पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२४
दुर्गेशनन्दिनी।



यदि वह तुम्हारी पत्नी हो तो मुझको अंगीकार है पर जो तुम्हारे मन में यह बात न हो—'

पिता की बात पूरी नहीं होने पाई कि 'उन्ने' रोष करके कहा 'शूद्री कन्या को मैं कैसे विवाह सक्ता हूं?'

पिता ने कहा 'जारजा कन्या से कैसे विवाह किया था?'

प्राण प्रीतम ने कहा, उस समय मैं इसबात को नहीं जानता था जान बूझ कर कोई शूद्री की कन्या विवाह करता है? और आपकी पुत्री जारजा भी हो तो शूद्री नहीं हो सक्ती।'

पिताने कहा 'तुमने विवाह अस्वीकृत किया तो बहुत अच्छा तुम्हारे आने जाने से विमला को दुःख होता है अतएव अब यहां तुम्हारे आने का कुछ प्रयोजन नहीं। हमीं तुम्हारे घर पर आया करेंगे।'

उस दिन से उन्होंने आना जाना बन्द कर दिया। किन्तु मैं चातकी की भांति उनकी राह देखा करती थी उनसे भी न रहा गया और फिर आने जाने लगे। विरह ने प्रीत का रस चखा दिया और द्वितीय बार दर्शन होने से मेरा कुछ संकोच भी जाता रहा। पिता ने भी देखा और एक दिन मुझको बुला कर कहा, मैंने उदासी धर्म ग्रहण किया है और कुछ दिन देशाटन करूंगा तब तक तुम कहां रहोगी?'

मैं यह सुन कर रोने लगी और बोली मैं 'तुम्हारे सङ्ग चलूंगी' फिर जो प्राणेश्वर का ध्यान आ गया तो कहा 'नहीं तो जैसे काशी में अकेली रही थी उसी प्रकार अब भी रहूंगी।'

पिताने कहा 'नहीं मैंने एक उत्तम उपाय सोचा है जब तक मैं बाहर रहूं तब तक तुम महाराज मानसिंह की नवोढ़ा स्त्री के साथ रहना।'

मैं तुरन्त बोल उठी 'मैं तुम्हारे ही पास रहूंगी' पिता ने