कलम, तलवार और त्याग/७-राजा टोडरमल

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कलम, तलवार और त्याग  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ९६ ]यों तो अकबर का दरबार विद्या और कला, नीतिज्ञता और कार्य कुशलता का भंडार था; पर इतिहास के पन्नो पर टोडरमल का नाम जिस आब-ताब के साथ चमका, राज्य-प्रबन्ध और शासन-नीति में जो स्मरणीय कार्य उसके नाम से संयुक्त है, वह उसके समकालीनो में से किसी को प्राप्त नहीं। खानखाना, खानज़माँ और खान आज़म की प्रलयकारी तलवारें थीं, जिन्होने अकबरी दुनिया में धूम मचा रखी थी, पर वह बिजलियाँ थीं कि अचानक कौघी और फिर आँखों से ओझल हो गईं। अबुल फज़ल और फैजी के अनुसंधान और गहरी खोजें थीं कि जिज्ञासु जन चाहें तो आज भी उनसे अपनी ज्ञानपरिधि का विस्तार कर सकते है। परन्तु टोडरमल की यादगार, वह शासन- व्यवस्थाएँ और विधान हैं जो सभ्यता और संस्कृति की इतनी प्रगति के बाद भी आज तक गौरव की दृष्टि से देखे और श्रद्धा के साथ बरते जाते हैं। न काल की प्रगति उन्हे छूने का साहस कर सकी और न शासन-प्रणाली के अदल-बदल।

टोडरमल जाति का खत्री और गोत्र का टंडन था। उसके जन्म स्थान के विषय में मतभेद हैं, पर एशियाटिक सोसायटी की नई खोजों ने निश्चित कर दिया है कि अवध प्रदेश के लाहरपुर ग्राम को उसकी जन्म-भूमि होने का गौरव प्राप्त हैं। मा-बाप निर्धनता के कारण कष्ट से दिन बिता रहे थे। उस पर यह विपत्ति और पड़ी कि अभी टोडरमल के हाथ पाँव सम्हलने न पाये थे कि बाप का साया भी सिर से उठ गया और विधवा माता ने न मालूम किन कठिनाइयों से इस होनहार बच्चे को पला। पर भगवान का लीला को देखिए कि यही अनाथ और [ ९७ ]
असहाय बालक सम्राट अकबर को प्रधान मंत्री हुआ जिसकी लेखनी की सत्ता सारे भारतवर्ष में व्याप्त थी। दुनिया में बहुत कम ऐसी माताएँ होंगी, जिनके लड़के ऐसे सपूत होगे और कम ही किसी सन्त-महात्मा का आशीवाद ईश्वर के दरबार में इस प्रकार स्वीकृत हुआ होगा।

उस जमाने में जब कि शिक्षा ऊँची श्रेणीवालौं तक ही सीमित थी और आज की शिक्षा-संबन्धी सुविधाओं का नाम भी न था, इस निर्धन बालक की पढ़ाई-लिखाई क्या हो सकती थी। हाँ, वह स्वभाअतः तीक्ष्णबुद्धि, परिश्रमी और ढंग से काम करनेवाला था और यह अभ्यास वय के साथ-साथ दृढ़ होते गये। अभी वयस्क भी न होने पाया था कि जीविकार्जन की आवश्यकता ने घर से बाहर निकाला। शेरशाह सूरी उन दिनों भारत का भाग्य-विधाता हो रहा था और उसका मंत्री मुजफ्फर खाँ जमीन को बन्दोबस्त करने में व्यस्त था। इसकी सरकार में साधारण क्लर्क का काम करने लगा। पर नैसर्गिक प्रतिभा और सहज गुण कब छिपे रहते हैं! अपनी कार्यकुशलता और श्रम शीलता की बदौलत आगे-आगे रहने लगा; और दफ्तर के अनेक विभाग उसके अधीन हो गये । चूँकि आरंभ से ही उसको पुस्तका- ध्ययन और नई-नई बातों के जानने का शौक था, बहुत जल्द दफ्तर के काम-काज और सारी बातों का पूरी जानकार हो गया। इस बीच जमाने ने करवट बदली। और सूरी-वंश का ह्रास हुआ और हुमायूँ का भाग्य जागा। पर वह भी कुछ दिनों में स्वर्ग को सिधारा और अकबर ने राजमुकुट सिर पर धरा। वह आदमी का परखनेवाला था। एक ही निगाह मैं ताड़ गया कि यह नौजवान मुंशी एक दिन जरूर नाम करेगा। उसे अपनी सरकार में ले लिया और दरबार में रहने का हुक्म दिया है।

पर अकबर का दरबार वह उद्धान न था जहाँ कोई निरा सिपाही या निरा मुंशी यश और सम्मान के फूल चुन सकता। टोडरमल अब तक कलम के जौहर दिखाता रहा। पर सन् १५६५ ई० में आवश्यकता [ ९८ ]
हुई कि वह यह दिखाये कि मैं किस रग-पट्टे और दम-खम का सिपाही हूँ। उन दिनों हुसैन कुली खाँ–खाँजमाँ ने फ़साद पर कमर बाँधी थी। वह अपने समय का बड़ा ही रण-कुशल, पराक्रमी योद्धा था, और कितने ही मारकों में अपने साहस तथा वीरता का प्रमाण दे चुका था। खुद तो बिहार और जौनपुर के सूबे दबाये बैठा था और अपने छोटे भाई बहादुर खाँ को, जो वीरता और साहस में उसी की जोड़ी था, अवध की ओर रवाना किया था। अकबर ने मीर मुइज्जुलमुल्क को भेजा कि बहादुर खाँ को गिरफ्तार करके दरबार में हाजिर करे। पर उससे कोई काम न-बनते देखकर टोडरमल को भेजा कि विकृत-मस्तिष्क नमकहरामो को चेतावनी दे दे और इससे काम न निकले तो कान उमेठकर अक्ल ठिक कर दे। टोडरमल तुरंत इस मुहिम पर रवाना हुआ, पर मुकाबला ऐसा का था और मीर मुइज्जुलमुल्क, जिसके नाम सेनापतित्व था, ऐसा कच्चा सिपाही था कि शाही फौज को पीछे हटते ही बना.! हाँ, धन्य है टोडरमल को कि मैदाम से न टला और इस हार में भी मानो उसकी जीत ही रही। अकबर ने पहली बार परीक्षा ली थी, उसमें पूरा उतरा। फिर तो उसकी लेखनी की तरह उसकी-तलवार भी सराटे भरने लगी। जिस भूमि पर जाता, विजय लक्ष्मी: उसके गले में जयमाल डाली। चित्तौड़, रणथंभोर और सूरत की विजयों में उसने अपना लोहा मनवा दिया और अपने समय के प्रौद्, सम्मानित सेना नायको' में गिना जाने लगा।

पर सबसे बड़ी-मुहिम जिसने उसकी वीरत का सिमा मिटा दिया और जिसमें उसने अपने जीवन के ७ साल लगा दिये, बंगाल की चढ़ाई थी। खाँजमाँ ने सन् १५६७ ई० में अपनी करनी का फल पाया, और मुनइम खाँ खानरान उसकी जगह सेनापति बनाया गया। पर कुछ तो वह स्वभाव से ही शान्ति-प्रिय था, और कुछ बंगाल के अफ़यान, युद्ध ने तूल खींचा। अन्त को शाही फौज के लोग आठ प्रहर की दैड़धूप से ऊब गये। जी चुराने लगे। अकबर को इन सब बातो की गुप्त सूचना मिलती रहती थी। सोचा कि किसी ऐसे दृढचित्त और [ ९९ ]
अनुशासनविद् व्यक्ति को बंगाल भेजें जो सार सेना को अनुशासन के शिकंजे में कसकर उसकी नसे ढीली कर दे। ऐसा आदमी टोडरमल के सिवा और कोई दिखाई न दिया। अतः राजा कुछ नामी योद्धाओं के साथ बंगाल को रवाना हुआ।

बंगाल में राजा टोडरमल ने वह-वह काम किये जिनसे इतिहास के पन्ने सदा चमकते रहेगे। यह उसी की बुद्धि-विचक्षणता थी जिसने सारे बंगाल में अकबर की दुहाई फिरवा दी। उसके एक हाथ में तलवार है, दूसरे मैं तेग़ा। काम की भीड़ से दम मारने की फुरसत नहीं। कहीं तो वह तलवार में जौहर दिखाता है, कहीं काग़ज़ी घोड़े दौड़ाता हैं। रण में जहाँ अड़ जाता, वहाँ से हटना नहीं जानता। सिपाहियों को ऐसा बढ़ाता, ऐसी ललकारता है कि हारी हुई लड़ाई जीत लेता है। यह इसी का दिल हैं कि तुर्क व तातारी सिपाहियों को, धोखा देना जिनकी घुट्टी में पड़ा हुआ है, कहीं मित्रोचित चेतावनी से कहीं डरावे से, कहीं लालच से काबू में रखता है। उसकी सतत विजय ने पठानों के छक्के छुड़ा दिये। दाऊद खाँ आखिरी बार अपने दिल के अरमान निकालकर क़तल हुआ। बैल सूबे पर अकबरी पताका फहराने लगी और टौडरमल विजय की दुंदुभी बजाता, यश के घोड़े पर सवार राजधानी को लौटा और यथापूर्वं मंत्रित्व के काम करने लगा। मोतभिदुद्दौला की उपाधि पाई, और विद्या से और भी मान-सम्मान का अधिकारी हुआ है।

इसी बीच खबर मिली कि वजीरखाँ की गुस्ताखि से गुजरात में गड़बड़ मच रही है। फौरन टोडरमल को हुक्म हुआ कि जाकर वह की स्थिति को सुधारे। राजा साहब रवाना हुए और वहाँ पहुँचकर माल-महकमे आदिं की जाँच करने लगे। इतने ही में यह गुल खिला कि गुजरात के कुछ फ़सादियों ने बगावत मचा दी। व़जीर खाँ की हिम्मत छूट गई। क़ीला बंद हो गया और साथ ही दूत दौड़ाये कि भागा-भाग दोडरमल को खबर करें। राजा भला ऐसी खतरे और परेशानी की खबर सुनकर कई एक क्षण का विलंब सहन कर सकता [ १०० ]
था। तुरत बारियों पर धावा किया है वज़ीर खाँ को मर्द बनाकर किले के बाहर निकाला और दुश्मनों को दोलका के तंग मैदान में जा लिया। वहाँ ,खूब घमासान की लड़ाई हुई। शत्रुपक्ष की नीयत थी कि राजा को ठिकाने लगायें। पहले ही घात लगाये बैठा था! परन्तु राजा की सिंह-सुलभ ललकार और वज्रघातिनी तलवार ने उसको सबै ताना-बाना तोड़ डाला। वह मुहिम मारकर यशोमण्डित राजधानी को लौटा और दूना मान-सम्मान प्राप्त किया।

पर वह समय ही कुछ ऐसी घटनापूर्ण था और सच्चे कर्तव्यनिष्ट कर्मचारियों का कुछ ऐसा टोटा था कि टोडरमल जैसे उत्साही कार्य- कुशल सेवक को चैन से बैठना संभव न था। गुजरात से आया ही थी कि बंगाल में फिर जोर-शोर से आँधी उठी। पर इस बार उसका रंग कुछ और ही था। सेना और सरदार सेनापति से बाग़ी हो गये थे। अकबर ने टोडरमल को रवाना किया और उसने इस विप्लव को ऐसी चतुराई और सुन्दर युक्तियो से ठंडा किया कि किसी को कानों- कान खबर न हुई। नहीं तो दुश्मन कब सिर उठाने से बाज रहता! राजा से ईष्र्या-द्वेष रखनेवाले कुंछ पामरों ने घात लगाई थी कि सेना के निरीक्षण के समय राजा का काम तमाम कर दें, पर वह एक ही सयाना था, ऐसों के पंजे में कब आ सकता था। साफ़ निकल गया।

