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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२१२

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निबंध-रत्नावली

(६) अभी जरा मेरे नेत्र जो फिरे तो क्या देखता हूँ कि एक टूटे-फूटे मिट्टी के किनारोंवाला कुंड है। उस पर सब्ज काई उग रही है। और कुछ एक प्रकार के पेड़ अपनी लंबी लंबी डालियों से तालाब के बाज हिस्सों को छाता लगा रहे हैं। परंतु सारे तालाब पर कमल फूल अपने चौड़ चौड़े हरे हरे पत्तों के सिंहासन पर सारी दुनिया के राजसिंहासनों को मात करते हुए अपने सौरभ्य गौरव में प्रसन्न मन विराज रहे हैं। जो पवि- त्रता के स्वरूप को देखना है तो पाठक ! क्यों नहीं प्रातःकाल इन कमलों को देखते ? पुस्तकों में और मेरे लेखों में क्या धरा है?

(७) वाह रे चित्रकार ! शाबाश है तेरी अद्भुत कला को, जिसने इस चित्र में, पता नहीं किस तरह, विराट् स्वरूप भग- वान् को लाकर लटका दिया ! सारे का सारा विराट् स्वरूप जगत् दर्शाया है । और यह भी किसी की आँख में, परंतु किस कला से दर्शाया है, न तो आँख नजर आती है, और न आँख- वाले के कहीं दर्शन होते हैं। केवल विराट् स्वरूप ही देख पड़ता है। मुझे कृष्णजी महाराज का खयाल आया । उनके मुख को देखा, पर उनका चित्र ऐसी कला से संयुक्त नहीं । क्योंकि साथ ही साथ देखनेवाला भी नजर आ रहा है। इस अद्भुत चित्र के अंदर ही अंदर गुप्त प्रकार से लिखा है "पवित्रता"। इस शब्द को ढूँढ़ना है। जब तक यह न ढूँढ़ लूँ, इस चित्र को कैसे छोड़ सकता हूँ। यक्ष पास खड़ा है । चित्रकार ने अपने इस चित्र के दर्शन का यह मूल्य रखा है अगर आगे