। अब जान न बचेगी।

मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया-कहते हैं, भगवान् सबके ऊपर दया करते हैं। उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती?

'भगवान् के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उनके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान् ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचायेंगे!

'यह आदमी छुरी चलायेगा। देख लेना।'

'तो क्या चिन्ता है। मांस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जायँगी।

नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढ़ियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी! बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे; पर भय के मारे गिरते-पड़ते भागे जाते थे क्योकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डडा जमा देता था।

राह में गाय बैलों का एक रेवड़ हरे-हरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल। कोई उछलता था, कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका; पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी हैं!

सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ, कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग़ वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज़ होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गयी। अहा! यह लो! अपना ही हार आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे। हाँ, यही कुआँ है।

मोती ने कहा-हमारा घर नगीच आ गया।

हीरा बोला-भगवान् की दया है। 'मैं तो अब घर भागता हूँ।'

'यह जाने देगा!'

'इसे मै मार गिराता हूँ।'

'नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जायेंगे।'

दोनों उन्मत्त होकर बछड़ों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये। दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलो को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे। एक झूरो का हाथ चाट रहा था।

दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड़ ली।

भूरी ने कहा-मेरे बैल हैं।

'तुम्हारे बैल कैसे? मै मवेशीखाने से नीलाम लिये आता हूँ।'

मै तो समझता हूँ, चुराये लिये आते हो। चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मै बेचूंँगा, तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख़तियार है!

'जाकर थाने में रपट कर दूंँगा।'

'मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं।'

दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका; पर खडा दढ़ियल का रास्ता देख रहा था। दढ़ियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा या, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था। और मोती विजयो शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गाँव के लोग तमाशा देखते थे, और हँसते थे। जब दढ़ियल हारकर चला गया, तो मोती अकड़ता हुआ लौटा।

हीरा ने कहा-मै डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।

'अगर वह मुझे पकड़ता, तो मैं बे-मारे न छोड़ता।'

'अब न आयेगा।'

'आयेगा तो दूर ही से खबर लूँगा। देखू कैसे ले जाता है!'

'जो गोली मरवा दे?'

'मर जाऊँगा; पर उसके काम तो न आऊँगा।'

'हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता।'

'इसी लिए कि हम इतने सीधे होते हैं।'

जरा देर में नौदों में खली, भूसा, चोकर, दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खड़ी दोनों को सहला रहा था और बीसों लड़के तमाशा देख रहे थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था।

उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिये।