कलम, तलवार और त्याग/१२-बद्रुद्दीन तैयबजी

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बद्रुद्दीन तैयबजी

हिन्दुस्तान में मुसलमानों का प्रवेश दो रास्तों से हुआ। एक तो बिलोचिस्तान और सिन्ध की ओर से, दूसरा उत्तर-पश्चिम के पहाड़ी भाग से। सिंध की ओर से जो मुसलमान आये वे अरब जाति के थे और व्यापार करने आये थे। पश्चिमोत्तर दिशा से आनेवाले अफ़ग़ान या पठान जाति के थे और देश-विजय के उत्साह से प्रेरित होकर आये थे। अस्तु, बंबई प्रान्त में अधिकतर अरब जाति के मुसलमान आदि हैं जिन्हें अपने व्यपार' संबन्ध के कारण भारतवासियों के साथ बराबरी का नाता जोड़ने में कोई रुकावट न थी। पठान विजेता थे इसलिए इस देश के निवासियों के साथ अधिक हिल-मिलकर रहना पसन्द न करते थे। बद्रुद्दीन तैयबजी भी एक प्रतिष्ठित अरब कुल के सपूत थे जो बहुत अरसे से बंबई में आबाद था। उनके पुरखे तिजारत के सिलसिले में हिन्दुस्तान आये थे और बद्रुद्दीन के पिता तैयबजी भाई मियाँ एक सफल व्यापारी थे। यद्यपि वह धर्मनिष्ठ मुसलमान थे और उस जमाने में बोहरों में अंग्रेजी पढ्ना कुफ़ समझा जाता था, पर ऐसे निरर्थक बन्धन को मानकर अपने होनहार लड़के को अंग्रेजी शिक्षा से वंचित रखना उन्होंने उचित न समझा, जो उनके दूरदर्शी और स्वाधीन-चैती होने का प्रमाण है। बद्रुद्दीन की आरंभिक फारसी और अरबी की पढ़ाई तो अरबी मदरसे में हुई, पर ज्यों ही इन भाषाओं में कुछ योग्यता हो गई, वह एलफिन्स्टन कालिज में भरती कर दिये गये, और सोलह साल की उम्र में शिक्षा-प्राप्ति के लिए इंगलैण्ड भेज दिये गये, जहाँ से १८६७ ई॰ में बैरिस्टर होकर हिन्दुस्तान लौटे। यद्यपि उनका स्वास्थ्य खराब था [ १६० ]
और आँखें भी कमजोर हो गई थीं फिर भी उन्होंने पुरुषाचित दृढ़ता के साथ पढ़ाई जारी रखी और अन्त में सफल हुए। हिन्दुस्तान आकर उन्होंने बंबई हाईकोर्ट में वकालत शुरू की।

वकालत का आरंभिक काल उस समय भी कड़ी मेहनत का होता था, और खासकर बंबई में जहाँ बड़े-बड़े नामी वकील पहले ही से अपना सिक्का जमाये हुए थे, अपनी वकालत जमा लेना बद्रुद्दीन के लिए आसान काम न था। पर दस साल के अन्दर ही आप वहाँ के नामी वकीलों की गिनती में आ गये। इसके साथ ही आप देश के महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक प्रश्नों का अध्ययन करते रहे जो हरएक शिक्षित व्यक्ति का कर्तव्य है जो अपने दिल में देश का कुछ दर्द रखता हो और उसकी भलाई चाहता हो। आप अच्छे वक्ता भी थे। राजनीतिक सभाओं में कई मारके की वक्तृताएँ कीं जिनसे वक्तारूप से भी देश में प्रसिद्ध हो गये। आपको भाषण करने का (पहला) मौक़ा १८७९ ई० में मिला जब मैंचेस्टर से आनेवाले माल की चुंगी उठा दी गई है और इस पर रोष-प्रकाश के लिए बंबई में जिम्मेदार व्यक्तियों की ओर से सार्वजनिक सभा की गई। चूंकि बंबई का वस्त्र-व्यवसाय अभी बच्चा था और मैंचेस्टर लंकाशायर से आनेवाले माल का मुकाबला न कर सकता था, इसलिए सरकार ने आरंभ में इस माल पर चुंगी लगा दी थी जिसमें उसका भाव ऊँचा हो जाय और बंबई के माल की खपत हो। परन्तु विलायत के व्यापारी इस कर का बराबर विरोध किया करते थे। उनके विचार से बंबई का वस्त्र-व्यसाय अब इतना पुष्ट हो चुका था कि सरकार की ओर से उसे किसी प्रकार की सहायता मिलने की आवश्यकता न थी। इस मौके पर बद्रुद्दीन ने ऐसी पौढ़ युक्तिसंगत ज्ञानगर्भ वक्तृता की कि आँख रखनेवाले जान गये कि भारत के राजनीतिक आकाश में एक नये नक्षत्र का उदय हुआ।

वह समय भारत की राजनीति में बहुत दिनों तक याद किया जायगा। लार्ड रिपन उस समय हिन्दुस्तान के वायसराय थे जिनसे [ १६१ ]अधिक साधु प्रकृति, सहानुभूति-प्रवण और न्यायशील वायसराय यहाँ नहीं आया। उनका सिद्धान्त था कि बड़े-बड़े राज्य अपनी सेना और शस्त्रास्त्र के बल से नहीं जीवित रहते, किन्तु अपनी न्यायशीलता और अपने क़ानूनों के धर्म-संगत होने के बल पर जीते हैं। उस समय तक हिन्दुस्तान में स्थानीय आत्मशासन की व्यवस्था का अर्थात् म्यूनिसिपल और जिला बोर्डों का जन्म न हुआ था। जिले का वह प्रबन्ध भी जो अब जिला बोर्डों के हाथ में है, जिला मजिस्ट्रेट ही किया करता था। अपने अन्य कर्तव्यों के साथ-साथ शहर की रोशनी, सफाई, सड़कों की मरम्मत, शिक्षा आदि के प्रबन्ध का भार भी उसी पर होता था। स्पष्ट है कि वह इन कर्तव्यों का पालन तत्परता के ‌साथ न कर सकता था, क्योंकि उसे और भी अनेक कार्य देखने पड़ते थे। लार्ड रपन ने लोकल सेल्फ गवर्नमेंट अर्थात् स्थानीय आत्मशासन का क़ानून जारी किया जिसके अनुसार शहर और जिले को प्रबन्ध करनेवाली संस्थाओं की उत्पत्ति हुई। रिपन का उद्देश्य इस क़ानून से यह था कि भारतवासियों को नगर और जिले के प्रबन्ध का अधिकार ‌प्रदान कर उन्हें इस योग्य बनाया जाय कि प्रान्त और देश के प्रबन्ध का भार भी उठा सकें। अब तो ये स्थानीय बोर्ड एक प्रकार से स्वाधीन हैं। अपनी आमदनी और खर्च पर उन्हें पूरा अधिकार है। जनता उसके लिए सदस्य चुनती है। बोर्ड के कर्मचारियों की नियुक्ति सदस्यों के निश्चय से होती है। अध्यक्ष का चुनाव भी बोर्ड ही करती है। हाँ, सरकार इन बोर्डों की कार्य-प्रणाली की निगरानी करती है। इस क़ानून के लिए हमें लार्ड रिपन के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। यद्यपि अब भी स्थानीय बोर्ड कभी-कभी सरकार के कोप-भाजन हो जाते हैं, पर आम तौर से वह उनके कार्यों में दखल नहीं देती।

लार्ड रिपन ही के समय अलबर्ट-बिल भी पास हुआ। इस क़ानून में हिन्दुस्तानी अफ़सरों को अँग्रेजों को दण्ड दे सकने का अधिकार दिया गया था। उस समय तक उन्हें यह अधिकार न था। इंगलैंड में एक क़ानून है जिसके अनुसार अंग्रेज को अंग्रेज ‘जूरी’ अथवा [ १६२ ]पंचायत ही सजा दे सकती है। हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की अच्छी खासी आबादी है, पर कोई अंग्रेज कितना ही बड़ा अपराध क्यों न करे, कोई हिन्दुस्तानी हाकिम उसके अभियोग का विचार नहीं कर सकता। जब कोई अंग्रेज किसी अपराध में अभियुक्त होता था, तो अंग्रेजों की एक पंचायत इसका मुक़दमा सुनने के लिए नियुक्त की जाती थी और मुक़दमे का एक फ्ररीक़ जब हिन्दुस्तानी होता था, तो अकसर यह पंचायत अभियुक्त की तरफदारी किया करती थी और हिन्दुस्तानियों के साथ अन्याय हो जाता था। इसके सिवा यह एक जातिगत भेद-भाव था जिसे भारतीय अपना अपमान समझते थे। वह कहते थे, अब हम एक देश के निवासी और एक राज्य की प्रजा हैं तो सबके लिए एक क़ानून होना चाहिए। उनमे किसी प्रकार की भेद-दृष्टि रखना उचित नहीं। लार्ड रिपन ने इस मॉग को न्याय-संगत माना और उनके संकेत से कोंसिल के एक सदस्य सर कोर्टनी अलबर्ट ने यह बिल पेश किया तथा सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया। पर अंग्रेजों को यह कब सहन हो सकता था कि वह अपने विशेष अधिकारों से वञ्चित हो जायँ। वह अपने को इस देश की शासक समझते थे और भारतवासियों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। उनका दावा था कि हम सभ्यता में, जाति में, वर्ण (रङ्ग) में भारत में बसनेवालों से ऊँचे हैं और इनके शासक हैं। लार्ड रिपन के विरुद्ध उन्होंने जबर्दस्त आन्दोलन उठाया। अंग्रेजी अखबारों में विरोध के लेख निकलने लगे। भाषणों में लार्ड रिपन पर खुली चोटें की जाने लगीं। अंग्रेजों ने सरकारी जलसों और दावतों में शरीक होना भी बन्द कर दिया। यहाँ तक कि कुछ लोगों ने यह कुचक्र रच डाला कि लार्ड रिपन को पकड़कर जबरदस्ती जहाज पर सवार कराके लंदन रवाना कर दिया जाय। अन्त में लार्ड रिपन को विवश हो इस क़ानून में संशोधन करना पड़ा जिससे उसका उद्देश्य ही एक प्रकार से नष्ट हो गया।

मिस्टर बद्रुद्दीन ने उस समय के राजनीतिक कार्यों में क्रियात्मक [ १६३ ]
भाग़ लिया और कितने ही भाषण किये। शायद ही कोई ऐसी सभा होती थी जिसमें वह न बोलते हौं। उनकी वक्तृताएँ सदा साफ सुन्क्षीत हुई और न्याय का पक्ष लिये हुए होती थीं। सन् १८८१ ई० में बम्बई के तत्कालीन गवर्नर सर जेम्स फ़र्गोनस ने आपको प्रान्तीय वयवस्थापक सभा का सदस्य मनोनीत किया और आपकी लोकसेवा का क्षेत्र और भी विस्तृत हो गया।

१८८५ ई० मैं इण्डियन नैशनल कांग्रेस का जन्म हुआ। यह शिक्षित और मध्यम वर्गवालों की राजनीतिक संस्था थी, जिसका उद्देश्य राजनीतिक अधिकारों की माँग पेश करना था। बद्रुद्दीन इस संस्था के उत्साही कार्यकर्ता थे, और १८८७ ई० मैं उसके मद्रासवाले अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। इस अवसर पर उन्होंने जो अभि-भाषण पढ़ा, उसमें ऐसी बहुदर्शिता, ओजस्विता और निर्भीको स्पष्टवादिता का परिचय दिया कि सुननेवाले दंग रह गये। मिस्टर बद्रुद्दीन केवल वचनवीर न थे, ठोस काम में भी वह उसी उत्साह से योग देते थे।

१८७५ ई० मैं सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ कालिज' की नींव डाल दी थी; पर मुसलमानों में आमतौर पर उस समय नवीन ज्ञान- विज्ञान की ओर उपेक्षा का भाव था। मिंस्टर बद्रुद्दीन ने दिल खोलकर कालिज को आर्थिक सहायता दी, और मुसलमानों में शिक्षा की उन्नति के लिए सब प्रकार यत्न करते रहे। कांग्रेस में मुसलमानों के सहयोग के सम्बन्ध में सर सैयद अहमद से आपका मतभेद था। सर सैयद का मत था कि मुसलमानों का कांग्रेस में शामिल होना ठीक नहीं है, क्योंकि शिक्षा में वह हिन्दुओं से पीछे हैं और कांग्रेस 'जिन सिद्धान्तों का प्रचार करती थी, उनके विचार से मुसलमानों ने हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक हानि होने का डर था। बद्रुद्दीन तैयबजी सैयद अहमद खाँ के इन सिद्धान्तों और विचारों के कट्टर विरोधी थे। इनका मत था कि भारतवासियों को संयुक्त रूप से सरकार के सामने अपनी माँग पेश करनी चादिए। सारांश, इन मतभेदों के रहते [ १६४ ]
हुए भी मिस्टर बद्रुद्दीन अलीगढ़ कालिज की सदा सहायता करते रहे।