१५८२ ई० में आगरे को लौटा! अपनी सच्ची स्वामि-भक्ति और सेवाओं के कारण राज्य का 'दीवाने-बुल' अथवा अर्थ-मंत्री बना दिया गया है और २२ सूबों पर उसकी कलम दौड़ने लगी। इस समय से मृत्युकाल तक टोडरमल को अपनी कलम का जौहर और राज्यप्रबन्ध-विषयक प्रतिभा के चमत्कार दिखाने का ,खुब मौका मिला। केवल एक बार यूसुफ़जइयों की मुहिम में राजा मानसिंह की सहायता को जाना पड़ा था।

यद्यपि राजा बहुत ही साधु-स्वभाव और शुद्ध निश्छल हृदय का व्यक्ति था, फिर भी १५८९ ई० में किसी दुश्मन ने उस पर तलवार चढ़ाई। सौभाग्यवश वह तो बाल-बाल बच गया, पर उसका [ १०१ ]
फल एक अभागे खत्री बच्चे को भुगतना पड़ा। गहरा सन्देह है कि यह किसी द्वेष रखनेवाले सरदार वा अधिकारी का इशारा था पर संभवतः यह हमला मौत का ही था। क्योंकि इस घटना के थोड़े ही दिन बाद राजा को इस लोक विदा हो जाना पड़ा। निर्दयी ने दूसरा हमला ज्वर के रूप में किया और अबकी जान लेकर ही छोड़ा।

ऐतिहासिको ने टोडरमल पर खूब आलोचना-प्रत्यालोचना की है, पर जिन लोगों को उससे आत्यन्तिक मतभेद है, वह भी उसका भला ही मनाते है। अकबर के समस्त बड़े अधिकारियों और सरदारों में वह सबसे अधिक सच्चा और विश्वासी शुभचिन्तक था। उसके सिवा और कोई मन्त्री, सूबेदार आदि ऐसा न था जिसने दगा देने और नमकहरामी का धब्बा अपने ऊपर न लगाया हो। वही एक पुरुष है। जिसकी नेकनामी की चादर बगले के पर की तरह स्वच्छ है। रागद्वेष युक्त ऐतिहासिकों ने उस पर धब्बे लगाने की कोशिश जरूर की, पर विफल रहे।

टोडरमल की कारगुजारियों को बयान करना अकबर के राज्यकाल का इतिहास लिखना है। ऐसा कौन-सा विभाग था दीवानी, माल या सेना, जिस पर टोडरमले की कार्य-कुशलता और प्रबन्ध-पटुता की मुहर न लगी हो। शाही लश्कर पहले कोसों में उतरा करता था। हाथीखाना कुछ यहाँ है तो कुछ वहाँ। तोपखाने का एक हिस्सा इस सिरे पर है तो दूसरा उस सिरे पर। सारांश बड़ी अस्त-व्यस्तता रहा करती थी।दोडरमल की नियम-प्रिय प्रकृति ने पैदल, सवार, तोपखाना, रसद, बाजार, लश्कर आदि के उतारने के लिए व्यवस्थाएँ निकाली। इसी सिलसिले में आइने दाग' अर्थात् घोड़े पर दाग लगाने के नियम की चर्चा भी आवश्यक मालूम होती है। पहले स्थायी सेना न रखी जाती थी, सामन्तों सरदारों को जागीरें मिल जाया करती थीं और उनको हुक्म था कि जब आज्ञा हो अपनी नियत सेना के साथ दरबार में हाजिर हुआ करें। सरदार इसमें दाव-पेच निकालकर जेब भरते, हाजिरी और जाँच के समय घोड़ों की नियत संख्या इधर-उधर से माँग जाँच[ १०२ ]
कर दिखा देते। जब यह बला सिर से टल जाती तो फिर वही ढर्रा पकड़ लेते। टोडरमल ने इसका भी प्रतीकार किया कि जाँच के समय घोड़ों पर दाग़ लगा दिया जाता जिसमें धोखेबाजी की कोई मौक़ा न रहे।

