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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/६९

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धीरे से सड़क पर आया और बाइसिकिल पर बैठ ही रहा था कि भीतर से सिल्लो निकल आई। अमर को देखते ही बोली--अरे भैया, सुनो, कहां जाते हो ? बहुजी बहुत बेहाल है, कब से तुम्हें बुला रही हैं। सारी देह पसीने से तर हो रही है। देखो भैया, मैं सोने की कण्ठी लूँगी। पीछे से हीलाहवाला न करना।

अमरकान्त समझ गया। बाइसिकिल से उतर पड़ा और हवा की भांति झपटा हुआ अन्दर जा पहुँचा। वहां रेणुका, एक दाई, पड़ोस की एक ब्राह्मणी और नैना आंगन में बैठी हुई थीं। बीच में एक ढोलक रखी हुई थी। कमरे में सुखदा प्रसव वेदना से हाय-हाय कर रही थी।

नैना ने दौड़कर अमर का हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली--तुम कहां थे भैया, भाभी बड़ी देर से बेचैन हैं।

अमर के हृदय में आंसुओं की ऐसी लहर उठी, कि वह रो पड़ा। सुखदा के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया; पर अन्दर पाँव न रख सका। उसका हृदय फटा जाता था।

सखदा ने वेदना-भरी आंखों से उसकी ओर देखकर कहा--अब नहीं बचूँगी। हाय ! पेट में जैसे कोई बर्छी चुभो रहा है। मेरा कहा-सुना माफ़ करना।

रेणुका ने दौड़कर अमरकान्त से कहा--तुम यहाँ से जाओ भैया! तुम्हें देखकर बह और बेचैन होगी। किसी को भेज दो, लेडी डाक्टर को बुला लाओ। जी कड़ा करो, समझदार होकर रोते हो ?

सुखदा बोली--नहीं अम्माँ, उनसे कह दो जरा यहाँ बैठ जायें : मैं अब न बचूँगी। हाय भगवान !

रेणुका ने अमर को डाँटकर कहा--मैं तुमसे कहती हूँ, यहाँ से चले जाओ, और तुम खड़े रो रहे हो। जाकर लेडी डाक्टर को बुलाओ।

अमरकान्त रोता हुआ बाहर निकला और जनाने अस्पताल की ओर चला ; पर रास्ते में भी रह-रहकर उसके कलेजे में हूक सी उठती रही। सुखदा की वह वेदना-मय मूर्ति आँखों के सामने फिरती रही।

लेडी डाक्टर मिस हूपर को अकसर कुसमय बुलावे आते रहते थे। रात की उसकी फीस दुगुनी थी। अमरकान्त डर रहा था, कि कहीं बिगड़े न कि

कर्मभूमि
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