१९०३ ई० में जब अडीगढ़ में मुसलिम शिक्षा-सम्मेलन हुआ तो मिस्टर बद्रुद्दीन उसके सभापति चुने गये। इस सम्मेलन में परलोक गत नेवा मुहसीनुलमुल्क और बम्बई के गवर्नर लार्ड बेलिंगटन भी उपस्थित थे, और यद्यपि मिस्टर बद्रुद्नदी उस समय बम्बई हाई- कोर्ट के जज और सरकारी नौकर थे, फिर भी अत्यंत निर्भीकता तथा स्पष्टवादिता के साथ अपने राजनीतिक विचार प्रकट किये और मुसलमानों को सलाह दी कि अगर वह अपने देश की भलाई चाहते हों, तो उन्हें कांग्रेस में सम्मिलित होकर उसका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ानी चाहिए। इस भाषण में अपने स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में भी जोरदार अपील की। आपका निश्चित मत था कि भारत में जब तक पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों को भी शिक्षा न दी जायगी, देश उन्नति के सोपान पर न चढ़ सकेगा। उन्होंने खुद अपनी लड़कियों को ऊँचे दरजे की अंग्रेजी शिक्षा दिलाई थी, यद्यपि मुसलमानों में उस समय तक यह एक असाधारण साहस का कार्य था।

मिस्टर बद्रुद्दीन परदे के भी विरोधी थे और अपने घर की स्त्रियों को इस बंधन से मुक्त कर दिया था। उनका विचार था कि परदे से शरीरिक और मानसिक स्वास होता है। आज सुशिक्षित मुसलमानों में परदे का बन्धन उतना कठोर नहीं है। लाहौर, देहली आदि नगरों में शरीफज़ादियाँ बुरक़ा ओढे निस्संकोच बाहर निकलती हैं, पर उस समय प्रतिष्ठित महिलाओं को बाहर निकलना समाज मैं हँसी कराना और लोगों के व्यग्यवाणों का निशाना बनना था। इससे प्रकट होता है कि जस्टिस बद्रुद्दीन कितने दूरदर्शी और समय को पहचाननेवाले व्यक्ति थे।"

हिन्दुस्तान में उस समय भी अंग्रेजी फैशन चल पड़ा था और आज तो वह इतना व्यापक है कि किसी कालिज या इफ़्तर में चले जाइए, आपको एक सिरे से अंग्रेजी फैशनवाले ही लोग दिखाई देंगे। [ १६५ ]
उनकी बातचीत भी अधिकतर अंग्रेजी में होती है। उन्हें न जातीय भाषा में कोई विशेष प्रेम है, न जातीय पहनावे से, न जातीय शिष्टाचार से। वे तो जातीय आचार-व्यवहार का विरोध करने में ही अपने सुधार के उत्साह की प्रदर्शन करते हैं। संभवतः उनका मन यह सोचकर प्रसन्न होता है कि कम-से-कम पहनावा-पोशाक और तौर-तरीके में तो हम भी अंग्रेजों के बराबर हैं। जातीय पहनावा उनके विचार में पुराण पूजा का प्रमाण है। पर जस्टिस बद्रुद्दीन ने हाईकोर्ट की जज के उच्च पद पर प्रतिष्ठित होने और अंग्रेजी की ऊँचे दरजे की योग्यता रखने पर भी अपनी चाल-ढाल नहीं बदली। अदालत की कुरसी पर हो या मित्रों की मण्डली मैं, वही पुराना अरबी पहनावा बदन पर होता था।

जस्टिस बद्रुद्दीन बड़े ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अपने कर्तव्यों के पालन में वह सदा बहुत ही ऊँचा आदर्श अपने सामने रखते थे। अफ़सरो के प्रसाद के प्रलोभन या रोष के भय से वह कभी अपनी अन्तरात्मा का गला ने घोंटते थे। कांग्रेस के सुप्रसिद्ध नेता स्वर्गवासी पण्डित बालगंगाधर तिलक पर जब सरकार ने राजद्रोह का मुक़दमा चलाया और वह दौरा सिपुर्द हुए तो उनके वकीलों ने उन्हें जमानत पर छोड़ने की दर्ख्वास्त दी। वह दर्ख्वास्त जस्टिस बद्रुद्दीन के इजलास पर पेश हुई। अधिकारियों का ख्याल मिस्टर तिलक की ओर से स्रराब था और इस सरकारी अपराधी' की जमानत मंजूर करना निश्चय ही सरकार की अप्रसन्नता का कारण होता। जस्टिस बद्रुद्दीन के लिए कठिन परीक्षा का प्रसङ्ग था। आप न्यायासन पर विराजमान थे और न्याय नीति से तिलभर भी हटना आपको सहन न था। अतः अपने तिलकजी की जमानत मंजूर कर छी। सारे देश में आपकी न्याय- निष्ठा की प्रसिद्धि हो गई।