सिकन्दर लोदी के जमाने तक हिन्दू लोग आम तौर से फ़ारसी या अरबी में पढ़ते थे, इन्हें 'स्लेच्छ-विद्या' कहते थे। टोडरमल ने प्रस्ताव किया कि संपूर्ण भारत-साम्राज्य के सब दफ्तर फ़ारसी में हो जायँ। पहले तो हिन्दू इस योजना से चौंके, पर टोडरमल ने उनके दिलो में यह बात अच्छी तरह बैठा दी कि राजा की भाषा जीविका की कुंजी है। ऊँचे पद, अधिकार और सम्मान चाहते हो तो भाषा को सीखकर पा सकते हो, अकबर ने भी सहारा दिया, योजना चल निकली और कुछ ही साल के अरसे में बहुत-से हिन्दू फारसी-दाँ हो गये। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि दोडरमल उर्दू भाषा का •पूर्व-पुरुष है, क्योंकि यह उसी की दूरदर्शिता का फल है कि हिन्दुओं में फ़ारसी का चलन हुआ। फारसी शब्द मामूली घरेलू बोल-चाल में प्रयुक्त होने लगे, और इस प्रकार रेखते * से उर्दू की जड़ मजबूत हुई।

टोडरमल गणना-शास्त्र-- हिसाब-किताब की विद्या में अपने समय का सर्वमान्य आचार्य था। पहले शाही गणना-विभाग बिल्कुल अव्यव्स्थित थी। कहीं काराज्यात फारसी में थे, कहीं हिन्दी मे। टोडरमल ने इस अस्त-व्यस्त स्थिति को भी नियम-व्यवस्था की शृंखला ल में बाधा। यद्यपि इस संबन्ध में ख्वाजाशाह मंसूर, मुजफ्फर खाँ और असिफ खाँ ने भी बड़े-बड़े काम किये, पर टोडरमल की कीर्ति की चमक दमक के सामने उनका कुछ मूल्य न रहा व। बहुत से नक़्शे और तालिकाओं के नमूने 'आईने अकबरी' में दर्ज हैं, आज भी उन्ही की खानापुरी की जाती है। यहाँ तक कि सांकेतिक शब्दावली में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

  • उर्दू का पहला नाम जिसका अर्थ है- मिली-जुली खिचड़ी भाषा, क्युकी उर्दू भाषा अरबी, फारसी, तुर्को हिन्दी आदि शब्दों की खिचड़ी है। [ १०३ ]पर सबसे महान् कार्य जो टोडरमल की यादगार है और जिसने

सारे सभ्य-जगत् में अर्थनीतिज्ञों में उसको विशिष्ट स्थान दे रखा है, उसका मालगुजारी को बन्दोबस्त है जिसको संक्षेप में बता देना विस्तार- भय होते हुए भी, हम आवश्यक समझते है।

पहले मालगुजारी का प्रबन्ध कूते पर था। टोडरमल की सलाह से सारी अधिकृत भूमि की पैमाइश की गई। पहले जरीब रस्सी की होती थी, इससे सूखी और तर जमीन में अन्तर पड़ जाता था। इसलिए बॉस के टोटों में लोहे की कड़ियाँ डालकर जब तैयार की गई। सारी सुखी और गीली जमीन सय पहाड़ जङ्गल, ऊसर, बंजर के नाप खाली गई। कुछ गाँवों का परगना, कुछ परगनो की सरकार, और कुछ सरकारों का एक सूबा ठगा गया। बन्दोबस्त दस साली नियत हुआ। अब ३० साला नियत है। राजस्व का नियम यह बाँधा कि घारानी अर्थात् ऐसी जमीन में जहाँ वर्षा के जल से अन्न उत्पन्न होता हो, आधा किसान का और आधा बादशाह का और सिंचाईवाली जमीन में हर खेत पर चौथाई खर्च और उसकी खरीद बेची की लागत लगाकर अनाज में एक तिहाई बादशाही। ईंख इत्यादि पर जो आला जिन्स कहलाती है, और पानी, निगरानी, कमाई आदि की मेनहत अनाज से ज्यादा खाती हैं, प्रकार के अनुसार १/४, १/५, १/६ या १/७ हक्क बादशाही, बाकी हक़ काश्तकार। “आईने अकबरी' में इनके नियम जिन्सवार लिखे है।

युरोपीय महापुरुषों की तरह टोडरमल ने भी हर काम को निश्चित सिद्धान्त और समय के अनुसार करने की आदत डाल रखी थी। समस्त विभागों के दफ्तर कठपुतली की तरह उसकी उँगली के इशारे पर काम करते थे। अकबर जैसा गुणों की परख करनेवाली बादशाह इन गुणों की क़द्र न करता, यह असंभव था। इसमें सन्देह नहीं कि उसके नियम-प्रतिबन्धों के कारण बड़े और प्रभावशाली लोग अकसर दिल में जला करते थे। इसी से अकबर के काल के. इतिहास[ १०४ ]
लेखकों ने उसे अभिमानी और घमण्डी लिखा है। पर ध्यान रहे कि नियमनिष्ठ लोग अकसर स्वार्थी जनों की झूठी तुहमतों के शिकार हो जाते हैं। यह टोडरमल की सौम्य-वृत्ति और विवेकशीलता ही थी, जिससे वह अपनी इज्जत आबरू सम्हाले रहा। नहीं तो दरबार के प्रभावशाली व्यक्तियों ने तो उसकी बुराई करने में कोई कसर न रखी थी।

टोडरमल को घमण्डी कहना वस्तुस्थिति पर धूल डालना है, बंगाल में उसने ७ साल तक असि-संचालन किया और यद्यपि सारी सेना उसकी भृकुटी के सकेत पर चलती थी, पर उसने कभी सेनापतित्व की दावा न किया। उसने अपने को ऊँचा करना सीखा ही न था और अकबर जैसा गुण-पारखी मालिक उसको न मिल जाता तो किरानी का पद ही उसकी उन्नति का शिखर बनकर रह जाता। इस नम्रता के साथ प्रकृति में स्वाधीनता भी ऐसी थी कि बंगाल में मुनइम खाँ खान खानाँ ने जब दाऊद खाँ से सुलह भी की, तो टोडरमल ने उसका विरोध किया। और अपनी बात पर ऐसा अड़ा कि संधिपत्र पर मुहर तक न की। इसी स्वाधीनता-प्रियता को जलन रखनेवालों की संकीर्णता ने घमंड और अहंकार का रूप दे दिया। इस स्वातंत्र्य-प्रियता के साथ स्पष्टभाषिता का गुण भी उसे काफ़ी मिला था। बादशाह के मुँह पर भी सच बात कहने से न चूकता। सैकड़ों लम्बी दाढ़ीवाले मुल्ला दरबार की हवा में आकर नास्तिकता की घोषणा करने लगे थे, पर टोडरमल अन्त समय तक कट्टर धर्मनिष्ठ हिन्दू बना रहा। जब तक ठाकुरजी की पूजा न कर लेता, अन्न मुँह में न डालता। इससे बढ़कर स्वतन्त्र विचार का होने का और क्या प्रमाण हो सकता है।