जस्टिस बद्रुद्दीन में स्वधर्म और स्वजाति का अभिमान कूट-कूटकर भरा हुआ था। इनकी उचित आलोचना सुनने में तो आपको आपत्ति न थी। पर इनका अपमान असह्य था। क़ाज़ी कबीरुद्दीन साहब ने [ १६६ ]
आपके जीवन-वृत्तान्त का वर्णन करते हुए एक घटना लिखी है जो आपके जातीय स्वाभिमान पर प्रकाश डालती है। एक बार वक़फ़ (धर्मोत्तर सम्पत्ति) के मुकदमे में बम्बई के एडवोकेट जेनरल ने अदालत में कहा कि इस प्रश्न पर ‘मोहन उनला' में संभवतः कोई फैसला नहीं है। जस्टिस बद्रुद्दीन इसका सहन न कर सके और बोले-‘मिस्टर एडवोकेट जेनरल, यह कहने का साहस करना कि इस मसले पर व्यापक और सङ्कपूर्ण ‘मोहन उनला' में कोई फैसला नहीं है, इस पूजनीय विधान का अपमान करना है। इस पर ऐडवोकेट जेनरल ने तुरंत माफी माँगी और कहा कि 'मोहन उनला' से कोई फैसला न होने से मेरा अभिप्राय केवल यह था कि मेरी पहुँच वहाँ तक नहीं है, अर्थात् उसका अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ है।

एक दूसरे मौके पर एक अंग्रेज बैरिस्टर ने किसी मुकदमे में कुछ यूपियन गवाह पेश करते हुए कहा-यह गवाह यूरोपियन होने के कारण दूसरे गवाहो की अपेक्षा जो प्रतिष्ठित व्यापारी हैं, पर हिन्दूस्तानी है, अधिक विश्वसनीय हैं। जस्टिस बद्रुद्दीन ने तुरन्। उन बैरिस्टर साहब की ज़बान पकड़ी और बोले- क्या आप सोचते हैं कि हर एक अंग्रेज हर एक हिन्दुस्तानी से स्वभावतः अधिक सत्यवादी और प्रमाणिक होता है ? ऐसा कहना इस अदालत का अपमान करना है। बैरिस्टर साहब बहुत ही लज्जित हुए।

उस समय की इण्डियन नैशनल कांग्रेस के आप सदा प्रशंसक और सहायक रहे। एक बार किसी बैरिस्टर ने कांग्रेस के विषय में कुछ अनुचित शब्द कहे। जस्टिस बद्रुद्दीन ने उनसे तो कुछ न कहा, पर मुक़दमे का फैसला लिखते हुए कांग्रेस के प्रति अपने सद्भाव को दुहराया और लिखा-कांग्रेस वह प्रभावशालिनी संस्था है जो राष्ट्र की आवश्यकताओं और अंगों को सर्वोत्तम प्रकार से प्रतिनिधित्व करती हैं।

भारतवासियों की अव्यवस्थितता तो प्रसिद्ध ही है। समय का पालन ऐसा गुण है जिससे साधारणतया हम वंचित हैं। किसी सभा[ १६७ ]
सम्मेलन में जाइए, वह अपने नियत समय से घण्टे-आध घण्टे बाद 'अवश्य होगी। रेल की यात्रा ही को लीजिए। या तो हम दो-ढाई घण्टे पहले स्टेशन पर पहुँच जाते हैं या इतना कम समय रह जाने पर कि दौड़कर गाड़ी में सवार होना पड़ता है। जस्टिस बद्रुद्दीन वक्त की पाबन्दी की खास तौर से ध्यान रखते थे। थोड़ा-सा व्यायाम वह नित्य करते थे। कितना ही आवश्यक कार्य उपस्थित हो, इस काम मैं अन्तर न पड़ता था। हाँ, बीमारी की हालत मैं लाचारी थी। बल्कि जिस दिन काम की भीड़ अधिक होती थी उस दिन वह नित्य के समय से कुछ पहले ही व्यायाम आरम्भ कर देते थे। शाम को हाईकोर्ट से उठकर कींसरोड के छोर तक पैदल जाना उनका नित्य- नेम था और इसमें उन्होने कभी अन्तर नहीं पड़ने दिया। ऐसे नियम- बद्ध और समानगति से चलनेवाले दृष्टान्त जीवन में बहुत कम मिलते हैं।

११ अगस्त १९०६ ई० को आप परलोकगामी हुए और भारतमाता के ऐसे सपूत बेटे की यादगार छोड़ी जिस पर वह सदा गर्व करेगी।

Allahabad